भारत में मौजूदा वित्तीय प्रणाली की कमजोरी को देखते हुए फिनटेक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। वित्त का काम जोखिम और समय से बेहतर तरीके से निपटने के लिए वास्तविक अर्थव्यवस्था की मदद करना है। भारत में वित्त सही रहे इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि भौगोलिक और वर्ग की विविधता के साथ रहने वाले लोगों के जीवन को सही बनाने के लिए उत्पादों और प्रक्रियाओं पर जोखिम उठाया जाए और नवाचार किया जाए।
यह उस वित्तीय आर्थिक नीति को खारिज करता है जहां सरकार और उसकी एजेंसियां उत्पादों और प्रक्रियाओं पर विस्तृत नियंत्रण के साथ एक केंद्रीय नियोजन प्रणाली चलाती हैं। कानून के शासन की सीमाएं वित्तीय फर्मों को नवाचार करने के प्रति सतर्क करती हैं। सरकार नियंत्रित एकाधिकार प्रणाली, जो कि राष्ट्रीय चैंपियन है, राज्य के नियंत्रण को गहरा करती है। भारतीय वित्त का भविष्य वित्तीय आर्थिक नीति के बदलाव में ही निहित है।
वित्त का काम लोगों की जोखिम और समय की समस्याओं को दूर करने में मदद करना है। करीब 140 करोड़ लोगों वाले देश के हर 100 सदृश क्षेत्र की अपना अलग लय और ताल है। यहां वर्ग की बहुत ज्यादा विविधता है। लेकिन मौजूदा वित्तीय प्रणाली इसकी विविधता के साथ कदमताल नहीं कर पा रही है। कई नए कारोबारी मॉडलों और प्रक्रियाओं के स्वरूप के साथ प्रयोग करने के लिए नवाचार और जोखिम की प्रक्रिया जरूरी है जिससे कि लोगों की बेहतर सेवा हो सकती है।
जब आप मुंबई से ठाणे और फिर पुणे जाएं तो पहेलियां बदल जाती हैं। कोई भी सही जवाब नहीं जानता: एक खोज प्रक्रिया की जरूरत है- जहां चतुर फर्में प्रयोग करें, नवाचार करें, जोखिम लें और दिवालिया हो जाएं। इस प्रक्रिया से इस बात का समाधान मिलेगा कि भारत के तमाम उपवर्गों की बेहतर सेवा किस तरह की जाए। हालांकि वित्तीय आर्थिक नीति एक केंद्रीय नियोजन प्रणाली के रूप में तैयार की जाती है। उत्पादों, प्रक्रियाओं और सरकार नियंत्रित एकाधिकार को ऊपर से थोपा जाता है। इसके बाद विशिष्ट भारतीय शैली के केवाईसी और धनशोधन रोकथाम अधिनियम से फर्मों के पर कतरे जाते हैं।
जब केंद्रीय प्रसंस्करण इकाइयां सस्ती हो गईं और इंटरनेट कनेक्टिविटी का प्रसार हुआ तो ‘फिनटेक क्रांति’ को लेकर काफी उम्मीदें कायम हो गईं। ऐसी सोच थी कि बैंकों का काफी कामकाज नए तरह की टेक्नोलॉजी आधारित फर्मों से किया जा सकता है। इन नए फर्मों से उनका काम बेहतर तरीके से हो पाएगा और देश में बैंकिंग का दायरा सिकुड़ता जाएगा। उदाहरण के लिए गूगल जैसी मोबाइल फोन कंपनियां और टेक्नोलॉजी दिग्गज आसानी से भुगतान कार्य कर सकते हैं, एक ऐसा कारोबार जो कभी बैंकों का आधार था।
ऐसी ‘फिनटेक क्रांति’ दो तरह के दृष्टिकोण के लिहाज से अच्छी चीज है: (अ) बैंकिंग भारत में प्रणालीगत जोखिम का स्रोत रहा है और छोटी बैंकिंग प्रणाली स्थिरता को बढ़ाती है; (ब) मौजूदा बैंक नवाचार और ग्राहकों की सेवा के मामले में कमजोर हैं, तो जब बैंकों को दायरे में रखे बिना ज्यादा वित्तीय कामकाज होगा, वित्तीय प्रणाली वास्तविक अर्थव्यवस्था की बेहतर सेवा कर पाएगी।
हम करीब 20 साल से यही कहानी देख रहे हैं और अभी तक चीजें दुरुस्त नहीं हो पाई हैं। हमारे नीति-नियंताओं ने बैंकों के बचाव का रास्ता चुना। केंद्रीय नियोजन प्रणाली के औजारों का इस्तेमाल नई तरह की फर्मों से मिल रही प्रतिस्पर्धा को बाधित करने के लिए किया गया।
नीति-नियंता चाहते हैं कि ‘फिनटेक कंपनियां’ बैंकों की सेवा प्रदाता बनकर ही रहें, और मुख्य व्यवसाय और लाभ बैंकों के साथ ही हो। भारतीय बैंकिंग के अफसरशाही चरित्र और बैंकिंग में उत्पादों एवं प्रक्रियाओं पर सरकारी नियंत्रण की वजह से भारत में बैंक संरचनात्मक रूप से खोज की प्रक्रिया में जुड़ने में अक्षम ही हैं। ‘नवाचार’ ‘जोखिम लेना’ और ‘विफलता’ जैसे शब्द हमारे बैंकों और उनके आकाओं को पसंद नहीं आते।
भारतीय गैर बैंकिंग कंपनियां समय और जोखिम की ऐसी समस्याओं को समाधान करने में बेहतर तरीके से उभरी हैं जिनका सामना हमारे परिवारों और कंपनियों को करना पड़ता है। यहां नए फिनटेक खिलाड़ियों की भूमिका हो सकती थी। लेकिन इस प्रक्रिया को तीन अड़चनों का सामना करना पड़ा। भारतीय बॉन्ड बाजार की सीमाएं एनबीएफसी के वित्तपोषण के रास्ते में अड़चन हैं, आमतौर पर नीति-नियंताओं ने राज्य की ताकत का इस्तेमाल एनबीएफसी की कीमत पर बैंकों को बचाने में किया है और केंद्रीय नियोजन प्रणाली एनबीएफसी के उत्पादों और प्रक्रियाओं पर उसी तरह से नियंत्रण रखने लगी है जैसा कि वह बैंकों के साथ करती है।
सफल बाजार अर्थव्यवस्था की पहचान यह है कि कंपनियों के प्रमुख व्यक्ति मुख्यत: ग्राहकों, प्रौद्योगिकी और संगठन निर्माण पर ध्यान केंद्रित करते हैं। 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों का उद्देश्य यह था कि कंपनियां सरकार पर ध्यान केंद्रित करने से हटकर यह सीखें कि मजबूत कैसे बनना है।
आज के दौर में हम जिस भारत में है उसमें भी वित्तीय कंपनियां प्राथमिक रूप से सरकार पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। सरकार और उसकी एजेंसियां उत्पादों, प्रक्रियाओं और अनिवार्य राष्ट्रीय चैंपियनों के बारे में बहुत कुछ तय करती हैं। कई पहलुओं में तो कीमतों पर भी नियंत्रण रखा जाता है। ऐसे में हर वित्तीय कंपनी का काम एक हद तक किसी बड़े सार्वजनिक क्षेत्र प्रणाली की एक शाखा की तरह ही होता है जिसमें बुनियादी निर्णय ऊपर से लिए जाते हैं। ऊपर से आए डिजाइन के कवच में ऐसी खामियां होती हैं, जिन पर कंपनियों को सोचने के लिए गुंजाइश बनती है।
क्या ये प्रयोग करने, नवाचार करने और प्रौद्योगिकी का बेहतर उपयोग करने तथा उपयोगकर्ताओं को जोखिम और समय की मूलभूत समस्याओं पर सेवा प्रदान करने के बारे में नए विचार लाने के अवसर प्रदान करते हैं? इससे कानून के शासन और राष्ट्रीय चैंपियनों को लेकर समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। नियामकों के मौजूदा कामकाज को देखें तो किसी कंपनी को नुकसान पहुंचाया जा सकता है, अगर सरकारी एजेंसियों के भीतर बैठे लोग ऐसा करने का निर्णय लेते हैं।
वित्तीय एजेंसियों के भीतर बैठे लोगों के पास मनमानी शक्ति होती है। यहां कानून का शासन एक ऐसी दुनिया है जहां के कानून ज्ञात हैं, जांच या अभियोजन शुरू करने की विवेकाधीन शक्ति पर रोकथाम रहती है, एक उचित संरचना वाली अर्ध-न्यायिक सुनवाई होती है, तर्कसंगत आदेश सार्वजनिक होते हैं, आदेश गलत तरीके से कमाए गए लाभ की भयावहता को दिखाता है और उसी के अनुपात में जुर्माना लगता है, और इन आदेशों के खिलाफ भी अपील की जा सकती है। लेकिन ज्यादातर सुरक्षा उपाय कमजोर तरीके से काम करते हैं; एजेंसी के लोग किसी कंपनी को अपनी इच्छा के मुताबिक नुकसान पहुंचा सकते हैं या नष्ट कर सकते हैं।
यह फर्मों को अलग रास्ता अपनाने को मजबूर करता है। जब कोई नया विचार आता है, तो पहले ही एजेंसियों के शक्तिशाली लोगों से अनुमति ले लेना सुरक्षित माना जाता है। जब कोई कंपनी इस इलाके को सफलतापूर्वक पार कर लेती है और कुछ नया करने जाती है तो भी उसके कारोबारी मॉडल के सामने कई तरह के खतरे बने रहते हैं।
केंद्रीय नियोजन प्रणाली किसी सफल कारोबार मॉडल को बाधित कर सकती है, या कोई राष्ट्रीय चैम्पियन सामने आकर सारे निजी फर्मों को बेदखल कर सकता है। वित्त सभी उद्योगों में सबसे अहम है। यह ‘अर्थव्यवस्था का मस्तिष्क’ है। फिनटेक क्रांति भारत के लिए बहुत कुछ कर सकती है। लेकिन इसके लिए जरूरत इस बात की है कि वित्तीय आर्थिक नीति की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव किया जाए।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)