वर्ष 1951 के बाद केंद्र की सत्ता पर आरूढ़ किसी भी सरकार से यह पूछा जाए कि वह राज्यपालों के माध्यम से राज्य सरकारों पर पैनी नजर क्यों रखती है या न्यायपालिका पर वह निशाना क्यों साधती है तो जवाब एक जैसा होगा। सरकार कहेगी कि वह इसलिए ऐसा करती है कि उसे ऐसा करने का अधिकार है। मगर क्या कोई भी सरकार इसलिए ऐसा कर सकती है कि उसे ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता?
तत्कालीन सरकार ने 1951 में संविधान में पहला संशोधन इसलिए किया कि उसे ऐसा करने का अधिकार था। उस संशोधन के जरिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ ‘वाजिब’ पाबंदी लगा दी गई। मगर इन ‘वाजिब’ पाबंदियों को कभी परिभाषित नहीं किया गया। उस समय तत्कालीन सरकार ने वह कदम इसलिए उठाया कि उसे ऐसा करने से रोकने वाली कोई शर्त नहीं थी। उसके बाद एक के बाद एक सरकारों ने जो भी किया है इसलिए किया कि उनके पास ऐसा करने का पूर्ण अधिकार था।
वास्तविक समस्या यह नहीं है कि सरकारें अनुचित व्यवहार क्यों करती हैं। मूल समस्या यह है कि उन्हें मनमाने ढंग से उचित-अनुचित व्यवहार करने से रोकने-टोकने वाला नहीं है। उनके व्यवहार पर एक तरह से कोई संवैधानिक पाबंदी नहीं है। यही वजह थी कि इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कानून से ऊपर रख दिया। इसके बाद आई सरकारों ने संशोधन कर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया।
सरकारों के ऐसे व्यवहारों के कई उदाहरण हैं और वर्तमान में सत्तारूढ़ सरकार का व्यवहार भी कुछ ऐसा है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल राज्य सरकारों को परेशान कर रहे हैं और इधर केंद्र सरकार स्वयं उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथों में चाह रही है। मगर सरकारों के ऐसा व्यवहार करने के कई कारण हैं। यह एकमात्र कारण नहीं हो सकता कि उसके पास मनमाना व्यवहार करने का अधिकार है। एक दूसरा विचारणीय बिंदु यह है कि सरकारें जो भी करती हैं क्या उन्हें वाकई ऐसा करना चाहिए? मूल समस्या यहीं है क्योंकि सरकारों का रुख कभी तर्कसंगत लगता है तो कभी गैर-वाजिब लगता है।
केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ के उदाहरणों पर विचार किया जा सकता है। इन दोनों राज्यपालों के व्यवहारों से यह प्रश्न उठा है कि क्या संविधान सम्मत सरकार सुनिश्चित करने के लिए उठाए गए कदम अनावश्यक हस्तक्षेप माने जा सकते हैं। ये बातें किसी खेल में तकनीकी गलतियों की तरह हैं। अंपायर पर निर्भर करता है कि उनका रुख इन गलतियों को लेकर कैसा रहता है। गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपाल इन गलतियों को नजरअंदाज करना नहीं चाहते हैं।
इस प्रश्न में एक और प्रश्न निहित है। क्या राजनीतिक दलों को सदैव संविधान के अनुरूप ही कार्य करने का निर्देश होना चाहिए? तनिक भर भी संदेह राज्यपाल पद के अस्तित्व और इस पद के माध्यम से उन्हें दिए गए अधिकारों को सही ठहराया जा सकता है। इतना ही नहीं उनके कदमों को भी उचित ठहराया जा सकता है। समस्या यह है कि राज्यपालों के व्यवहार भी परेशान करने वाले हो सकते हैं। तमिलनाडु में एक ऐसा ही उदाहरण दिखा जब राज्यपाल को राज्य के नाम पर टिप्पणी के लिए एक ‘स्पष्टीकरण’ जारी करना पड़ा। उनके कदमों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और केंद्र सरकार दोनों को ही मुश्किल में डाल दिया है।
न्यायाधीशों का प्रश्न समझना काफी सरल है भले ही उत्तर समझना कठिन लगे। क्या न्यायाधीश स्वयं अपने आप को नियुक्त कर सकते हैं? ऐसा केवल भारत में ही होता है और दुनिया के किसी देश में न्यायाधीश स्वयं अपनी नियुक्ति नहीं कर सकते हैं। भारत में यह चलन भी न्यायाधीशों ने ही शुरू किया और इसलिए कि वे ऐसा कर सकते थे और उन्हें ऐसा करने से कोई रोक नहीं सकता था।
इस पूरे मामले की जड़ में एक वर्षों पुराना प्रश्न है जिस पर ठीक से विचार नहीं किया गया है। प्रश्न यह है कि क्या न्यायाधीशों के राजनीतिक झुकाव से निपटने के लिए हमारी प्रणाली में कोई प्रावधान किया गया है? क्या किसी भी सत्तासीन सरकार की विचारधारा से सहमति नहीं रखने वाले लोगों को न्यायपालिका में ऊंचे पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए? भारत में सरकार के विभिन्न अंगों के काम करने की रूपरेखा तैयार करने के लिए ब्रिटेन की कार्य पद्धति को अपनाया गया है, जबकि सही चलन अमेरिका में है। अमेरिका में संसद सरकार द्वारा तय नामों पर मुहर लगाती है, न कि न्यायपालिका। इसका मतलब है कि न्यायपालिका और सरकार के बीच उभरे मतभेद पर कोई भी पक्ष सही नहीं है। दोनों ही गलत दिशाओं में जा रहे हैं।
जब तक संसद में किसी बड़े दल का बहुमत है तब तक मुझे नहीं लगता कि राज्यपाल और न्यायपालिका से संबंधित प्रश्नों का कोई उत्तर सामने आएगा। यह महज संयोग नहीं है कि ये समस्याएं भी तभी पैदा होती हैं जब संसद में किसी एक दल को भारी बहुमत होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय ने मूलभूत सिद्धांत संरचना (बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रीन) की तब व्याख्या की थी जब लोकसभा में कांग्रेस की 352 सीटें थीं।