इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान सभी वस्तुनिष्ठ मानदंडों के हिसाब से एक नाजुक देश है, इसलिए इसे विश्व मंच पर नजरअंदाज और खारिज कर दिया जाना चाहिए। इसके बजाय, हाल के सप्ताहों में अमेरिका और चीन, दोनों देशों के राष्ट्रपतियों ने पाकिस्तान के नेताओं का गर्मजोशी से स्वागत किया है और आंतरिक निवेश बढ़ाने के लिए उसके साथ नए समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। इनके अलावा सऊदी अरब के साथ पाकिस्तान के ऐतिहासिक रक्षा समझौते को अंतिम रूप दिया गया है।
भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी तिलक वर्मा भले ही अंतिम ओवर में छक्का लगाकर भारत के लिए एशिया कप जीतने के लिए मैदान में डटे रहे हों, लेकिन भू-राजनीति के खेल में, जैसा कि क्रिकेट कमेंटेटर अक्सर कहते हैं, आसिम मुनीर और शहबाज शरीफ ने शानदार प्रदर्शन किया है।
आइए पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की हालिया उपलब्धियों पर एक नजर डालते हैं। इस साल की शुरुआत में पहलगाम में पर्यटकों पर हुए क्रूर आतंकी हमले के बाद भारत को उचित समर्थन मिलने के बावजूद, पाकिस्तान ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय कार्रवाई के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति को कम से कम कराने में कामयाब रहा। उसकी सेना ने वैश्विक स्तर पर यह प्रचारित करने में कामयाबी हासिल की कि उसने भारतीय हमलों को नाकाम कर दिया, यहां तक कि चीनी और पश्चिमी हथियारों के बीच कुछ बेतुकी तुलनाएं भी शुरू कर दीं।
अमेरिका के साथ पाकिस्तानियों ने अपेक्षाकृत अनुकूल व्यापार समझौता करने में कामयाबी हासिल की है, जिससे उस देश पर टैरिफ पहले के 29 फीसदी से घटकर 19 फीसदी रह गया है और देश के कथित जीवाश्म ईंधन भंडार में अमेरिकी निवेश भी तय हो गया है। इसके सेना प्रमुख ने हाल के दिनों में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से दो बार मुलाकात की है, एक बार उम्मीद से ज्यादा लंबे चले लंच के लिए और दूसरी बार प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के साथ, जिसके दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने पाकिस्तान के पास मौजूद महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ खनिजों का प्रदर्शन किया गया।
यह निश्चित है कि यूएस एक्जिम बैंक ने पाकिस्तान में खनन परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए लाखों डॉलर देने की प्रतिबद्धता दिखाई है, जिसमें रेको दिक में सोने और तांबे की खदान भी शामिल है। उन्होंने ट्रंप की जमकर प्रशंसा की है, उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए पात्र बताया है और ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति का उस देश के लिए एक निश्चित झुकाव हो गया है जिसकी उन्होंने कभी अविश्वसनीय कहकर आलोचना की थी। एक ‘झुकाव’, जैसा कि अमेरिकी 1970 के दशक में कहा करते थे।
चीन ने इस्लामाबाद और रावलपिंडी में अपने ‘लौह मित्रों’ के लिए भले ही कुछ उत्साह खो दिया हो, लेकिन वे पूरी तरह से अपनी उम्मीदें नहीं तोड़ रहे हैं। पिछले महीने शरीफ की बीजिंग यात्रा के साथ ही यह खबर भी आई कि 8.5 अरब डॉलर के एक नए निवेश समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। हालांकि इसमें वास्तव में कितना आएगा और पाकिस्तानी जनता को इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी, यह स्पष्ट नहीं है।
बेशक, पाकिस्तान के लिए चीन की बड़ी योजनाओं के बारे में ऐसे सवालों के जवाब हमें कभी नहीं मिले। वहां कुछ मौजूदा चीनी निवेशों को सह-वित्तपोषित किया गया है या अधिक पारंपरिक बहुपक्षीय स्रोतों द्वारा अधिग्रहीत किया गया है। लेकिन अमेरिका के साथ शांत संबंध वास्तव में पाकिस्तान में चीन की गतिविधियों में मदद कर सकते हैं। पाकिस्तानी प्रेस में ऐसी खबरें आई हैं कि हाल ही में एक अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने चीन-नियंत्रित ग्वादर बंदरगाह में निवेश करने में रुचि दिखाई है, संभवतः वहां एक टर्मिनल बनाकर जो अमेरिका से तरलीकृत प्राकृतिक गैस की खेप प्राप्त कर सके।
यहां तक कि रूस, जिसे किसी भी उचित मानदंड से भारत का आभारी होना चाहिए कि उसने उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग नहीं होने दिया, उसने भी हाल ही में कुछ चौंकाने वाले बयान दिए हैं। राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने पाकिस्तान और रूस को ‘स्वाभाविक सहयोगी’ बताया और पाकिस्तान को रूस का ‘एशिया में पारंपरिक साझेदार’ कहा है।
यह समझना मुश्किल है कि यह बात आखिर क्यों कही जा रही है, लेकिन कोई भी यह नहीं जानता कि पुतिन किसी भी समय क्या सोचते हैं। रूस ने तो भारत को जैपड सैन्य अभ्यास में पाकिस्तान को ‘पर्यवेक्षक’ के रूप में स्वीकार करने की मुश्किल स्थिति में डाल दिया, जिसमें भारतीय सेना ने (चीन और 15 से ज्यादा अन्य देशों के साथ) हिस्सा लिया था।
और अंत में, यह चौंकाने वाली खबर आई कि सऊदी अरब और पाकिस्तान ने एक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसमें पारस्परिक सुरक्षा शामिल है। हम इस बात पर असहमत हो सकते हैं कि क्या इसका मतलब यह है कि रावलपिंडी का परमाणु छत्र खाड़ी तक फैल गया है। यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें पाकिस्तानी सेना वरिष्ठ भागीदार है। लेकिन यह निश्चित रूप से पिछले एक दशक की तुलना में कुछ हद तक सुधार दर्शाता है, जिस दौरान यमन में हूतियों के खिलाफ युद्ध में सऊदी अरब के साथ शामिल होने से पाकिस्तान के इनकार ने संबंधों में खटास पैदा कर दी थी।
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान बदनाम, अलोकतांत्रिक और अपव्ययी रहा है। वह एक ऐसी अर्थव्यवस्था चला रहा है जो खुद में निवेश करने और उत्पादक क्षमता विकसित करने में स्पष्ट रूप से विफल रही है। लेकिन उसने एक के बाद एक इन उपलब्धियों को आखिर कैसे हासिल किया? आंशिक रूप से तो इसकी वजह यह है कि वे वादे करने और ट्रंप जैसे नेताओं की उस तरह से तारीफ करने को तैयार हैं जो भारतीय नेतृत्व नहीं कर सकता। लेकिन आंशिक रूप से यह पुराने जमाने का लचीलापन है, यानी ऐसे तरीके खोजना जिनसे वे कई साझेदारों के लिए उपयोगी हो सकें। भारत ने बहुध्रुवीयता, प्रतिरक्षा और रणनीतिक स्वायत्तता के युग का जोरदार स्वागत किया होगा। लेकिन ऐसा लगता है कि इस खेल में विजेता पाकिस्तान है, हम नहीं।