अमेरिका के नए राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने यूक्रेन को मुसीबत में बेसहारा छोड़ दिया है, ग्रीनलैंड को नॉटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) के सहयोगी डेनमार्क से छीनने की धमकी दी है और और यूरोप को तो यह कहकर रुला ही दिया है कि व्लादीमिर पुतिन से खुद ही निपटो। ऐसे में कुछ सवाल तो बनते हैं।
पहला सवाल वही है जो फरवरी, 2022 में हमने यूक्रेन पर हमला शुरू होने पर उठाया था। यूक्रेन ने 1994 के बुडापेस्ट ज्ञापन के बाद अपने परमाणु हथियार त्याग दिए थे और बदले में रूस, यूरोप तथा अमेरिका ने उसे सुरक्षा गारंटी दी थी। अब वह पछता रहा होगा। तीनों में से पहले यानी रूस ने उस पर हमला किया, दूसरा खुद को बचाता रहा और सस्ती रूसी गैस गंवाने का मलाल करता रहा। इनमें तीसरा यानी अमेरिका बेबस नजर आया, जब पुतिन के टैंक यूक्रेन की राजधानी कीव के मुकाने पर पहुंच गए।
अब अमेरिका चाहता है कि अगर यूक्रेन अपनी खनिज संपदा का आधा हिस्सा उसे नहीं देता है तो वह अपनी जमीन का पांचवां हिस्सा रूस को सौंप दे और नाटो की सदस्यता या सुरक्षा गारंटी भूल जाए। यह पढ़कर हिंदी फिल्म ‘शोले’ के करोड़ों दीवानों को गब्बर सिंह की सौदेबाजी याद आ रही होगी। सच कहें तो यह गली-मोहल्ले के दादा जैसा है, जिसे कोलकाता में ‘पाड़ा मस्तान’, मुंबई में ‘भाई’ और मिर्जापुर या हिंदी पट्टी में ‘कालीन भैया’ कहा जा सकता है।
बतौर राष्ट्रपति पहले महीने में ट्रंप ने केवल साझेदारों को निशाना बनाया है और विरोधियों की मदद का संकेत दिया है। रूस को सीधे और चीन को परोक्ष रूप से संकेत दिया है कि अपने इलाके में वे अपना दबदबा रखें। ट्रंप की नई दुनिया में हर कोई अपने इलाके का दादा है, जैसे हिंदी कहावत ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। यूरोप या नाटो को संबोधित करने वाला ट्रंप का वीडियो बार-बार देखिए, जहां वह कहते हैं कि उनकी सुरक्षा समस्याएं अमेरिका की नहीं हैं क्योंकि एक विशाल खूबसूरत समंदर दोनों को अलग करता है।
भूराजनीतिक लिहाज से जिस किसी देश खासकर यूरोप में और चीन के आसपास के देश का कुछ दांव पर लगा है उसे बड़ी फिक्र हो रही है। भारत में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता यूरोप के घटते कद पर जश्न बेशक मना रहे हों मगर चिंता हमारे देश को भी है। अच्छी बात यह है कि भारत के राजनीतिक और सामरिक नेता अपने समर्थकों से ज्यादा समझदार और होशियार हैं।
यह नई दुनिया कैसे काम करेगी? थॉमस फ्रीडमैन ने द न्यूयॉर्क टाइम्स में कहा कि अगर ट्रंप ने ग्रीनलैंड ले लिया तो शी चिनफिंग ताइवान पर कब्जा कर लेंगे और पुतिन बाल्टिक देशों में घुसपैठ करेंगे। इसमें जॉर्जिया का नाम भी जोड़ा जा सकता है।
यूरोप के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अमेरिका के अन्य साझेदार भी सोचेंगे कि सुरक्षा गारंटी के जरिये मिली राहत की कीमत क्या चुकानी पड़ सकती है। अगर ट्रंप ने जापान से कहा कि गारंटी के बदले मुझे ओकीनावा या हिरोशिमा दो तो क्या होगा या अमेरिकी गारंटी के बदले उन्होंने ऑस्ट्रेलिया से खनिज संसाधनों का कुछ हिस्सा मांगा तो क्या होगा? कनाडा का तो मैंने जिक्र भी नहीं किया क्योंकि उसके सामने एकदम अलग किस्म की चुनौतियां हैं।
अब सवाल यह नहीं है कि ट्रंप इन धमकियों पर अमल करेंगे या नहीं। बात यह है कि संप्रभु देश इसे कोरी धमकी मानकर नहीं रह सकते। भरोसा टूट चुका है। अगर ट्रंप आज सुरक्षा शुल्क या किसी देश से उसकी जमीन मांग सकते हैं तो और भी बुरी शर्त रखते हुए वह कह सकते हैं कि आप उनकी अधीनता कबूल कीजिए और उन्हें तय रकम दीजिए वरना चीन या रूस के रहमोकरम पर रहिए। इससे एक अहम सवाल खड़ा होता है।
मैं एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बात कर रहा हूं जो परमाणु हथियारों की बहस में इधर के पाले में रहा है यानी जिसने उनकी हिमायत की है। दूसरे पाले में वे भारतीय नहीं हैं जिन्होंने वैचारिक या नैतिक आधार पर परमाणु हथियारों का विरोध किया है। दूसरा पाला परमाणु अप्रसार के हिमायती उस मजबूत अमेरिकी खेमे का है, जो भारत पर परमाणु हथियार नहीं बनाने का दबाव बनाता रहा।
1987 से 1997 के दस साल में उन्हें भारत की आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक दिक्कतें पता चल गईं, जहां वे दबाव बना सकते थे। भारत में तब तक कई कमजोर और अस्थिर सरकारें हो चुकी थीं, जिन्हें देखकर कई बार तो लगता था मानो दिहाड़ी पर काम कर रही हों। उस समय इस खेमे को लगा कि भारत पर दबाव बनाया जा सकता है क्योंकि वह पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद से जूझ रह था। उन्हें लगा कि वे भारत को परमाणु हथियारों का सपना भूलने पर विवश कर सकते हैं। यह वही समय था जब पाकिस्तान और भारत के बीच जंग के हालात बनते थे और अक्सर चेतावनी आती थी कि तुम दोनों के पास परमाणु हथियार हुए और टकराव बढ़ा तो क्या होगा? या कहा जाता कि दोनों देशों की अगली लड़ाई ऐसे सांप्रदायिक दंगे की तरह होगी जिसमें परमाणु हथियारों का इस्तेमाल किया जाए। इसलिए समझो कि तुम्हारे लिए क्या बेहतर है और ‘अपनी औकात में रहो’। ऐसे ही एक अप्रसार सम्मेलन में हमने पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत रह चुके एक शख्स को कहते सुना था, ‘परमाणु खतरे से मत घबराइए, हमारा फायर ट्रक वहां पहुंच जाएगा।’
यही दशक था, जब कुछ नाम हमारे जीवन में आए जैसे सीटीबीटी यानी व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि। अमेरिका से कई बड़ी शख्सियत सरकार को इस पर दस्तखत करने के लिए मनाने भारत आए, जबकि खुद अमेरिका इसे कबूल नहीं कर रहा था। दोहरे पैमाने ट्रंप ने शुरू नहीं किए हैं, पहले से चले आ रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस में ‘रियर व्यू’ नामक शानदार स्तंभ लिखने वाले बेहतरीन संपादक स्वर्गीय इंदर मल्होत्रा ने इन अमेरिकी कट्टरपंथियों को एक शानदार नाम दिया था: अप्रसार लॉबी के आयतुल्ला।
भारत के नेता समझदार थे और अपने रास्ते पर चलते रहे। नेहरू के दौर में शुरू हुआ सफर चलता रहा और 1974 में इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षण कर डाला और अटल बिहारी वाजपेयी ने पोकरण-2 के जरिये इसे मंजिल तक पहुंचाया। हम भारतीयों और हमारी आने वाली पीढ़ियों को इन नेताओं का ऋणी होना चाहिए। क्या उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि ऐसा वक्त भी आएगा, जब सुरक्षा गारंटी काम नहीं आएगी? वे मजबूत और दूरदर्शी थे।
किम जोंग उन यूक्रेन और यूरोप पर हंस रहे होंगे। अगर उन्होंने अमेरिकी अतिक्रमण के जवाब में दक्षिण कोरिया या जापान पर परमाणु हमला करने की चेतावनी नहीं दी होती तो क्या वह अमेरिका से बच पाते? ईरान की इस पर नजर होगी। अगर इराक के पास व्यापक जनसंहार के हथियार होते तो क्या बुश सीनियर या जूनियर ने उस पर हमला किया होता? उसकी मिसाइलों को अमेरिका तक पहुंच की जरूरत नहीं थी। इजरायल या सऊदी अरब पर हमला करना काफी होता।
मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण, यूक्रेन और गाजा ही भविष्य पर असर डालने वाले इकलौते मुद्दे नहीं हैं। सच यही है कि ट्रंप ने अप्रसार का विचार खत्म कर दिया है। परमाणु हथियार प्रतिरोध के रूप में वापस आ गए हैं। ईरान, सऊदी अरब और शायद मिस्र तथा अजरबैजान भी इस विषय में सोच रहे होंगे। तुर्किये और दक्षिण अफ्रीका भी। अगर आप जापान, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया या फिलिपींस के नेता होते तो आप क्या सोचते? परमाणु हथियार आज कम तकनीक वाले और किफायती प्रतिरोधक हैं। अगर 1980 के दशक में पाकिस्तान उसे बना सकता है तो कोई भी बना सकता है। समय के साथ डॉनल्ड ट्रंप शायद अपने तौर तरीके बदल लें या नहीं भी बदलें। हमें नहीं पता वह अमेरिका के लिए क्या हासिल करेंगे। परंतु हम उनकी पहली उपलब्धि दर्ज कर सकते हैं: उन्होंने परमाणु हथियारों को फिर से महान बना दिया है।