भारत के बिजली क्षेत्र को चार कड़ी वाली एक श्रृंखला के रूप में देखा जा सकता है जिसमें ईंधन, उत्पादन, बिजली का संचार और वितरण शामिल है। हालांकि अधिकांश चर्चा ईंधन, उत्पादन और वितरण पर केंद्रित है जबकि देश के एक छोर से दूसरे छोर तक और यहां तक कि सीमाओं के पार भी बिजली ले जाने वाली पारेषण (ट्रांसमिशन) लाइनों को लेकर चर्चा नहीं होती क्योंकि आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि वे चुपचाप अपना काम कर रहे हैं।
भारत के बिजली पारेषण ग्रिड को अब विश्व स्तर के सर्वश्रेष्ठ ग्रिडों में से एक माना जाता है। यह 4,71,341 सर्किट किलोमीटर ट्रांसमिशन लाइनों के साथ जनवरी 2023 तक दुनिया का सबसे बड़ा समकालिक परस्पर संबद्ध बिजली ग्रिड बन गया है। इस विशाल नेटवर्क की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि क्षेत्रीय ग्रिडों का प्रगतिशील एकीकरण है, जिसके चलते देश ने 31 दिसंबर, 2013 तक ‘एक राष्ट्र, एक ग्रिड, एक फ्रिक्वेंसी’ के लक्ष्य को हासिल कर लिया।
विद्युत मंत्रालय ने ट्रांसमिशन क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की एक प्रमुख नीतिगत पहल की जिसकी बदौलत यह लक्ष्य संभव हुआ है। इस प्रकार, मार्च 2023 तक, ट्रांसमिशन लाइनों के कुल सर्किट किमी में से 38 प्रतिशत केंद्र के पास, 54 प्रतिशत राज्यों के पास और 8 प्रतिशत निजी क्षेत्र के पास था।
ऐतिहासिक रूप से, पावर ग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (पीजीसीआईएल) अंतर-क्षेत्रीय और अंतरराज्यीय ट्रांसमिशन लाइनों को तैयार करने वाली एकमात्र डेवलपर कंपनी थी। यह मूल्य निर्धारण की ‘लागत-प्लस’ पद्धति के तहत संचालित होता था जहां पीजीसीआईएल को परियोजना लागत में मूल्यवृद्धि सुनिश्चित की गई थी।
पीजीसीआईएल को परियोजना के समय में होने वाली वृद्धि के लिए किसी भी दंड से पर्याप्त रूप से अलग रखा गया था और पीजीसीआईएल द्वारा अनुमानित परियोजना लागत को बिना किसी ‘दूसरी राय’ के स्वीकार कर लिया गया था।
विद्युत अधिनियम, 2003 के प्रमुख उद्देश्यों में से एक इस उद्योग में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना था। इसी तरह विद्युत अधिनियम, 2003 की धारा 63 और 6 जनवरी, 2006 की शुल्क नीति के अंतर्गत विद्युत मंत्रालय ने ट्रांसमिशन परियोजनाओं के विकास और शुल्क आधारित प्रतिस्पर्धी बोली (टीबीसीबी) में प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए।
जिन लाभों की उम्मीद की जा रही थी वे मूल्य निर्धारण की ‘लागत-प्लस’ तरीके की तुलना में परियोजना लागत को महत्त्वपूर्ण रूप से कम करने, सार्वजनिक वित्त मुहैया कराने के बोझ को कम करने और नई प्रौद्योगिकी लाने से संबंधित थे। जनवरी 2011 तक, टीबीसीबी के प्रारूप पर अमल किया गया था।
पीजीसीआईएल को अब परियोजनाएं हासिल करने के लिए अन्य निजी डेवलपर के साथ प्रतिस्पर्धा करनी थी जो पिछले तरीके से अलग थी क्योंकि इसे सरकार द्वारा नामित किया जाना था। हालांकि ऐसी परियोजनाएं हैं जिन्हें तकनीकी रूप से जटिल या रणनीतिक समझा जाता है और जिन्हें अब भी पीजीसीआईएल को सौंपा गया है।
ऐसी परियोजनाओं को पीजीसीआईएल द्वारा विनियमित शुल्क तंत्र (आरटीएम) या चीजों को करने की पुरानी पद्धति के तहत किया जाता है। ‘निजीकरण’ पहल इस क्षेत्र में निजी खिलाड़ियों को लाने के अपने उद्देश्य में सफल रही। इससे पता चलता है कि निजी बोलीदाताओं ने 31 मार्च, 2023 तक टीबीसीबी बोली का 61 प्रतिशत जीत लिया। फिर भी, स्थिति कुछ अधिक जटिल है।
पीजीसीआईएल, इस क्षेत्र में प्रमुख खिलाड़ी है और यह उम्मीद के मुताबिक धीरे-धीरे संरक्षक की भूमिका में आने के बजाय निजी क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतिस्पर्द्धी के रूप में अपने दायरे का विस्तार कर रहा है। पीजीसीआईएल ने अपनी शुरुआत के बाद से सभी टीसीबी बोलियों का 39 प्रतिशत जीत लिया।
हैरानी की बात यह है कि पीजीसीआईएल ने वित्त वर्ष 2021 और वित्त वर्ष 2023 के बीच सभी टीबीसीबी बोलियों में जीत हासिल करने वाली बोलियों की अपनी हिस्सेदारी बढ़ाकर 57 प्रतिशत कर दी।
राज्यों में टीबीसीबी काफी महत्त्वहीन रहा है और यह मुख्य रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में केंद्रित है। इसकी एक वजह यह है कि इस क्षेत्र में असमानता है और यह मुख्य रूप से पीजीसीआईएल के पक्ष में दिखता है। इन बातों पर विचार करें:
पीजीसीआईएल के पास ट्रांसमिशन लाइनों की नई योजना के लिए जिम्मेदार एक मुख्य टीम थी। इस टीम ने ऐतिहासिक रूप से सेंट्रल ट्रांसमिशन यूटिलिटी (सीटीयू) का गठन किया। जब टीबीसीबी लागू हो गया उसके बाद एक दिलचस्प स्थिति पैदा हो गई। पीजीसीआईएल को आगामी बिजली ट्रांसमिशन परियोजनाओं के बारे में संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण जानकारी थी जिससे यह बात उठी कि पीजीसीआईएल को अन्य निजी कंपनियों की तुलना में अनुचित लाभ मिल रहा था।
जून 2020 में ही विद्युत मंत्रालय ने सीटीयू गतिविधियों को पीजीसीआईएल से अलग करने का निर्णय लिया था। इसी तरह, सेंट्रल ट्रांसमिशन यूटिलिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सीटीयूआईएल) को पीजीसीआईएल की पूर्ण स्वामित्व वाली सहयोगी कंपनी के रूप में तैयार किया गया था। हालांकि, सीटीयूआईएल भी पीजीसीआईएल की 100 प्रतिशत सहायक कंपनी भी है और इसलिए इसकी पहुंच अब भी संवेदनशील जानकारी तक है।
उद्योग संघों के प्रतिनिधित्व के अनुसार, पीजीसीआईएल किफायती पूंजी तक अपनी पहुंच के कारण कम कीमतों का हवाला देकर प्रतिस्पर्धा खत्म कर देती है। यह संभव है क्योंकि बहुपक्षीय एजेंसियां भारत सरकार की संप्रभु गारंटी के तहत पीजीसीआईएल को उधार देती हैं।
पीजीसीआईएल अपनी दोहरी पहचान का भी फायदा उठाकर टीबीसीबी बोलियों से मिलने वाले प्रतिफल को अपने आरटीएम अनुबंधों के कथित तौर पर बेहतर मार्जिन के साथ क्रॉस-सब्सिडी देता है। हाल ही में एक मामला अक्षय ऊर्जा ले जाने के लिए लद्दाख से कैथल (हरियाणा) तक की 27,000 करोड़ रुपये की ट्रांसमिशन प्रणाली का है। जनवरी 2022 में, इस परियोजना को आरटीएम के तहत, नामांकन के आधार पर पीजीसीआईएल को सौंप दिया गया था।
पीजीसीआईएल इस परियोजना पर जो मार्जिन हासिल कर रहा है उसको लेकर सभी बातें स्पष्ट हैं क्योंकि यह बिना किसी तुलनात्मक प्रतिस्पर्धी पैमाने के है। पीजीसीआईएल, टीबीसीबी परियोजना के लिए जितना कहेगी यह उसमें शामिल मार्जिन से काफी अधिक होने का अनुमान है।
मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू) और निजी क्षेत्र के बीच इस तरह की विसंगतियां असामान्य नहीं हैं। हालांकि, सरकार को एक समान अवसर सुनिश्चित करने होंगे खासतौर पर तब जब यह तय करती है कि एक घोषित नीतिगत लक्ष्य के रूप में किसी क्षेत्र में निजी निवेश और भागीदारी का स्वागत है।
15 जून, 2023 को उच्चतम न्यायालय ने बेहद सख्ती से कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम, कोल इंडिया लिमिटेड, प्रतिस्पर्धा अधिनियम के दायरे में आता है। यह ऐतिहासिक फैसला पीजीसीआईएल सहित अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के लिए भी इसी तरह की स्थिति पैदा करता है, जिन पर अब इस कानून के तहत ‘प्रभुत्व के दुरुपयोग’ के आरोप लग सकते हैं।
(लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं। वह इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध न्यासी भी हैं)