दो सप्ताह पहले हमने देश के रक्षा बजट में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और राष्ट्रीय बजट दोनों के प्रतिशत में कमी आने को लेकर कुछ प्रश्न उठाए थे। हमने वादा किया था कि अगले आलेख में हम यह चर्चा करेंगे कि कैसे संसाधन जुटाकर अगले चार सालों में इसे जीडीपी के 1.9 फीसदी से जीडीपी के 2.5 फीसदी तक पहुंचाया जा सकता है तथा इन अतिरिक्त संसाधनों को कहां निवेश किया जा सकता है।
हम इस कहानी की शुरुआत 9 दिसंबर, 1971 की बदनसीब रात से कर सकते हैं जब बांग्लादेश युद्ध चरम पर था। बदनसीब इसलिए कि उसी रात आईएनएस खुकरी को पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हंगोर ने डुबा दिया था। खुकरी भारतीय नौसेना का इकलौता पोत है जो लड़ाई में डूब गया। छिपने के बजाय हंगोर ने एक जाल बिछाकर अपनी मौजूदगी जाहिर की थी।
भारत ने चुनौती स्वीकार की और तीन पोतों को उसका शिकार करने के लिए भेजा। एक पोत आईएनएस कुठार के इंजन में समस्या आ गई और उसे वापस बुलाना पड़ा। तथ्य यह है कि तीनों पोतों में समुचित सोनार नहीं थे। खुकरी और कृपाण हंगोर की मौजूदगी का पता ही नहीं चला सके। कृपाण को निशाना बनाकर दागी गई दो तारपीडो निशाना चूक गईं। खुकरी पर तीन तारपीडो लगे और वह लगभग तुरंत डूब गया। यही वजह है कि उसमें सवार अधिकांश लोगों की मौत हो गई और केवल 67 लोगों की जान बची। वह अफसोस आज भी है।
भारतीय नौसेना पाकिस्तान की मजबूत पनडुब्बी शक्ति से अवगत थी लेकिन उसके प्रतिरोध के लिए वह पर्याप्त क्षमता विकसित नहीं कर सकी थी। इससे निपटने के लिए उसने जो पोत तैयार किए थे उनमें भी समुचित सोनार क्षमता नहीं थी। भारत के पास इस जंग की तैयारी के लिए कई महीने थे लेकिन जब यह जंग शुरू हुई तब जाकर टाटा समूह के साथ साझेदारी में तैयार एक प्रायोगिक सोनार का परीक्षण आईएनएस खुकरी पर किया गया।
भला कौन सा देश 1,200 टन के युद्धपोत के साथ ‘जुगाड़’ से बना सोनार भेजता है? जाहिर है यह कारगर नहीं रहा। क्या आपको पता है कि इस मिशन पर टाटा की टीम का एक इंजीनियर भी खुकरी पर गया था। वह युद्ध के मैदान पर जान गंवाने वाले आम नागरिकों में से एक रहा जबकि ऐसा बहुत कम होता है। हम इस समय यह कहानी इसलिए कह रहे हैं ताकि हम इस बचाव का इस्तेमाल न करें कि जुगाड़ चलता है और हम इतने बड़े हैं कि छिटपुट झटकों की परवाह नहीं करते।
यह सोच राजनीति और अफसरशाही के साथ-साथ सैन्य नेतृत्व में भी है। यही कारण है कि वर्षों से पाकिस्तानी नौसेना के रूप में एक विश्वसनीय खतरा मौजूद होते हुए भी भारत के पनडुब्बी रोधी पोतों में जुगाड़ वाले सोनार लगे थे। इस कमी का दूर करने में बहुत अधिक खर्च नहीं आएगा लेकिन इसमें वह बात नहीं है जो एक नया पोत, एक पनडुब्बी, एक विमान बेड़े या नई मिसाइलें खरीदने में है?
फिर भी हमें ऐसे झटके लगते हैं जिन्हें टाला जा सकता है। मानो इतना ही काफी नहीं था तो खुकरी के डूबने के अगले ही दिन नौसेना ने अपने सभी उपलब्ध संसाधन हंगोर की तलाश में झोंक दिए और उनमें से एक फ्रांस में बना अलीजे विमान पाकिस्तानी वायु सेना के एफ-104 विमान ने कच्छ के तट पर मार गिराया। उस युद्ध में नौसेना के शानदार प्रदर्शन में बस एक यही धब्बा है जिससे बचा जा सकता था।
हमें यह सब कैसे पता? इसके लिए वाइस एडमिरल जी एम हीरानंदानी की सन 2000 में प्रकाशित पुस्तक पढ़िए जिसका शीर्षक है ‘इंडियन नेवी 1965-1975: ट्रांजीशन टु ट्रायम्फ।’ हीरानंदानी नौसैनिक इतिहास परियोजना के प्रमुख रहे हैं। आप मेजर जनरल इयान कार्डोजो की ‘द सिंकिंग ऑफ आईएनएस खुकरी: सर्वाइवर्स स्टोरीज’ भी पढ़ सकते हैं। हमारे पास ऐसी दर्जनों कहानियां हैं जहां हमारी सेनाएं बिना अहम उपकरणों के जंग के मैदानों में गईं। इनमें अधिकांश मामले तकनीकी उपकरणों के थे। इससे बचा जा सकता था।
हम 2019 के पुलवामा-बालाकोट मामले की बात करते हैं जब पाकिस्तानी वायु सेना की एमराम मिसाइल ने भारतीय वायु सेना की मिसाइलों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। केवल फ्रांसीसी एमआईसीए मिसाइल ही कामयाब रहीं जिनकी तादाद 10 से भी कम थी। इनके साये में ही बालाकोट पर हमला किया गया था। सभी मिग और सुखोई विमानों में एक ही रूसी आर-73 और आर-77 मिसाइल लगी थीं।
राफेल के सेवा में आने तक यही स्थिति रही। अभी भी सुखोई विमानों में स्वदेशी अस्त्र मिसाइल लगाई जा रही है जो एमराम का मुकाबला कर सके। पाकिस्तान के पास उक्त मिसाइल 2010 से है। ऐसे में आप देख सकते हैं कि दोनों देशों की मिसाइलों में यह अंतर एक दशक से बरकरार है।
पुलवामा-बालाकोट में मिसाइल के मामले में पिछड़ने के बाद 1971 की यह दुखद कहानी विस्तार से कहना जरूरी था क्योंकि ये हमारी उस सोच के उदाहरण है जिसमें हम मानते हैं कि ‘कभी जंग नहीं होगी’ या ‘शुरुआती झटकों या नुकसान के बावजूद हम संख्या बल की बदौलत बात को संभाल लेंगे।’ दोनों ही मामलों के बीच करीब 50 साल का अंतर है। दोनों मामलों में मजबूत भारतीय सेना को कुछ मामूली चीजों की बदौलत नुकसान का सामना करना पड़ा।
बीते तीन दशक के दौरान यानी जनरल वीपी मलिक के बाद से कई सेना प्रमुख हताशा में यह कह चुके हैं कि हमारे पास जो है हम उसी से लड़ेंगे। हाल ही में मौजूदा वायुसेना अध्यक्ष ने भी ऐसा ही कुछ कहा है। हर कोई चीन को असली खतरा मानता है लेकिन हम पाकिस्तान के विरुद्ध निर्णायक क्षमता नहीं विकसित कर पा रहे हैं। हमें पहले बुनियादी समझ विकसित करनी होगी। बड़ी जंग की तैयारी के पहले भारत को संभावित शत्रुओं की रोकथाम करनी होगी।
चीन की रोकथाम यह होगी कि किसी भी तरह की आक्रामकता को अव्यवहार्य बना दिया जाए। पाकिस्तान की रोकथाम के लिए भय और दंड का सहारा लिया जा सकता है जहां वह प्रतिवाद तक नहीं कर सके। उदाहरण के लिए पुलवामा के लिए यदि बालाकोट पर बमबारी की गई तो यह हमला इतना भीषण होना चाहिए था कि पाकिस्तानी वायु सेना जवाब देने की सोच तक नहीं पाती। करगिल में मिसाइल का अंतर भारत के पक्ष में था तब यही हुआ था।
सेना की बात करें तो दोनों शत्रुओं की रोकथाम के लिए हमें लंबी दूरी की तोप, हथियारबंद ड्रोन और गोलाबारूद की जरूरत है। अगर फंड कम हो तो यह सब हमारी खरीद की प्राथमिकता में होना चाहिए। आसमान में ड्रोन और मिसाइलों की बढ़ती तादाद के बीच अग्रिम इकाइयों के लिए आधुनिक हवाई सुरक्षा की जरूरत है। जवानों को भी छोटे हथियारों और जूतों, हेल्मेट, सुरक्षित संचार, रात में देखने की सुविधा और आधुनिक टैंक रोधी मिसाइलों की जरूरत है। हम इनकी बहुत सीमित खरीद कर रहे हैं।
वायु सेना के बेड़ों की कमजोरी दूर करने में समय लगेगा। इस बीच अगर तीन या चार हवा में चेतावनी देने वाली और नियंत्रण वाली प्रणालियां तथा हवा में ईंधन भरने में सक्षम प्रणालियां खरीद ली जाएं तो बेहतर होगा। चीन तो छोड़िए इन दोनों श्रेणियों में हम पाकिस्तान तक से बहुत पीछे हैं। इनकी खरीद लड़ाकू विमानों की तरह आकर्षक नहीं है लेकिन इसमें बहुत कम धनराशि लगती है और ये हमारी क्षमता तेजी से बढ़ा सकते हैं। नौसेना को भी स्कॉर्पियन पनडुब्बियों के लिए बेहतर तारपीडो, माइंस का पता लगाने वाले उपकरणों और सी-295 विमानों के नौसेना के अनुरूप संस्करणों समेत कई हथियारों की जरूरत है।
इन विमानों को टाटा, एयरबस के साथ मिलकर बना रही है। इससे कार्य क्षमता बढ़ेगी और मध्यम दूरी की निगरानी तथा आठ घंटे की उड़ान के साथ ये पी-8 का काम हल्का करेंगे। अधिग्रहण के सीमित बजट को देखते हुए कह सकते हैं कि अधिकांश फंड बड़े पूंजीगत खरीद के कामों में जाएगा। अतिरिक्त राशि का इस्तेमाल इन अहम कमियों को दूर करने में करना चाहिए ताकि हर विरोधी के समक्ष उचित बचाव किया जा सके।
आखिर में, जरूरी धनराशि की बात। पहली बात, जीडीपी के 0.2 फीसदी तक की इस मामूली के लिए तो मौजूदा बजट में ही बंदोबस्त किया जा सकता है। जीडीपी के मौजूदा 1.9 फीसदी से 0.1 फीसदी का इजाफा करके इसे दो फीसदी करने से भी 30,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि आ जाएगी। परंतु अगर इसमें भी समस्या है तो नए सिरे से निजीकरण किया जा सकता है और उसकी प्राप्तियों को रक्षा क्षेत्र को दिया जा सकता है।