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राष्ट्र की बात: फिलिस्तीन मसला और हमारी उदासीनता

हमें फिलिस्तीन मामले में भारत की उदासीनता का यह अर्थ निकालने से बचना चाहिए कि दुश्मन (मुस्लिम) का दुश्मन (यहूदी) दोस्त होता है।

Last Updated- October 13, 2024 | 9:37 PM IST
Why is Indian public opinion so indifferent to Gazans and Palestinians? फिलिस्तीन मसला और हमारी उदासीनता

गाजावासियों और खासतौर पर फिलिस्तीनियों के लिए भारतीयों के मन में सहानुभूति इतनी कम क्यों है? हिजबुल्ला प्रमुख हसन नसरल्ला के मारे जाने का समय छोड़ दें तो कोई खास विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं हो रहा है? नसरल्ला के मारे जाने पर भी ज्यादातर विरोध कश्मीर घाटी और लखनऊ के शिया बहुल इलाकों में ही हुआ।

कोई प्रमुख राजनीतिक दल, कांग्रेस या मुस्लिम मतों पर भरोसा करने वाला कोई अन्य दल मसलन समाजवादी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस इस पर नाराजगी तक नहीं दिखा पाया, विरोध प्रदर्शन तो दूर की बात है। कुछ वामपंथी समूहों ने जरूर पिछले दिनों जंतर मंतर पर फिलिस्तीन के लिए एकजुटता दिखाते हुए प्रदर्शन किया, लेकिन वह बेहद छोटा था।

जो ‘धर्मनिरपेक्ष’ दल शुरू में इस पर बोले, वे जल्द ही वापस अपने खोल में चले गए। वे ऊहापोह में फंस गए और मुझे लगता है कि भारत में बहुसंख्यकों के इजरायल समर्थक रुख को देखकर वे सतर्क हो गए।

कांग्रेस ने वही किया जो वह अक्सर करती है। पहले एक्स पर कुछ कहा गया फिर दूसरों ने इससे इनकार कर दिया और बाद में बहुत संभालकर कुछ लिखा या कहा गया। केवल प्रियंका गांधी ने नाराजगी जाहिर की। उन्हें वायनाड से चुनाव भी लड़ना है, जहां 40 फीसदी से ज्यादा मतदाता मुसलमान हैं।

हम विपक्ष की चिंता और सावधानी समझ सकते हैं। सभी को मुसलमानों के वोट चाहिए मगर हिंदुओं को अलग जाने देने की हिम्मत भी किसी के पास नहीं है। इसीलिए बड़ा सवाल यह है: व्यापक भारतीय जनमानस इतना उदासीन क्यों है? क्या मानवीय त्रासदी अब हमें द्रवित नहीं करती? या तमाम बड़ी शक्तियों की तरह हम भी हर परिस्थिति को राजनीति के चश्मे से देखना सीख गए हैं? तो क्या हिंदू इसे केवल इजरायल बनाम मुस्लिम मसला मान रहे हैं? दलील यह भी हो सकती है कि इसे केवल सांप्रदायिक नजरिये से नहीं देखा जा रहा है बल्कि इसे राष्ट्रीय हित की नजर से भी देखा जा रहा है।

पिछले दिनों इजरायलियों और दुनिया भर के यहूदी समुदाय ने हमास द्वारा गत वर्ष सात अक्टूबर को किए गए हमले की पहली बरसी मनाई। हमारे लिए भी उन सवालों के जवाब तलाशने के लिए यह सही समय है। इसे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उभार से जोड़ देना सबसे आसान होगा। कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल वाले एक दशक में हिंदुत्व हमारे राजनीतिक और वैश्विक नजरिये में पसर गया है और वही हमारी नैतिक दिशा भी तय करता है। और किसी परिसर में प्रदर्शन करने का साहस कौन करेगा? हकीकत इतनी सीधी नहीं है।

इसका अहसास मुझे तब हुआ जब मैंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का भाषण सुना। उन्होंने फिलिस्तीनियों और कश्मीरियों को एक समान बताते हुए दोनों को खुद फैसला लेने का अधिकार दिए जाने की वकालत की।

थोड़ा तलाशने पर पता चला कि पाकिस्तानी ही नहीं उनके दोस्त (उदाहरण के लिए 2019 में महातिर मोहम्मद और रेचेप तायिप अर्दोआन) तथा इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भी फिलिस्तीन और पाकिस्तान को एक ही पलड़े में रखा था। 2016 में संयुक्त राष्ट्र महा सभा में नवाज शरीफ ने फिलिस्तीन और कश्मीर का जिक्र करते हुए बुरहान वानी को हीरो और कश्मीरी ‘इंतिफादा’ (बगावत) का नेता बताया।

आप संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर देख सकते हैं कि हमेशा से यही होता आया है। पिछले महीने आयतुल्लाह अली खामेनेई ने अपने ट्वीट में म्यांमार (रोहिंग्या), फिलिस्तीन और कश्मीर में मुसलमानों की पीड़ा को एक जैसा बताया था। आपको लगता है कि ऐसे में भारतीय नागरिक ईरान और उसके लोगों को इजरायलियों द्वारा मारे जाने पर अफसोस करेंगे? सच तो यह है कि हम एक जमाने में ऐसी बेवकूफी करते थे मगर अब नहीं करते। इस पर मैं बाद में बात करूंगा।

अगर फिलिस्तीनी भारत का समर्थन चाहते हैं तो पहले उन्हें पाकिस्तान, ईरान तथा तुर्किये और मलेशिया (हालांकि अब वे कश्मीर का नाम नहीं लेते) जैसे अपने दोस्तों तथा ओआईसी से आग्रह करना होगा कि वे उनके साथ कश्मीर का जिक्र बंद कर दें। वरना भारत को उनकी परवाह क्यों हो?

कश्मीर और फिलिस्तीन को समान बताकर इस्लामिक दुनिया की सहानुभूति जुटाने की पाकिस्तान की कोशिश के कारण ही भारत में कश्मीर पर सहानुभूति खत्म हो गई है। भारत के लोग पाकिस्तान द्वारा कश्मीर का मुद्दा बार-बार उठाए जाने पर नाराज हैं। कश्मीर घाटी के बाहर पूरे भारत की जनता यही कहती है: ‘आखिर कौन सा कश्मीर मुद्दा?’ अगर वहां कुछ था भी तो वह 5 पांच अगस्त 2019 को खत्म हो चुका है और अब वहां के चुनाव में 63.88 फीसदी मतदान तथा भाजपा की हार के साथ बात पूरी हो गई है। घाटी में भी पाकिस्तान के नजरिये को मिलने वाला समर्थन तेजी से घट रहा है।

हमने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि हमें इसे ‘मुसलमान शत्रु का शत्रु यहूदी हमारा मित्र है’ जैसा सरल नहीं मानना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि इस्लामिक दुनिया और भारत के बीच समीकरण बदल गए हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद इजरायल शायद भारत में सबसे लोकप्रिय देश है।

विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर भारत-इजरायल रिश्तों के बारे में पढ़िए। इसकी शुरुआत इस पंक्ति के साथ होती है कि हम अहम साझेदार हैं। उसके बाद भारत की अन्य व्यापक और अहम साझेदारियों पर नजर डालिए। संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और मिस्र जैसे सबसे ताकतवर इस्लामिक और अरब देश इसमें शामिल हैं। ये सभी इजरायल के पड़ोसी भी हैं।

वे इजरायल पर हमलावर ईरान और उसके सहयोगियों की मिसाइलों को मार गिराते रहे हैं। इस स्तंभ में हम ने अक्सर कहा भी है कि राष्ट्रहित हमेशा इस्लाम वाद पर भारी रहा है। ईरान, उसकी शिया बुनियाद और मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ उसके रिश्ते उन सभी के लिए साझा खतरा हैं। जिसे मुस्लिम दुनिया कहा जाता है, उसने फिलिस्तीन को इस्लामिक समस्या मानना ही बंद कर दिया है।

पश्चिम एशिया की रणनीतिक और राजनीतिक तस्वीर की कई परतें हैं। उसे केवल यहूदी-मुस्लिम या सुन्नी-शिया की शक्ल में नहीं देखा जा सकता। धर्म, जातीयता या तीसरी दुनिया जैसा कुछ भी उन्हें आपस में नहीं बांधता। बांधता है तो केवल राष्ट्रवाद।

यह शीतयुद्ध के बाद वाला दौर नहीं है। 1981 में जॉर्डन और सऊदी अरब ने इजरायली विमानों को इराक के ओसिराक रिएक्टर तक पहुंचने और उस पर बमबारी करने में मदद की थी। अरब देश सोवियत समर्थित सद्दाम हुसैन के इराक और उसके बाथवाद से डरते थे। देश अपने हित के लिए काम करते हैं, दूसरे के लिए नहीं। कारण चाहे वैचारिक हो, धार्मिक हो या नैतिक हो।

भारत में हम इस विषय पर चर्चा भी इसीलिए करते हैं क्योंकि हमारी अपनी पश्चिम एशिया और इजरायल नीति पूरी तरह शीतयुद्ध के विचार पर आधारित थी और उसे बदलने में हमने बहुत समय ले लिया। अरबों को हम परेशान करने वाले, पश्चिम के दलाल और पाकिस्तान के सरपरस्त मानते आए हैं। वरना खुद ही सोचिए कि 2015 में मोदी की यूएई यात्रा के पहले 34 साल तक किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने उस देश की यात्रा क्यों नहीं की थी।

इजरायल के गठन पर भारत की नीतिगत चूकों में तरह-तरह के पाखंड और मजबूरियां नजर आती हैं। भारत ने 1947 में फिलिस्तीन के विभाजन के विरुद्ध मतदान किया था और अल्बर्ट आइंस्टीन के चार पृष्ठों के पत्र के जवाब में जवाहरलाल नेहरू ने इस कदम को यह कहते हुए उचित ठहराया था कि नेताओं को ‘दुर्भाग्यवश ऐसी नीतियां अपनानी पड़ती हैं, जो एकदम स्वार्थ भरी होती हैं।’

मगर 17 सितंबर 1950 को भारत ने इजरायल को मान्यता दे दी। अगर आपके लिए यह दोगलापन है तो नेहरू ने इसे भी उचित ठहराया। उन्होंने कहा कि भारत बहुत पहले इजरायल को मान्यता दे देता क्योंकि वह हकीकत था लेकिन ‘हम इससे बचते रहे क्योंकि हम अरब मित्रों को दुखी नहीं करना चाहते थे।‘

बहरहाल भारत उस वक्त निराश और हताश हो गया जब दशकों लंबा संघर्ष शुरू हो गया और खास तौर पर 1960 के दशक में इस्लामिक दुनिया विशेषकर अरब देशों ने पाकिस्तान का साथ देना शुरू कर दिया। 1971 की जंग में जॉर्डन ने अपने कुछ एफ-104 लड़ाकू विमान पाकिस्तान को उधार दिए और 1965 में ईरान के शाह ने पाकिस्तानी वायु सेना को अपने ठिकाने मुहैया कराए।

इन तमाम दशकों में इजरायल खामोशी से हर मौके पर हमारी मदद करता रहा। भारत के लोगों ने यह देखा और इजरायल से उनका लगाव बढ़ता गया। कारगिल में हमारी हवाई बमबारी तब मारक बनी, जब इजरायल ने उसे लेजर गाइडेंस किट दी। इन्हीं की मदद से भारतीय वायु सेना के मिराज 2000 विमानों ने अचूक तरीके से लक्ष्य बेधना शुरू कर दिया। इस बीच अरब दुनिया और इजरायल के रिश्तों में भी गरमाहट आई। अब्राहम समझौता हुआ और उसके बाद आई2यू2 (भारत, इजरायल, यूएई और अमेरिका) तथा आईएमईईसी (भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप आर्थिक गलियारा) बने।

रणनीतिक हितों का ऐसा संगम होने, ईरान के अलग-थलग पड़ने और उसके लिए लड़ने वाले फिलिस्तीनी लड़ाकों के कारण हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि भारत शीतयुद्ध की गलतियां दोहराएगा। अगर हमने इसके लिए ‘बेवकूफी’ शब्द का इस्तेमाल किया तो उसकी वजह केवल इतनी थी कि लंबे समय तक हमारी विदेश नीति हर पश्चिम विरोधी ‘वाद’ से जुड़ी रही। अब वह दौर है, जब नीतियां केवल राष्ट्र हित से तय होती हैं। जनमत भी इसी बात से संकेत ग्रहण करता है।

First Published - October 13, 2024 | 9:37 PM IST

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