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राष्ट्र की बात: हर वाद पर भारी लोकलुभावनवाद

नई दुनिया में केवल एक ही विचार है जो तमाम वोट बैंकों में पहुंच बना सका, वह है लोकलुभावनवाद। इसकी खूबसूरती, आकर्षण, सफलता इस बात में निहित है कि इसे इस्तेमाल करना आसान है।

Last Updated- January 19, 2025 | 9:57 PM IST
Maharashtra civic polls
प्रतीकात्मक तस्वीर

हम 2025 में प्रवेश कर चुके हैं और अब यह तय करना उचित होगा कि कौन सा ‘वाद’ हार चुका है और कौन सा जीत रहा है। अगर हम पश्चिम को देखें तो वामपंथ या वाद अब लगभग समाप्त हो चुका है। यह न केवल राजनीतिक रूप से समाप्त हो चुका है बल्कि सामाजिक स्तर पर भी इसका अंत हो चुका है। ब्रिटेन इसका अपवाद है, हालांकि वहां भी कीर स्टार्मर को ईलॉन मस्क समर्थित धुर दक्षिण से हमलों का सामना करना पड़ रहा है और लेबर पार्टी भी खतरे में नजर आ रही है।

इसके साथ ही दक्षिणपंथ भी अच्छी स्थिति में नहीं दिख रहा है। कम से कम राजनीतिक दक्षिणपंथ पर यह बात लागू है। अमेरिका में रिपब्लिकन ट्रंप के उभार के आगे झुक गए हैं। हाल के दिनों में ट्रंप ने जिन लोगों को निशाने पर लिया है वे रिपब्लिकन हैं। निक्की हेली को उन्होंने ‘बर्डब्रेन’ (चिड़िया जैसा दिमाग रखने वाली), जॉन बोल्टन को ‘डंब ऐज ए रॉक’ (पत्थर की तरह खामोश), डिक चेनी को ‘डिस्लॉयल वारमॉन्गर’ (गैर वफादार युद्धोन्मादी) और उनकी बेटी लिज को ‘साइको’ (मनोरोगी) कहा। इसके अलावा उन्होंने चार्ल्स कोच तथा कुछ अन्य को समृद्धि विरोधी अमेरिकी कहा जिनमें मिट रोमनी, जिम मैटिस, मार्क एस्पर आदि शामिल हैं। ट्रंप का कहना है कि ये सभी टीडीएस यानी ट्रंप डिरेंजमेंट सिंड्रोम से पीड़ित हैं।

वे पुराने वामपंथियों को लेकर ऐसी भाषा इस्तेमाल नहीं करते। ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी नजर में पुराने दक्षिणपंथी डेमोक्रेट्स से भी अधिक अनैतिक हैं। ट्रंप के मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) समर्थक रिपब्लिकंस भी पारंपरिक जीओपी (ग्रांड ओल्ड पार्टी यानी रिपब्लिकन पार्टी) से उतनी ही दूर हैं जितने कि वामपंथी डेमोक्रेट्स। रुचिर शर्मा ने फाइनैंशियल टाइम्स में अपने ताजा आलेख में इस बात को रेखांकित किया है कि गत वर्ष विकसित देशों में 85 फीसदी ऐसे नेता चुनाव हार गए जो सरकार में रहते हुए चुनाव लड़ रहे थे। मैं इसमें यह बात जोड़ना चाहूंगा कि इस बीच जो नया विचार उभरा है वह कोई पुराना ‘वाद’ नहीं रहा है। यह बात फ्रांस और इटली के लिए भी सही है। जर्मनी में भी ऐसा ही होने की संभावना है। अब जबकि वाम राजनीति खारिज हो रही है, दक्षिणपंथ नए सिरे से परिभाषित हुआ है और मध्य-दक्षिण का विचार गहरे संकट में है।

हमें अब तक जो भी वाद पढ़ाए गए मसलन वाम, दक्षिण और मध्य मार्ग आदि, वे सभी या तो मर रहे हैं या फिर गहरे संकट में हैं? उनकी जगह कौन ले रहा है? यह बात सोना महापात्र के कुछ साल पुराने गीत की याद दिलाती है: (इक नए किस्म का इज्म)। जाहिर है गीतकार राम संपत हमारे दिलों को प्रेरित करते हैं कि हम सभी पुराने और विभाजनकारी वादों को खारिज करके एक नया वाद खोजें जो हमें जोड़ने वाला हो।

राजनीति के लिए यह बहुत रूमानी है। इसके साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में विचारों का अभाव भी नहीं रह सकता। सच तो यह है कि अगर महापात्र ने एक नए किस्म के ‘इज्म’ के लिए गीत गाया था तो अब वह इज्म यानी वाद सामने भी आ चुका है। वह है लोक लुभावनवाद। पूरी दुनिया में इसने वाम, दक्षिण और मध्य को परेशान कर रखा है। यकीनन यह अलग देशों, मतदाताओं और समाजों के लिए अलग-अलग है। विकसित देशों में इसमें प्रवासियों को बड़े पैमाने पर वापस भेजना, अलग संस्कृतियों और आस्थाओं से भय (ज्यादातर इस्लाम), अति राष्ट्रवाद, व्यापारिक संरक्षणवाद और इतिहास या मिथकों में राहत तलाशना शामिल हैं। ट्रंप, जियोर्जिया मेलोनी, विक्टर ओर्बन और मरीन ले पेन कुछ सर्वाधिक सफल लोकलुभावनवादियों में शामिल हैं। उन्हें दक्षिणपंथी कहना गलत होगा। नाइजल फराज की यूके रिफॉर्म पार्टी भी इसी जमात का हिस्सा बनने के प्रयास में है। इससे सबसे अधिक डर किसे है? लेबर पार्टी को डर नहीं है क्योंकि उसके पास सहज बहुमत है। सबसे बड़ा खतरा ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी को है। क्या यूके रिफॉर्म उनके साथ वही कर सकती है जो ट्रंप ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के साथ किया? लोकलुभावनवाद की खूबसूरती, आकर्षण और सफलता इस्तेमाल की सहजता में निहित है क्योंकि यह आपके दिलोदिमाग से या आपकी चेतना से कुछ खास नहीं मांगती। इस पर नैतिकता का दबाव नहीं होता, इतिहास का बोझ नहीं होता और यह तथ्यों से भ्रमित नहीं होता।

एक स्तर पर यह पूरी तरह लेनदेन पर आधारित हो सकता है और भारत में ऐसा घटित होता दिख रहा है। ‘मैं आपको, आपकी बहन या मां को बहुत अधिक पैसे दूंगा और बदले में आप मुझे वोट दो।’ या फिर ‘नि:शुल्क बस यात्रा’, ‘कुछ यूनिट बिजली मुफ्त’, ‘मुफ्त पानी’ आदि। एक साल से कुछ पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे रेवड़ी कहकर इसका मखौल उड़ा रहे थे जो नेताओं को उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी यानी शासन से दूर करती है। उनका कहना सही था लेकिन उनकी बातें बहुत जल्दी गलत साबित हो गईं। अब खुद भारतीय जनता पार्टी दूसरों से कहीं अधिक ‘रेवड़ियां’ बांटती नजर आ रही है। उसे महाराष्ट्र में कामयाबी भी मिली। दिल्ली में वह महिलाओं को आम आदमी पार्टी से भी अधिक मदद की पेशकश कर रही है। यह इतना अधिक बढ़ गया है कि भाजपा जो देश की सबसे सफल और सुपरिभाषित विचारधारा वाली पार्टी है, वह अब हिंदुत्व और हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद से अधिक भरोसा मुफ्त उपहारों पर कर रही है।

हम कह चुके हैं कि लोकलुभावनवाद विचारधारा से मुक्त है। देखना होगा कि कैसे वाम ताकतों या कांग्रेस ने लेनदेन वाली राजनीति शुरू की। आम आदमी पार्टी जैसी विचारधारा रहित पार्टी ने उन्हें राह दिखाई। अब भाजपा भी वही कर रही है। इसका बोझ राहुल गांधी पर नहीं है लेकिन उन्होंने जिस मुहब्बत की दुकान की बात की थी वह रेवड़ियों के एक बड़े बाजार में बदल गई है। व्यापक लोकलुभावनवाद में भावनात्मक कारक भी हैं मसलन: धर्म, राष्ट्रवाद, संस्कृति, अतीत मोह, यह यकीन होगा कि अतीत में कभी हम आज की तुलना में महान थे। यही वजह है कि लोग मेक अमेरिका ग्रेट अगेन (अमेरिका को फिर से महान बनाएं) के लिए मतदान करेंगे। क्या अमेरिका शीत युद्ध में जीत के समय से ही महान नहीं है? क्या इसी आधार पर भारत में लोग ‘दोबारा सोने की चिड़िया’ बनाने के विचार को कबूल नहीं कर लेंगे? यही वही चीज है। लोकलुभावनवाद आपसे उन चीजों का वादा करता है जो आपने पहले कभी नहीं देखीं लेकिन वो आपको बेहतर महसूस करवाती हैं। इसके बाद इन्हें अधिक परिभाषित नजरियों से देखा जाता है मसलन: प्रवासी मुद्दा, दूसरे मुल्क की जमीन पर दावा, लैंगिकता और नस्ल आदि। शाब्दिक व्यंजना और नस्लीय शुद्धता आदि की धारणा को तो छोड़ ही दें।

विकसित देशों में प्रवासियों की समस्या बहुत बड़ी है। भारत में सीएए का मुद्दा इसी पर जोर दे रहा है। केवल 40-50 हजार की आबादी वाले रोहिंग्या इतना बड़ा मुद्दा बने हैं। दूसरे देश पर कब्जे का मुद्दा कैसे काम करता है इसे इस तरह देखें कि ट्रंप मेक्सिको की खाड़ी का नाम बदलना चाहते हैं, पनामा नहर को वापस लेना चाहते हैं और ग्रीनलैंड पर कब्जा चाहते हैं। भारत के लिए यह मुद्दा है अक्साई चिन और पाक अधिकृत कश्मीर। और इन दिनों भले ही उसकी अधिक बात नहीं हो रही हो लेकिन अखंड भारत के गौरव को बहाल करने की भावना भी बरकरार है। लिंग और नस्ल का मसला भारत में उस तरह नहीं है जैसा कि पश्चिमी देशों में। भारत की सुरक्षा उसकी बुनावट में निहित विविधता और वोट बैंक की बहुलता है। यहां एक नस्ल या पहचान पर जोर देने से दूसरी नस्लें या पहचानें अलग-थलग पड़ सकती हैं।

बहरहाल भारत भी लोकलुभावनवाद की दिशा में बढ़ रहा है। साल 2014 में मोदी सत्ता में आए। उस समय उन्होंने न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन का वादा किया था। लेकिन हमने देखा कि सरकार का आकार बढ़ता गया। एयर इंडिया को छोड़ दिया जाए तो निजीकरण का वादा पूरी तरह भुला दिया गया है। उसकी जगह अब गर्व से कहा जाता है कि सरकारी कंपनियों का प्रदर्शन पहले कभी उतना बेहतर नहीं रहा जितना इस सरकार के कार्यकाल में है। जिस समय मैं यह आलेख लिख रहा था, इस बात का जश्न मनाया जा रहा था कि सरकार विशाखापत्तनम स्थित सरकारी इस्पात संयंत्र में 11,440 करोड़ रुपये का अतिरिक्त निवेश कर रही है। यह संयंत्र वर्षों से विनिवेश किए जाने वाले संयंत्रों की सूची में शामिल था। मतदाताओं को लुभाने के लिए खराब चीजों पर धनराशि खर्च करना ही तो लोकलुभावनवाद है।

First Published - January 19, 2025 | 9:57 PM IST

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