क्या बहुपक्षीय व्यवस्था में अभी दुनिया को देने के लिए कुछ शेष है? अपनी तमाम खामियों और अक्षमताओं के बावजूद यह हाल तक एक ऐसी व्यवस्था बनी रही जिसके तहत वैश्विक महत्त्व के मुद्दों को उठाया जाना चाहिए और उठाया जाता रहा है। इस व्यवस्था में खामियां तब पैदा हुईं जब अमेरिका ने उन दशकों के दौरान स्थापित मानदंडों को भंग किया जब वह निर्विवाद रूप से वैश्विक नेतृत्व की भूमिका में था। चीन के एक विघटनकारी शक्ति के रूप में उभरने के बाद ये दरारें और गहरी हो गईं। अब जबकि डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका ने बहुपक्षीयता की अवधारणा के विरुद्ध सक्रिय रुख अपना लिया है तो ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापक आर्थिक स्थिरता, व्यापार प्रबंधन और सुरक्षा संबंधी विवाद जैसे प्रमुख लंबित मुद्दों को अब बहुपक्षीय प्रणालियों के जरिये नहीं सुलझाया जा रहा है।
वृहद आर्थिक स्थिरता की बात करें तो विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ पर निर्भर रही है। बीते दशकों में आईएमएफ ने ही अर्जेंटीना को कई बार उबारा। पाकिस्तान के अलावा लैटिन अमेरिका का यह देश ही एक ऐसा मुल्क है जिसे बार-बार फंड की मदद की जरूरत पड़ी है। वह एक बार फिर मुश्किल में है। इस बार संकट अधूरे सुधारों और राजनीतिक अस्थिरता से उत्पन्न हुआ है। परंतु इस बार अमेरिकी वित्त विभाग ने इस मुल्क को बचाने के लिए खुद दखल दिया है।
गत सप्ताह अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसंट ने कहा कि अमेरिका और अर्जेंटीना 20 अरब डॉलर के एक पैकेज को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसके चलते अर्जेंटीना की मुद्रा में तेजी आई। बेसंट ने कहा कि अमेरिका, अर्जेंटीना को संकट से उबारने के लिए हर संभव प्रयत्न करेगा। तथ्य यह है कि आईएमएफ में ऐसा ऋण कार्यक्रम तैयार करने की क्षमता है और वह अर्जेंटीना को बेपटरी होने से बचाने के लिए जवाबदेही ढांचा तैयार कर सकता है। अमेरिकी वित्त विभाग के पास यह क्षमता नहीं है लेकिन उसके पास वह राजनीतिक प्रभाव है जो आईएमएफ के पास नहीं है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार यह दावा किया है कि उनमें युद्ध समाप्त करवाने की क्षमता है। उन्होंने कई संघर्षों का उल्लेख भी किया है जिनके बारे में उनका कहना है कि उनकी मध्यस्थता के कारण वहां शांति स्थापित हुई। यहां तक कि गत सप्ताह उन्होंने गाजा के लिए एक नई शांति योजना पेश की। ट्रंप के दावों में कितनी सचाई है यह कोई मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह है कि उन्होंने अमेरिकी शक्ति का प्रयोग करते हुए यह सब खुद करने का प्रयास किया है। वह इसे अपनी निजी सौदेबाजी क्षमता की देन मानते हैं।
सुरक्षा परिषद सहित संयुक्त राष्ट्र की इसमें कोई भूमिका नहीं है। संयुक्त राष्ट्र इकलौता ऐसा बहुपक्षीय संस्थान नहीं है जिस ट्रंप के कदमों ने अनुपयोगी सा बनाया हो। उन्होंने नए व्यापार समझौतों पर भी ध्यान दिया है। उनमें से कई ऐसे तैयार किए गए हैं कि वे अमेरिकी व्यापार और शुल्क नीतियों को असाधारण रूप से तवज्जो देते हैं। यह विश्व व्यापार संगठन के सर्वाधिक तरजीही राष्ट्र यानी एमएफएन के सिद्धांत का उल्लंघन है। ध्यान रहे कि विश्व व्यापार संगठन की स्थापना में यह एक बुनियादी सिद्धांत रहा है। वह पहले ही विवाद निस्तारण के मंच के रूप में अपनी ताकत गंवा चुका था। अब व्यापार नीति में सभी देशों के साथ समान व्यवहार की बुनियादी भावना भी समाप्त हो चुकी है।
विश्व युद्ध के बाद की बहुपक्षीय व्यवस्था का उद्देश्य था शक्ति को यथासंभव सीमित रखना। शीत युद्ध के द्विध्रुवीय विश्व में इस प्रणाली की कुछ उपयोगिता थी, विशेष रूप से नए आजाद हुए और उपनिवेश-मुक्त देशों के संदर्भ में। एकध्रुवीय व्यवस्था के दशकों में इसने कुछ हद तक अमेरिका की कार्रवाइयों पर अंकुश लगाने का काम किया। लेकिन अब जबकि अमेरिका ने एक विघटनकारी रास्ता अपना लिया है, तो यह स्पष्ट हो गया है कि इस प्रणाली की अपनी कोई शक्ति नहीं है। इसकी शक्ति हमेशा उतनी ही रही, जितनी कि महाशक्ति ने उसे दी। अब जब व्हाइट हाउस यह मानता है कि वह समस्याओं को स्वयं हल कर सकता है, तो बहुपक्षीय प्रणाली के पास करने को बहुत कुछ बचा नहीं है।