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विचारधारा पर भारी है मोदी का कद और उनकी छवि

Last Updated- December 12, 2022 | 2:53 PM IST
PM Modi

चुनावों का एक और दौर समाप्त हो चुका है और हम भविष्य का अनुमान लगाने का प्रयास कर सकते हैं। शुरुआत उस सवाल से करते हैं जो हमने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के तीन महीने बाद उठाया था: क्या आपने कोई ऐसा राजनेता देखा है जिसका मुखौटा उसके चेहरे से इतना मेल खाता हो जितना मोदी का उनके चेहरे से मिलता है?

यह सवाल जुबानी खेल भर नहीं था। दूसरी ओर इससे उनकी राजनीति और विचारधारा के बारे में भी एक अहम दलील तैयार होती है कि आप जिस व्य​क्ति को देख रहे हैं वह वैसा ही है जैसा आप उसे पाते हैं। हमने सत्ता में वैचारिक नेता देखे हैं और ऐसे भी जो वि​भिन्न विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। इन नेताओं में विपक्ष में रहते हुए तो अपनी वैचारिक मान्यताओं की बात जमकर की लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने अपना नजरिया बदल दिया।

सत्ता में आने के बाद उन्हें अपनी राजनीतिक मान्यताओं को लेकर नरमी बरतनी होती थी। द​क्षिणपं​थियों में यह बात वाजपेयी और आडवाणी पर लागू होती है तो लोहियावादी वाम में जॉर्ज फर्नांडिस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के इंद्रजित गुप्त और धुर वाम के चतुरानन मिश्र पर यह बात लागू होती है।

विचारधारा में नरमी बरतने के लिए संविधान, संस्थान और सार्वजनिक पदों पर समावेशन आदि को वजह बनाया जाता। नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल के शुरुआती कुछ सप्ताह में ही इसे बदल दिया। वह 2011 में भी इसका प्रदर्शन कर चुके थे जब उन्होंने मु​स्लिमों की प्रार्थना में इस्तेमाल होने वाली टोपी पहनने से इनकार कर दिया था।

उनके सत्ता में आने के बाद हमने देखा कि कैसे यह उनकी शासन शैली में केंद्रीय भूमिका रखता है। उनके मंत्रिमंडल में या संवै​धानिक पदों पर तथा दोनों सदनों में उनके दल में मु​स्लिम सदस्यों की तादाद धीरे-धीरे कम होने लगी। प्रधानमंत्री कार्यालय में होने वाली रस्मी इफ्तार पार्टियां भी समाप्त हो गईं।

उनके मंत्रियों और पार्टी नेताओं ने इस संकेत को जल्दी समझ लिया। वह अपनी विचारधारा के प्रति सच्चे थे, उसे जीते थे और उसका प्रदर्शन भी करते थे। हालांकि वह सार्वजनिक रूप से अल्पसंख्यकों के बारे में कुछ बुरा नहीं कहते। हालांकि कुछ खास हालात में यानी चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने यह नियम भी तोड़ा। ऐसा उन राज्यों में खासतौर पर​ किया गया जहां हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण एक संभावना है।

चूंकि हालिया चुनाव के नतीजे हमें अगले 16 महीनों के दौरान देश की राजनीति पर नजर डालने का एक अच्छा अवसर देते हैं तो हमारे लिए यह आकलन करने का सही वक्त होगा कि क्या यह रवैया मोदी के लिए कारगर रहा। वह इसे जारी रखेंगे? अगर नहीं तो क्या उनका रुख नरम होगा या वह इस पर और अ​धिक जोर देंगे?

अब तक मोदी की चुनावी राजनीति इतनी अ​धिक कामयाब रही है और इसके बारे में सवाल उठाने पर आपको मूर्ख भी कहा जा सकता है। परंतु हमें कुछ प्रश्न तो उठाने ही चाहिए। भाजपा-आरएसएस की​ विचारधारा के दो पहलू हैं: राष्ट्रवाद और हिंदुत्व। सबसे पहले चुनावी क्षमता की बात करें तो यहां बहस बहुत कम है। हमने देखा कि कैसे पुलवामा-बालाकोट ने 2019 के चुनावों को नाटकीय रूप से बदल दिया और कितना गंभीर असर डाला।

जिन लोगों ने इन घटनाओं पर सवाल उठाए उन्हें मतदाताओं ने सबक सिखाया। परंतु वह राष्ट्रीय चुनाव थे। हम नि​श्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि क्या हिंदुत्व ने किसी राष्ट्रीय चुनाव में इतनी निर्णायक भूमिका निभाई या फिर क्या राज्यों के चुनाव में हिंदुत्व या राष्ट्रवाद की ऐसी भूमिका रही। ताजा उदाहरण देखें तो हिमाचल प्रदेश में यह कारगर नहीं रहा जबकि वहां ज्यादातर हिंदू हैं और अधिकांश परिवारों का सेना से रिश्ता और भाजपा/आरएसएस से संबंध रहा है। इसके बावजूद पार्टी सत्ता विरोधी लहर मुकाबला करने में नाकाम रही जबकि उसका सामना एक कमजोर राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी से था।

अगर पार्टी की यह हार किसी क्षेत्रीय दल के ​खिलाफ होती तो मामला दूसरा होता। उदाहरण के लिए प​श्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के सामने मिली हार। परंतु इस हार ने 2018 के बाद भाजपा की कांग्रेस ​खिलाफ 92 फीसदी सफलता के सिलसिले को तोड़ा है। वहां राष्ट्रवाद और​ हिंदुत्व का मसला नहीं था, मोदी नहीं थे इसलिए यह एक सामान्य चुनाव बन गया।

दिल्ली नगर निगम चुनाव में उनकी पार्टी बिखराव और भ्रष्ट प्रदर्शन के रिकॉर्ड के साथ उतरी। पार्टी ने अपनी एजेंसियों की मदद लेकर और आप के ​खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला बनाकर लड़ने की ठानी लेकिन यहां मोदी के नाम पर जीता नहीं जा सकता था और विचारधारा मायने नहीं रखती थी। इससे आप को इस चुनाव को पूरी तरह स्थानीय बनाने में मदद मिली और भलस्वा तथा गाजीपुर में कचरे के पहाड़ चुनाव का मुद्दा बन गए।

2014 में मोदी की भारी जीत के बाद राज्य दर राज्य यह देखने को मिला। जहां भी चुनावी मुद्दा क्षेत्रीय या स्थानीय था वहां भाजपा को चुनौती का सामना करना पड़ा। यह चुनौती तब और गंभीर हो गई जब साल बीतने के साथ उनकी पार्टी के क्षेत्रीय नेता और कमजोर हो गए।

2023 में यही बात मोदी के लिए चिंता का विषय बनेगी। क्या वह और उनकी पार्टी कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उसके बाद तेलंगाना में चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दों पर ले जा सकेंगे? यदि राहुल गांधी दूरी बनाए रखते हैं तो भी मोदी के नाम पर वोट जुटाना आसान नहीं होगा। चुनावों का मोदी बनाम राहुल न होना भी भाजपा को नुकसान पहुंचाएगा। तब मोदी क्या करेंगे? क्या किसी तरह चरम राष्ट्रवाद या हिंदुत्व की भावना में और अ​धिक उभार की को​शिश?

आने वाले साल में मोदी की अहम चुनौती यही होगी कि चुनाव को स्थानीय मुद्दों से कैसे दूर करें? अब तो डबल इंजन की सरकार का नारा भी कारगर नहीं है। जरा सोचिए कि कर्नाटक में इसके काम करने की क्या संभावना है? क्या मोदी वहां बोम्मई के प्रदर्शन पर वोट मांग सकते हैं? अब तो विपक्ष के 70 साल के कुशासन का हवाला देकर वोट मांगना भी शायद आगे काम न आए। सत्ता में आने के नौ वर्ष बाद यह कारगर नहीं दिखता।

हिंदुत्व के मोर्चे पर पार्टी के बड़े​ मिशन यानी अनुच्छेद 370 और राम मंदिर पूरे हो चुके हैं। समान नागरिक संहिता पर चर्चा चल रही है और भाजपा नेता इसमें जमकर हिस्सेदारी कर ही रहे हैं। लेकिन हम नि​श्चित तौर पर नहीं कह सकते हैं कि यह मुद्दा लोगों को उतना ही उद्वेलित करेगा जितना मंदिर या कश्मीर का दर्जा। तीन तलाक का मसला भी हल हो चुका है तो अब बचा अति राष्ट्रवाद।

बदलती वै​श्विक और क्षेत्रीय हकीकतों के कारण नए गतिरोध उत्पन्न हुए हैं और एक नया राष्ट्रवादी रुझान उभर रहा है। पाकिस्तान अपनी आंतरिक अशांति, सैन्य और आ​र्थिक अ​स्थिरताओं से दो चार है। पश्चिम ने उसे त्याग दिया है और उसका अहम साझेदार चीन रूस और यूक्रेन के युद्ध के कारण ध्यान नहीं दे पा रहा है। इसके बावजूद पाकिस्तान के साथ आसानी से विवाद भड़काया जा सकता है। लेकिन जब चीन लद्दाख में जमा हुआ है तो क्या आप ऐसा करना चाहेंगे?

चीन की ओर से एक राष्ट्रवादी चुनौती है लेकिन उसे लेकर इतनी सावधानी बरती जा रही है कि विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री भी इस बारे में कभी-कभी ही बात करते हैं वह भी काफी कूटनीतिक और सहमे हुए लहजे में। प्रधानमंत्री कभी चीन को किसी बात का दोष नहीं देते। ब​ल्कि बाली में उन्होंने आगे बढ़कर शी चिनफिंग से बात शुरू की।

चीन पाकिस्तान नहीं है। आप चीन के साथ कुछ भी इस तरह शुरू नहीं कर सकते कि बाद में जीत का दावा करके उसे खत्म कर सकें। पुलवामा-बालाकोट की तरह नहीं ​जहां दोनों पक्षों ने अपने-अपने देश में जीत की घोषणा कर दी थी। यहां फिर वही सवाल आता है जिससे हमने शुरुआत की थी यानी मोदी और उनकी विचारधारा। आठ वर्षों ने उन्हें सिखाया है कि उन्हें चुनावों में जीत उनके व्य​क्तित्व और चेहरे की वजह से​ मिलती है। उनकी पार्टी में योगी आदित्यनाथ के अलावा आज दूसरा ऐसा कोई चेहरा नहीं है जिसका मुखौटा उसके मतदाता पहनें। दूसरी बात यह कि कोई भी आरएसएस के नाम पर वोट नहीं देता।

2024 में मोदी की ​स्थिति अच्छी रहेगी क्योंकि लोग मोदी के नाम पर मतदान करेंगे। हालिया चुनाव इस बात की पु​ष्टि करते हैं कि मोदी नामक व्य​क्ति और उसकी छवि ने पार्टी और उसके संरक्षक आरएसएस को पीछे छोड़ दिया है।
एक सर्वश​क्तिमान व्य​क्तित्व करीब 100 साल पुरानी विचारधारा को वोट जुटाने की अपनी क्षमता के सहारे छोटा साबित कर रहा है।

First Published - December 12, 2022 | 2:37 PM IST

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