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म​णिपुर में दुविधाग्रस्त नजर आ रही मोदी सरकार

म​णिपुर में अराजकता की ​स्थिति है जबकि भारत में इंदिरा गांधी के बाद सबसे मजबूत केंद्र सरकार सत्ता में है।

Last Updated- July 02, 2023 | 11:54 PM IST
BJP repeating mistakes like Congress in Manipur

‘भारत में शासन की दृ​ष्टि से सबसे चुनौतीपूर्ण राज्य कौन सा है?’ इस प्रश्न का उत्तर आसान है। भारत का नक्शा उठाकर दे​खिए आपको पता चल जाएगा कि जवाब है म​णिपुर।

दो महीने से भी अधिक समय हो चुका है और इस सीमावर्ती राज्य में सशस्त्र समूहों और प्रतिद्वंद्वी भीड़ का शासन चल रहा है जो एक दूसरे के ​खिलाफ मैदान में हैं। केंद्र की सत्ताधारी पार्टी यानी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) म​णिपुर में भी सत्ता में है। इंदिरा गांधी के दिनों की कांग्रेस की तरह भाजपा भी आला कमान संचालित पार्टी है। क्या उस सर्वश​क्तिमान आला कमान का हुक्म म​णिपुर में चल पा रहा है? लगता है नहीं।

इंफाल में शुक्रवार को जो तमाशा हुआ उस पर नजर डालिए। नाकाम साबित हुए मुख्यमंत्री एन बीरेन विक्रम सिंह की नजरों के सामने प्रदेश जलता रहा और उन्होंने इतना साहस नहीं दिखाया कि जनजातीय, पहाड़ी जिलों का दौरा ही कर लेते। वह अपनी ही पार्टी के दिग्गज नेता और देश के गृह मंत्री अमित शाह के साथ भी वहां नहीं गए। आ​खिर में उन्होंने यह बात फैल जाने दी कि वह इस्तीफा दे रहे हैं।

पूरी दुनिया को अपना ‘इरादा’ पता चल जाने के बाद वह हाथ में इस्तीफा लेकर राजभवन के लिए निकले। इस बीच उनके मैतेई समुदाय की महिलाओं की भारी भीड़ वहां एकत्रित हो गई और उनसे इस्तीफा न देने को कहने लगी। इसी नाटक-नौटंकी के बीच एक महिला ने उनके एक कर्मचारी के हाथ से सिंह का इस्तीफा छीनकर फाड़ दिया।

प्रदर्शनकारी महिलाओं द्वारा इस्तीफे को पैरों तले रौंदे जाने के बाद उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की गईं। इसके बाद सिंह ने ट्वीट किया कि वह इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। यह भी कि जब उनके लोग उन्हें इतना प्यार करते हैं तो वह इस्तीफा कैसे दे सकते हैं? उनके इस्तीफे को छीनने, फाड़ने, रौंदने और फिर वापस लेने की प्रक्रिया सुविचारित तरीके से तैयार किया गया नाटक था। वह पद पर बने रहे। इससे भाजपा आला कमान की प्रभुता के बारे में क्या संदेश निकलता है?

अगर पार्टी आला कमान उनका इस्तीफा चाहता था तो उन्होंने भीड़ की श​क्ति का इस्तेमाल उस आदेश की अवहेलना करने के लिए किया। अगर ऐसा नहीं था तो क्या उन्होंने पार्टी के शीर्ष नेताओं की अवज्ञा करते हुए इस्तीफा देने की धमकी दी और फिर भीड़ एकत्रित करके अपना श​क्ति प्रदर्शन किया? चाहे जो भी हो, इससे पार्टी आला कमान कमजोर नजर आया। म​णिपुर की हालत पहले की तरह ही खराब है। वह हिंसा की आग में जल रहा है।

सिंह किसी विचारधारा में प्र​शि​क्षित नहीं हैं। वह एक फुटबॉल ​खिलाड़ी थे। वह अच्छे डिफेंडर थे और बीएसएफ ने उन्हें नौकरी दी थी। वह 14 सालों तक वहां काम करते हुए खेलते रहे। वह तथाक​थित डेमोक्रेटिक रिवॉल्युशनरी पीपुल्स पार्टी के सह-संस्थापक रहे। 2002 में इस पार्टी से विधायक बने दो नेताओं में एक वह भी थे। इसके तुरंत बाद उन्होंने पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।

बाद में जब कांग्रेस केंद्र की सत्ता से हट गई और भाजपा ने अपने लिए प्रतिभा खोज शुरू किया तो उन्होंने आसानी से पाला बदल लिया। उनके लिए विचारधारा कोई मायने नहीं रखती। इस बार उन्होंने हिंसात्मक रूप से बंटे हुए प्रदेश में अपनी जातीय वफादारी का प्रदर्शन किया है। इस दौरान उन्होंने पार्टी के समक्ष एक बड़ा प्रश्न पैदा किया है?

पहला, चूंकि मैतेई मुख्य रूप से हिंदू हैं इसलिए क्या ईसाई जनजाति को नाराज छोड़कर केवल मैतेई समुदाय का समर्थन और वफादारी हासिल करके शांति स्थापना की जा सकती है? जनजातीय समुदाय को इस षडयंत्र सिद्धांत पर ​विश्वास है। उनका मानना है कि यह प्रांत में हिंदू-ईसाई ध्रुवीकरण की को​शिश है।

दूसरा सवाल यह है कि आ​खिर वह अपने ही प्रांत में शासन की नाकामी कब तक झेलेंगे? खासतौर पर तब जबकि वे पूर्वोत्तर में अपने दल के उभार को सफलता की कहानी के रूप में पेश करते हैं।

पहचान की राजनीति या कहें हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति ने भाजपा को असम और त्रिपुरा में लगातार दो चुनाव जीतने में मदद की है। अरुणाचल प्रदेश और म​णिपुर में उसने कांग्रेस के पुराने नेताओं को साथ लेकर सत्ता हासिल की या फिर छोटे दलों के साथ गठजोड़ करके सत्ता में आयी। मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और सि​क्किम इसके उदाहरण हैं। स्थानीय, क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग पूर्वोत्तर के जनजातीय राज्यों में सघन है लेकिन ये राज्य केंद्र से टकराव लेने की दृ​ष्टि से बहुत छोटे हैं।

अब तक यह व्यवस्था कारगर रही है और पार्टी को भी पूर्वोत्तर में शासन करने का अपना ख्वाब पूरा करने का मौका मिला है। एक विचार यह भी था कि यह पूरा इलाका कांग्रेस की स्वार्थी और भ्रष्ट राजनीति के कारण अ​स्थिरता के दुष्चक्र में ​घिरा रहा है। पूर्वोत्तर में भाजपा की सफलता भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय परिघटना थी लेकिन म​णिपुर में वह सफलता गंभीर खतरे में नजर आ रही है।

भाजपा ने जहां पूर्वोत्तर की समस्या के लिए कांग्रेस के भ्रष्टाचार और स्वार्थ को जिम्मेदार ठहराया, वहीं उसने दो बातों की अनदेखी कर दी। पहली, कांग्रेस अगर इतनी ही भ्रष्ट थी तो इस इलाके में भाजपा का पूरा नया नेतृत्व कांग्रेस से ही कैसे आया? दूसरा, भाजपा इस भूभाग की जटिलता को भुला बैठी। पूर्वोत्तर के जनजातीय इलाके में हिंदी क्षेत्रों की तरह हिंदू-मु​स्लिम या जातीय समीकरण काम नहीं करते। म​णिपुर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यह वजह है कि शासन की दृ​ष्टि से भी म​णिपुर देश का सबसे मु​श्किल राज्य है।

म​णिपुर में शासन की चुनौती को समझने के लिए आप इतिहास, भूगोल या जनांकिकी से शुरुआत कर सकते हैं। आइए वर्तमान से शुरुआत करते हैं क्योंकि इसमें तीनों कारक शामिल हैं। व्यापक तौर पर देखा जाए तो म​णिपुर में तीन जनजातीय समूह हैं: मैतेई, कुकी और नगा।

जरा दे​खिए तीनों समूह क्या चाहते हैं:

मैतेई अनुसूचित जनजाति का दर्जा चाहते हैं और साथ ही अपने राज्य में राजनीतिक रसूख बरकरार रखना चाहते हैं।

कुकी समुदाय की मांग स्वायत्त क्षेत्र की है। वह एक अर्द्ध राज्य के लिए तैयार है ताकि उसे मैतेई समुदाय के दबदबे वाले प्रशासन के अधीन न रहना पड़े। नगा समुदाय अलगाव चाहता है लेकिन भारत से नहीं केवल म​णिपुर से। वह व्यापक नगालैंड या नगालिम से जुड़ना चाहता है।

नैशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के वार्ताकार भी केंद्र से यही चाहते हैं। लब्बोलुआब यह है कि तीनों समूहों में से कोई भारत से अलग होना नहीं चाहता। इसके बावजूद तीनों स्वचालित ह​थियारों से लैस हैं। अगर सुरक्षा बलों को कुछ हद तक इन्हें रोकने में कामयाबी मिल भी जाए (फिलहाल ऐसी कोई मंशा नहीं दिखती) तो भी इनकी अबाध आपूर्ति जारी रहेगी।

कुकी समुदाय इन्हें सीमा पार म्यांमार से प्राप्त करता है और मैतेई इंफाल घाटी में किसी भी पुलिस ह​थियारखाने से मनचाहे ह​थियार ले सकते हैं। वे अक्सर अपने आधार कार्ड भी वहां छोड़ देते हैं मानो कहना चाह रहे हों, ‘अगर कोई आपसे पूछे कि यह सब किसने किया तो कहिएगा हम आए थे।’

सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती इस साधारण तथ्य से आती है कि इन समूहों में से कोई अलगाव नहीं चाहता। ऐसे में सेना उन्हें राज्य का शत्रु कैसे माने? उन्हें राष्ट्र विरोधी मानकर उन पर गोलियां कैसे बरसाए? यह एक जटिल प्रश्न है।

हमारे ​इतिहास में ऐसी दुविधा की ​स्थिति पहले नहीं आई। दीमापुर में ​स्थित विद्रोहियों से निपटने में कुशल सैन्य टुकड़ी अब मणिपुर में तैनात है। उनकी मदद के लिए सीआरपीएफ और असम राइफल्स की कुछ बटालियन हैं लेकिन वे लड़ नहीं सकतीं। म​णिपुर में किसी समूह को शत्रु घोषित नहीं किया गया है।

ऐसे में इन बलों की भूमिका संयुक्त राष्ट्रीय शांति बल जैसी रह गई है। वे सु​र​क्षित स्थानों को खाली कराते हैं और यह सुनि​श्चित कर रहे हैं कि वस्तुओं की आपूर्ति सुचारु रूप से चलती रहे।

वे उन लोगों पर भी गोली नहीं चलाते जो उन्हें ह​थियार दिखाते हैं, उनके ह​थियार छीनना तो दूर की बात है। विद्रोह से निपटने के मामले में दुनिया की सबसे सफल और कुशल सेना के लिए यहां के हालात अजीब हैं। यहां उसे वैसी ही जटिलताओं का सामना करना पड़ रहा है जैसी भाजपा को राजनीतिक रूप से झेलनी पड़ रही हैं।

First Published - July 2, 2023 | 11:54 PM IST

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