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महाराष्ट्र में भाजपा का बढ़ता दबदबा और उद्धव-राज की एकजुटता से बदले राजनीतिक समीकरण

महाराष्ट्र में भाजपा की बढ़ती ताकत और ठाकरे भाइयों की नजदीकी ने राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं, बीएमसी चुनाव से पहले यह गठजोड़ सत्तारूढ़ दल के लिए चुनौती बन सकता है

Last Updated- August 29, 2025 | 10:20 PM IST
शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) प्रमुख उद्धव ठाकरे के साथ उनके चचेरे भाई राज ठाकरे

गणेश चतुर्थी महाराष्ट्र में गणपति कूटनीति का एक पारंपरिक अवसर है। यह ऐसा अवसर है जब मनमुटावों को भुलाया जाता है और मतभेदों को दूर किया जाता है। ठाकरे परिवार के साथ भी ऐसा ही हुआ जब शिव सेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने परिवार के साथ करीब 20 वर्ष बाद गणपति पूजा के लिए अपने चचेरे भाई राज ठाकरे के निवास शिवतीर्थ पहुंचे। वर्ष 2006 में बाल ठाकरे द्वारा अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद राज ठाकरे परिवार से अलग हो गए थे। उन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया था। यह उनकी निजी पीड़ा से उत्पन्न राजनीतिक प्रतिक्रिया थी। राजनीतिक दूरियां भले ही मिटती दिख रही हों लेकिन यह कहना मुश्किल है कि व्यक्तिगत पीड़ा को भी भुला दिया गया होगा।

मनसे का राजनीतिक इतिहास बहुत उल्लेखनीय नहीं रहा है। 2009 के लोक सभा चुनाव में मनसे ने 11 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे थे लेकिन उनमें से कोई नहीं जीत सका था। परंतु मनसे ने कई सीटों पर शिव सेना को नुकसान पहुंचाया था। उसी वर्ष हुए विधान सभा चुनाव में मनसे 143 सीटों पर लड़ी और 13 सीटें जीतने में सफल रही। यह चुनावों में उसका सबसे बेहतरीन प्रदर्शन था। 2014 के लोक सभा चुनाव में पार्टी ने 10 प्रत्याशी उतारे और सभी की जमानत जब्त हो गई। उसी वर्ष हुए विधान सभा चुनावों में पार्टी 288 में से 219 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरी लेकिन 209 पर उसकी जमानत जब्त हो गई। पार्टी को केवल एक सीट पर जीत मिली।

इसके बाद वर्ष2024 के नवंबर में हुए विधान सभा चुनावों में माहिम में मतदाता राज के बेटे अमित को हराने के लिए एकजुट हुए और उद्धव ठाकरे के उम्मीदवार महेश सावंत 17,000 से अधिक मतों से जीत गए। माहिम वह क्षेत्र है जो शिव सेना की सोच और राजनीति का केंद्र रहा है। यह हार पुराने सभी मसलों पर एक विराम की तरह थी। उद्धव चाहते तो परिवार के सम्मान में अपने प्रत्याशी को वापस ले सकते थे। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थन के बावजूद राज ठाकरे को हार का सामना करना पड़ा।

ऐसा नहीं है कि उद्धव ठाकरे की शिव सेना ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन वह सरकार में एक कार्यकाल पूरा करने में कामयाब रही। शिव सेना में विभाजन हुआ और एकनाथ शिंदे भाजपा से जा मिले। यह एक चेतावनी की तरह था और अब राज तथा उद्धव दोनों को इस हकीकत का एहसास हो गया है कि उनके सामने एक जबरदस्त शत्रु है जिसका नाम है- भाजपा।

वर्ष 2026 के आरंभ में बृहन्मुंबई महानगरपालिक (बीएमसी) के चुनाव होने हैं। अक्टूबर-नवंबर में अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव हो सकते हैं। एकजुटता की इस भावना का संबंध साझा शत्रु के सामने होने से है। परंतु इस कदम से अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं। आम धारणा के विपरीत जरूरी नहीं कि भाजपा को भी ऐसा लगे कि ठाकरे परिवार की एकजुटता उसकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकती है। एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस के बीच की प्रतिद्वंद्विता महाराष्ट्र में किसी से छिपी नहीं है और इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। शिंदे मानते हैं केंद्र उनके साथ है जबकि फडणवीस मानते हैं कि पार्टी उनके साथ खड़ी है। महाराष्ट्र में मराठियों का सम्मान होना चाहिए, यह विचार बुनियादी रूप से राज ठाकरे का है। यह उन पुराने दिनों की याद दिलाता है जब क्रिकेट की पिच खोद दी जाती थीं और इसकी सराहना होती थी, इससे वोट मिलते थे।

परंतु महाराष्ट्र में तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। भाजपा का वोट बैंक उच्च जातियों के मराठी और उससे भी बढ़कर गैर मराठी भाषी मतदाता मसलन गुजराती, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी, जैन आदि रहे हैं। ऐसे में महाराष्ट्र मराठीभाषियों का है, यह विचार जितना उग्र होगा, अन्य समुदाय उतने ही अलग-थलग महसूस करेंगे।

दो घटनाएं इसकी बानगी हैं। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिव सेना और मनसे ने जून में देवेंद्र फडणवीस द्वारा हिंदी को तीसरी भाषा बनाए जाने पर तीखी प्रतिक्रिया दी थी (वह आदेश बाद में वापस ले लिया गया)। इसके बाद राज का भाजपा से अलगाव हुआ जिससे राजनीतिक समीकरण बदल गए। दूसरी घटना थी कबूतरखानों को ढकने का फैसला जहां रोज डेढ़ टन अनाज कबूतरों को खिलाया जाता था। यह निर्णय भी कुछ ही दिन में वापस ले लिया गया क्योंकि जैन समुदाय विरोध में सड़कों पर उतर आया था। परंतु इससे पहले ही भाजपा-शिवसेना के मतभेद सामने आ चुके थे और सेना के विधायक सार्वजनिक रूप से फैसले को वापस लेने की आलोचना करने लगे थे।

शिव सेना के दूर होने से भाजपा को कोई दिक्कत नहीं बल्कि मनसे तथा उद्धव के नेतृत्व वाली शिव सेना के एकजुट होने से उसे एकनाथ शिंदे के समर्थकों को अपने पाले में करने में आसानी होगी।

आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ रही है और यह शिव सेना की कीमत पर हो रहा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस धड़े की कीमत पर। एक समय शिव सेना का गढ़ रहे मुंबई में भाजपा 15 सीटें जीतने में कामयाब रही। इनमें गोरेगांव सीट भी शामिल है जो सेना का गढ़ है। इसकी वजह? महाराष्ट्र के युवा मतदाताओं को भाजपा का विजन अधिक आकर्षक लगता है। मराठी माणूस की अपील में उतना दम नहीं है। महाराष्ट्र का बदलता जनांकिकीय चरित्र और राजनीतिक मांग अब एकदम अलग प्रकृति के हो चुके हैं।

महाराष्ट्र अब सत्ता की राजनीति का केंद्र है। आने वाले महीनों में और अधिक बदलाव देखने को मिल सकते हैं।

First Published - August 29, 2025 | 10:04 PM IST

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