पिछले महीने के आरंभ में इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) के सभी चार सदस्य देशों ने आपूर्ति श्रृंखला समझौते पर हस्ताक्षर किए। आईपीईएफ की शुरुआत के 18 महीनों के भीतर ऐसा होना सराहनीय है। हाल में घटी भूराजनीतिक घटनाओं और व्यापक झटकों ने आपूर्ति श्रृंखला के कामकाज को बहुत अधिक अव्यवस्थित किया जिसका असर वस्तुओं एवं सेवाओं के प्रवाह पर पड़ा। इसमें खाद्य और औषधि जैसी जरूरी चीजें शामिल हैं। जाहिर है अधिकांश विकसित और विकासशील देशों के लिए आपूर्ति श्रृंखला को व्यवस्थित करना आवश्यक है।
यह समझौता तीन नई संस्थाओं के गठन की बात करता है: आईपीईएफ आपूर्ति श्रृंखला परिषद, आपूर्ति श्रृंखला की दिक्कतों को लेकर एक प्रतिक्रिया ढांचा और एक श्रम सलाहकार बोर्ड। परिषद अहम क्षेत्रों तथा वस्तुओं को चिह्नित करेगी और क्षेत्रवार कार्य योजना तैयार करेगी जिसमें अन्य बातों के अलावा कच्चे माल के स्रोत में विविधता, संयुक्त शोध और व्यापार सुविधा आदि शामिल होंगी।
नेटवर्क आपूर्ति श्रृंखला से जुड़ी संकट की स्थिति में सदस्य देश को आपातकालीन संचार चैनल मुहैया कराएगा। समूचे नेटवर्क में संभावित संकटों का समय पूर्व पता लगाने की कोशिश की जाएगी ताकि भविष्य की बाधाओं से बचा जा सके। सलाहकार बोर्ड में सरकार, कर्मचारी और नियोक्ताओं के प्रतिनिधि शामिल होंगे। यह श्रमिकों के अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए काम करेगा तथा इस क्षेत्र में बेहतर कार्य व्यवहार के लिए सलाह देगा।
इसके प्रावधान जहां आपूर्ति श्रृंखला की बाधाओं से बचने के लिए बचाव उपायों की एक व्यापक कवरेज मुहैया कराते हैं, वहीं वे गैर बाध्यकारी हैं। ऐसे में उल्लिखित लक्ष्यों को हासिल करने की कोई गारंटी नहीं है। मानक मुक्त व्यापार समझौतों और इसमें यही प्रमुख अंतर है। प्रावधानों में कई लचीलेपन भी शामिल हैं।
खासतौर पर ऐसे हालात में जहां कोई देश अपने सुरक्षा हितों को बचाने के लिए जानकारी नहीं साझा करना चाहता है। चूंकि बीते कुछ वर्षों में व्यापार प्रतिबंधात्मक या प्रतिगामी औद्योगिक नीति उपायों के लिए यही दलील दी गई है इसलिए समझौता यह सुनिश्चित करने में नाकाफी रह सकता है कि क्षेत्र में व्यापार व्यवस्था नियम आधारित हो और इस प्रकार आईपीईएफ के व्यापक रणनीतिक हितों को पूरा किया जा सके।
प्राथमिक रूप से अनुशंसीय इस समझौते के अन्य पहलू भी हैं जो इसके क्रियान्वयन को प्रभावित कर सकते हैं। आईपीईएफ समझौते कार्यकारी समझौते हैं और उनके लिए अमेरिकी कांग्रेस की मंजूरी आवश्यक नहीं है लेकिन एक अहम सवाल विभिन्न प्रशासनों के बीच इसकी व्यवहार्यता का है। खासतौर पर यह देखते हुए कि एक साल के भीतर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव होने हैं तथा पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के हालिया बयान बताते हैं कि दोबारा चुनाव जीतने पर वह इस समझौते को विफल करेंगे।
किसी भी सदस्य देश में आपूर्ति श्रृंखला को लेकर उत्पन्न संकट से निपटने के लिए समन्वित प्रयास के लिए जरूरी आपात संचार चैनल शायद इस समझौते का सबसे अहम पहलू है। सफल क्रियान्वयन के लिए अहम कच्चे माल की मांग की सटीक मात्रा, सुरक्षा भंडार का उचित रखरखाव और सदस्य देशों तथा उनके बीच सुचारु लॉजिस्टिक्स सुनिश्चित करने के साथ स्रोतों को विविध बनाने की आवश्यकता होगी। हालांकि इन पूर्व शर्तों को निभाना आसान नहीं।
फ्रेंड एवं अन्य द्वारा किया गया एक हालिया अध्ययन यह दिखाता है कि नीतिगत बातों के विपरीत आपूर्ति श्रृंखला की विविधता विभिन्न स्तरों पर उभर रही है। हालांकि 2017 से 2022 तक रणनीतिक उद्योगों (अमेरिकी सरकार द्वारा उन्नत प्रौद्योगिकी उत्पादों के रूप में उल्लिखित) सहित अत्यधिक विभाजित व्यापार आंकड़ों का विश्लेषण चीन के आयात पर उच्च अमेरिकी टैरिफ के असर और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला पर उसके असर को दिखाता है।
अध्ययन के निष्कर्ष दिखाते हैं कि टैरिफ वाली श्रेणी के उत्पादों में अमेरिकी आयात में चीन की हिस्सेदारी में गिरावट के बावजूद, अमेरिका में उत्पादन को बहाल करने के प्रमाण भी बहुत कम हैं। चीन से आयात में अंतर अन्य देशों से होने वाले आयात से अलग है। इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि आयात के स्रोत में बदलाव का बड़ा हिस्सा एक ही आपूर्तिकर्ता की ओर है और यह बात काफी हद तक रणनीतिक उत्पादों के लिए भी सही है। यानी एक स्रोत पर निर्भरता बरकरार है।
आयात स्रोत के रूप में चीन से दूरी बनाकर उन देशों से संपर्क किया जा रहा है जिनका चीन के साथ गहरा संबंध है। यह बात उन देशों के लिए खासतौर पर सही है जो अमेरिका के साथ निर्यात साझेदारी में सबसे बड़े लाभार्थी हैं मसलन इलेक्ट्रॉनिक्स में वियतनाम। रणनीतिक क्षेत्रों में अमेरिका को निर्यात में विस्तार प्रमुख लाभार्थी देशों का चीन के साथ आपूर्ति श्रृंखला का एकीकरण बढ़ाने वाला है। ऐसे में जबकि चीन से सीधे आयात पर अमेरिका की निर्भरता में कमी आई है, अप्रत्यक्ष आयात पहले जैसा ही है या फिर बढ़ा है।
इसके साथ ही अध्ययनकर्ता यह भी मानते हैं कि चीन की आपूर्ति श्रृंखलाओं के साथ एकीकरण ‘प्लस वन’ अर्थव्यवस्था के प्रमुख संकेतकों में से एक के रूप में उभर रहा है। रणनीतिक क्षेत्रों की बात करें तो अमेरिका को निर्यात बढ़ने के साथ-साथ चीन के साथ आपूर्ति श्रृंखला का एकीकरण भी मजबूत होता है। ऐसे में जब चीन से प्रत्यक्ष रूप से दूरी बन रही है तो अप्रत्यक्ष मूल्य श्रृंखला एकीकरण को मजबूत किया गया है। खासतौर पर रणनीतिक क्षेत्रों में ऐसा किया गया है।
डालमन ऐंड लवली (2023) ने भी आईपीईएफ इकॉनमीज के लिए किए गए अध्ययन में ऐसे ही निष्कर्ष पेश किए। 2010 से 2021 की अवधि के द्विपक्षीय व्यापार के विस्तृत आंकड़ों का अध्ययन बताता है कि आईपीईएफ देशों का व्यापार, खासतौर पर चीन के स्थानापन्न उत्पादन केंद्रों के रूप में विकसित हो रहे देशों का व्यापार एक छोटे से आयात स्रोत और निर्यात केंद्रों तक सीमित है।
इसके अलावा आईपीईएफ देशों के आर्थिक रिश्ते दिखाते हैं कि चीन पर निर्भरता बढ़ रही है। चीन ब्रूनेई के अलावा अन्य सदस्य देशों के लिए आयात का प्रमुख स्रोत भी है। इस अवधि में चीन से आयात में वृद्धि वियतनाम, मलेशिया, भारत और इंडोनेशिया के लिए सबसे अधिक है।
ऐसे में उभरते रुझान यही बताते हैं कि व्यापार भागीदारी वाले देशों के बीच आयात की प्रतिस्थापन क्षमता की गुंजाइश अत्यधिक सीमित है। वैकल्पिक उत्पादन केंद्रों में परिवर्तन से आमतौर पर चीन के साथ परोक्ष आपूर्ति श्रृंखला एकीकरण में तेजी आती है।
ऐसे में आईपीईएफ आपूर्ति श्रृंखला समझौता जो अनिवार्यत: स्वैच्छिक तालमेल और मशविरे की व्यवस्था पर आधारित है, उसके आपूर्ति श्रृंखला में विविधता लाने और उसे लचीला बनाने के क्षेत्र में बहुत आगे जाने की आशा नहीं है।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)