भारत की रक्षा तैयारी में एक बड़ी कमी है भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के लड़ाकू विमानों की टुकड़ियों की। रक्षा मंत्रालय, वायु सेना और हवाईशक्ति के विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को लड़ाकू विमानों की 42.5 टुकड़ियों की आवश्यकता है। इनमें लड़ाकू विमान, बॉम्बर और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध लड़ने में सक्षम विमान शामिल हैं। 10-12 लड़ाकू टुकड़ियों की कमी को लेकर हमने मुखर तौर पर निराशा के स्वर सुने हैं।
एक टुकड़ी में 21 विमानों के हिसाब से यह कमी 210-252 विमानों की है। कई लोग दलील देंगे कि यह आंकड़ा भ्रामक है और समकालीन लड़ाकू विमानों की बेहतर क्षमताएं इस कमी को दूर करती हैं। इस दलील में चाहे जितना दम हो यह बात स्पष्ट है कि वायु सेना कई क्षेत्रों में मुश्किलों में है। दुर्घटनाओं की दर असामान्य रूप से ऊंचे स्तर पर है जिसके चलते उसके विमानों की संख्या और कुशल विमान चालक दोनों की तादाद कम हुई है।
संसद में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में रक्षा मंत्रालय समय-समय पर वायु सेना की दुर्घटनाओं के आंकड़े पेश करता रहता है। बहरहाल निजी तौर पर संचालित होने वाली भारत रक्षक वेबसाइट पर अधिक व्यापक सारणी मौजूद है। वह प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आने वाली दुर्घटना संबंधी सूचनाओं को एकत्रित करती है जो प्राय: सटीक होती हैं।
इस आलेख में हम सन 1952 से 2021 तक की 70 वर्ष की अवधि में घटी दुर्घटनाओं का आकलन करेंगे जिन्हें आगे दशक के हिसाब से सात हिस्सों में बांटा गया है। इन सात दशकों में वायु सेना के 2,374 विमान दुर्घटनाग्रस्त हुए। इनमें 1,126 लड़ाकू और 1,248 विमान गैर लड़़ाकू श्रेणी के थे। इसके अलावा 229 प्रशिक्षक और 196 हेलीकॉप्टर भी दुर्घटनाग्रस्त हुए। ऐसी हर दुर्घटना में वायु सेना को करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ।
जितने लड़ाकू विमानों का नुकसान हुआ उनसे 50 टुकड़ियां तैयार हो सकती थीं। इनमें से कुछ विमान और विमान चालक सन 1947-48, 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ जंग में नष्ट हुए। थोड़ा नुकसान 1999 में करगिल में भी हुआ। सन 1962 में चीन के साथ जंग में वायु सेना ने जंगी उड़ानें नहीं भरीं। सन 1965 की जंग में हमारे 59 विमान जमीन पर ही नष्ट हो गए। इनमें से अनेक पठानकोट और कलईकुंडा में पाकिस्तानी वायु सेना के हमलों में नष्ट हुए।
इसे भारतीय खुफिया एजेंसियों और तैयारी की भारी चूक माना जाता है। वायु सेना का अपना इतिहास कहता है कि सन 1965 में उसे पाकिस्तानी वायु सेना की तुलना में बहुत अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा था। एक तथ्य यह भी है कि उस वक्त भारतीय वायु सेना पुराने विमान उड़ा रही थी जबकि पाकिस्तान के पास आधुनिक अमेरिकी लड़ाकू विमान थे।
1971 में अधिक अनुभवी वायु सेना ने बेहतर प्रदर्शन किया। कुल मिलाकर वायु सेना के पूरे नुकसान में केवल 143 विमान युद्ध में गंवाए गए। करीब दो दशक पहले वायु सेना दुर्घटनाओं को नियंत्रण में लाने में कामयाब हो सकी। परंतु सवाल यह है कि पांच दशक तक इतने विमानों के नुकसान और इतने विमान चालकों की मौत को कैसे समझाया जा सकता है?
सवाल यह भी है कि शांतिकाल में होने वाला नुकसान लड़ाकू टुकड़ियों में कमी के लिए किस हद तक जिम्मेदार है? इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना चाहिए क्योंकि न केवल लड़ाकू विमानों की लागत बहुत अधिक होती है बल्कि लड़ाकू विमान चालकों के प्रशिक्षण पर भी बहुत अधिक व्यय होता है। हालांकि सन 1990 के पूरे दशक में लगभग हर महीने में औसतन दो विमान और एक विमान चालक की जान गंवानी पड़ी।
लोक लेखा समिति द्वारा तैयार एक अंकेक्षण रिपोर्ट, ‘एयरक्राफ्ट एक्सिडेंट्स इन द इंडियन एयर फोर्स 2002’ में कहा गया कि सन 1991 से 1997 के बीच प्रति 10,000 घंटों की उड़ान के अनुपात में वायु सेना की दुर्घटना दर 0.89 से 1.52 के बीच रही। लड़ाकू विमानों के मामले में यह 1.89 से 3.53 के बीच रहा जबकि मिग-21 के मामले में यह 2.29 और 3.99 के दरमियान रहा। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो 1990 के दशक में अमेरिकी वायु सेना की दुर्घटना दर 0.29, 2000 के दशक में 0.15 और 2010 से 2018 के बीच 0.1 रही।
संसद में सन 1982 में हुई एक बहस में यह चिंता नजर आती है कि वायु सेना ने उससे पहले के दो वर्षों में दुर्घटनाओं में करीब उतने ही विमान खो दिए जितने कि उसने 1971 की पूरी जंग में गंवाए थे। तब से समय-समय पर कई समितियों ने इस विषय का परीक्षण किया है। दुर्घटनाओं के लिए मोटे तौर पर मानव गलती, तकनीकी त्रुटि और खराब मौसम तथा चिड़ियों के टकराने जैसी प्राकृतिक घटनाओं को वजह माना गया।
तकनीकी खामियों में खराब रखरखाव और कलपुर्जों की अनुपलब्धता वजह रही। खासतौर पर सोवियत संघ के पतन के बाद मिग विमानों के कलपुर्जों की कमी रही। परंतु दुर्घटनाओं की एक वजह मिग-21 जैसे पुराने विमानों को उड़ाना जारी रखना भी रही जिन्हें पहले ही उड़न ताबूत जैसा नाम दिया जा चुका था। उन वर्षों में भी यह स्पष्ट था कि वायु सेना के विमानों की आधी दुर्घटनाएं मानव गलती से होती थीं। रिपोर्ट बताती हैं कि वायुसेना के पायलट जिन एचपीटी-32 स्टेज-1 प्रशिक्षण विमानों पर उड़ान भरना सीखते थे उन्हें उन्नत बनाने के प्रयास भी नहीं किए गए।
सन 1980 और 1990 के दशक में भारी संख्या में प्रशिक्षु विमान दुर्घटनग्रस्त हुए और बड़ी तादाद में प्रशिक्षकों और प्रशिक्षुओं को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। 23 साल में 17 दुर्घटनाओं में 19 पायलटों की जान गंवाने के बाद ही वायु सेना ने एचपीटी-32 विमानों का प्रशिक्षण में इस्तेमाल बंद किया।
हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड ने एक प्रशिक्षण विमान बनाने की कोशिश की जिसे हिंदुस्तान टर्बो ट्रेनर 40 (एचटीटी-40) का नाम दिया गया लेकिन वायु सेना ने स्विस पाइलटस पीसी-7 मार्क-2 की हिमायत में बहुत समय गंवा दिया। 2013 में पाइलटस पीसी-7 मार्क 2 विमानों को पहले दर्जे के प्रशिक्षण के लिए शामिल करने के पहले तीन दशक में 229 प्रशिक्षु विमान दुर्घटनाग्रस्त हो चुके थे। आखिरकार हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड के एचटीटी-40 को मंजूरी दी गई।
इन बातों के बीच एक जांच समिति ने पाया कि मिग-21 विमानों की दुर्घटना की प्रमुख वजह उन्नत जेट प्रशिक्षण विमानों की अनुपलब्धता थी। ऐसे विमान पायलट को धीरे-धीरे प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए आगे बढ़ने में मदद करते ताकि वह आगे चलकर तीसरी श्रेणी का उन्नत प्रशिक्षण हासिल कर सके और फिर तेज गति से उड़ने वाले मिग-21 को उड़ा सकते। इसके बावजूद ब्रिटिश निर्मित हॉक उन्नत विमानों को तीसरी श्रेणी के प्रशिक्षण के लिए लाने में चौथाई सदी का वक्त लग गया।
इसके आगमन के बाद दुर्घटनाओं में कमी आई, हालांकि ऐसा पुराने मिग-21 विमानों का इस्तेमाल बंद करने से भी हुआ। अब जबकि वायु सेना एक नए युग में प्रवेश कर रही है और जहां सोवियत युग के एक इंजन वाले विमानों की जगह तेजी से दो इंजन वाले पश्चिमी विमान ले रहे हैं तो यह देखना होगा कि लड़ाकू विमान और विमान चालकों की किस हद तक रक्षा हो पाती है। भारत-पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में बात करें तो हवाई युद्ध काफी नुकसानदेह रहा है।