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पाकिस्तान का मसला उसी पर छोड़ देना बेहतर

पाकिस्तान को इस समय उदार आर्थिक सहायता की आवश्यकता है। लेकिन भारत को उसके मामले में दूर ही रहना चाहिए।

Last Updated- January 22, 2023 | 10:02 PM IST
shahbaz sharif
Shutter Stock

पिछले सप्ताह पाकिस्तान वह करने में सफल रहा जिसमें उसे कुछ समय से नाकामी हाथ लग रही थी। वह सकारात्मक और शांतिपूर्ण इरादों का प्रदर्शन करके भारत में सुर्खियां जुटाने में कामयाब रहा। इसका कारण क्या है? इसको तीन तरह से व्याख्यायित किया जा सकता है। इसके साथ ही हम उन तीन दलीलों पर भी बात करेंगे जिनमें कहा गया है कि भारत को इन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए।

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने टीवी चैनल अल अरबिया से कहा कि पाकिस्तान ने भारत से तीन युद्ध लड़कर सबक सीख लिए हैं और अब वह शांति चाहता है। इससे कुछ ही दिन पहले पाकिस्तानी वायुसेना के एक सेवानिवृत्त वाइस मार्शल शहजाद चौधरी ने भी भारत के साथ शांति स्थापना की जोरदार अपील की थी। इस बात को हल्के लेकर खारिज नहीं किया गया क्योंकि वह सत्ता प्रतिष्ठान और ताकतवर इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) से आते हैं।

पहले हिस्से को समझना आसान है। पाकिस्तान को तीन चीजों की सख्त जरूरत है: नीतिगत अल्प विश्राम, उदार वित्तीय सहायता और सबसे अधिक प्रासंगिकता। सन 1950 से ही पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति उसकी सबसे बड़ी ताकत रही है। जब तक शीतयुद्ध चल रहा था वह प्रासंगिक था क्योंकि वह अफगानिस्तान के बगल में था जो कि सोवियत संघ का बफर स्टेट था। वहीं भारत को सोवियत संघ का करीबी माना जाता था।

सोवियत संघ की पराजय के बाद ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान को ठिकाना बना लिया और पाकिस्तान की भू-रणनीतिक महत्ता बनी रही। माना जा रहा था कि मुजाहिदीन की मदद से उस पर पाकिस्तान का नियंत्रण रहेगा। यह पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा रहा। उसे अरबों डॉलर की मदद मिली, हथियार मिले और कूटनयिक समर्थन भी हासिल हुआ।

इसमें कश्मीर के मसले पर भारत के दावे को लेकर पश्चिम का अस्पष्ट रुख भी शामिल था। लेकिन पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान ने अफगानिस्तान में अपनी गतिविधियों के लिए जिस इस्लाम का इस्तेमाल किया वह उनके यहां भी गहरे तक घर कर गया। यही कारण है कि उन्होंने अफगानिस्तान में अमेरिकियों के खिलाफ जंग में कथित जीत हासिल कर सोने के अंडे देने वाली अपनी मुर्गी को ही मार दिया।

इमरान खान ने इसे आजादी करार दिया और आईएसआई प्रमुख फैज हामिद समेत सत्ता प्रतिष्ठान के अनेक लोगों ने इसे इस्लाम की जीत बताते हुए इसका जश्न मनाया। परंतु अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलते ही पाकिस्तान अपनी सामरिक पूंजी गंवा बैठा। पाकिस्तान के पास अपनी नीतिगत बिसात पर कम ही गोटियां शेष हैं। जब तक वह कोई नई योजना नहीं तलाश लेता उसे थोड़ा वक्त चाहिए। भारत के साथ बातचीत उसी मोहलत का हिस्सा है।

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिवालिया हो चुकी है। उसकी हालत श्रीलंका जैसी केवल इसलिए नहीं नजर आती क्योंकि असली श्रीलंका भी करीब ही है। पाकिस्तान को यकीन है कि खाड़ी के अरब देश दुनिया के सबसे बड़े सुन्नी देशों में से एक और इकलौती परमाणु हथियार संपन्न शक्ति को यूं ही नहीं छोड़ देंगे। लेकिन यह मदद भी अब सशर्त है।

इनमें से एक तो यही है कि उसे भारत के साथ जबरन गड़बड़ियों से बाज आना चाहिए। किसी के पास इतना धैर्य नहीं है कि वह भारत के साथ लगी सीमा पर दुस्साहस को झेले। इसके अलावा उन्हीं मुस्लिम देशों के भारत के साथ कहीं अधिक गहरे आर्थिक और रणनीतिक रिश्ते हैं। पाकिस्तान के लिए यह जरूरी है कि वह अपने दानदाताओं को यकीन दिलाए कि वह बदल गया है और भारत के साथ सामान्य रिश्तों को लेकर गंभीर है।

पाकिस्तान इसलिए प्रासंगिकता खो चुका है कि उसे अब पहले जैसा भू-रणनीतिक लाभ हासिल नहीं है। हालांकि बात केवल इतनी ही नहीं है। उसकी प्रासंगिकता इसलिए भी है कि वह केवल भारत नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए निरंतर सरदर्द बना हुआ है कि पता नहीं वह कब परमाणु युद्ध छेड़ दे। यही वजह है कि दिवंगत विद्वान स्टीफन कोहेन कहा करते थे कि पाकिस्तान अपने सर पर बंदूक तानकर दुनिया के साथ मोलभाव करता है और कहता है: मुझे जो चाहिए वह मुझे दे दो वरना मैं घोड़ा दबा सकता हूं। उसके बाद क्या आप गंदगी साफ करने को तैयार हो?

इसके लिए भारत के साथ हल्का-फुल्का विवाद जारी रखा गया जिसे जरूरत के मुताबिक धीमे या तेज किया जा सकता है। जब तक भारत प्रतिकार नहीं कर रहा था तब तक सब ठीक था। उड़ी में सीमा पार करके किए गए हमले और बालाकोट में हुई बमबारी के बाद नियम बदल गए। एक बार जब भारत ने दिखाया कि वह प्रतिरोध कर सकता है और परमाणु हमले की आशंका के बावजूद चढ़ाई करने से डरता नहीं है तो पाकिस्तान का झांसा कमजोर पड़ गया। ऐसे में पाकिस्तान को लगा कि शायद भारत से बातचीत करके वह अपनी प्रासंगिकता कुछ हद तक वापस पा सकता है।

भारत को पाकिस्तान की इन बातों पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं देनी चाहिए इसकी पर्याप्त वजह मौजूद हैं। लेकिन इससे अहम कुछ नहीं है कि यह पाकिस्तान के लिए अच्छा नहीं होगा। इससे पाकिस्तान और उसके लोगों को नुकसान होगा। ऐसी कोई बात जो पाकिस्तान को राहत और रणनीतिक प्रासंगिकता वापस दे वह भारत के लिए नकारात्मक होगी। वह पाकिस्तान के लिए ज्यादा बुरा होगा। क्योंकि इससे पाकिस्तान की सत्ता के मन में यह भाव बढ़ेगा कि वे बहुत चतुर लोग हैं और मुश्किलों से अपनी राह निकाल सकते हैं।

अगर उन्हें राहत मिल भी गई तो एक बार फिर ऐसा ही संकट आ जाएगा। आखिरकार इसकी कीमत लोगों को चुकानी होती है। आटे के लिए ट्रकों के पीछे भागते लोगों के वीडियो देखिए। यह उस आबादी का हाल है जो 1985 तक प्रति व्यक्ति जीडीपी में भारत से दो-तिहाई अमीर था। मैंने यह संदर्भ इसलिए चुना कि लगभग उसी समय पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ आतंक को हथियार बनाया। आज वह हमसे 25 फीसदी पीछे है और अंतर बढ़ता ही जा रहा है। भारत का जीडीपी पाकिस्तान की तुलना में दोगुनी तेजी से बढ़ रहा है और हमारी आबादी पाकिस्तान की तुलना में आधी गति से बढ़ रही है।

पाकिस्तान को तब तक सांस लेने या अपनी प्रासंगिकता जताने का अवसर न दें जब तक इस बात के ठोस प्रमाण न हों कि उसकी प्रकृति बदल गई है। इकलौती बात जो पाकिस्तान में बदलाव ला सकती है वह है उसकी खस्ता आर्थिक स्थिति और लोगों के कष्ट। लेकिन फिलहाल तो निष्ठुर रहना ही बेहतर है।

आखिरकार हालात में सुधार की मांग तो पाकिस्तानी जनता की ओर से ही आएगी। इमरान खान की बढ़ती लोकप्रियता साबित करती है कि वह ऐसी कोई मांग नहीं कर रही है।
यह बात हमें अगले कारण की ओर ले आती है कि कोई प्रतिक्रिया न देना ही क्यों श्रेष्ठ प्रतिक्रिया देना है? शहबाज शरीफ के पास वैसा ही धोखादेह बहुमत है जैसा इमरान खान के पास था और उन्हीं लोगों का है जिनका इमरान को था लेकिन उनके पास इमरान की तरह सड़कों पर समर्थन नहीं है। वह इस्लाम, अतिराष्ट्रवाद और बहुरूपी लोकलुभावनबाद के घोड़ों पर सवार हैं।

शहबाज शरीफ की मौजूदा पहल उतनी ही बेमानी है जितनी कि इंद्र कुमार गुजराल की वे पहलें जो उन्होंने वीपी सिंह की सरकार में विदेश मंत्री रहते या प्रधानमंत्री रहते की थीं। भारत को तब तक प्रतीक्षा करनी चाहिए जब तक पाकिस्तान में सत्ता संघर्ष थम नहीं जाता। आप सवाल कर सकते हैं कि अगर सेना ही पाकिस्तान में अंतिम निर्णय लेती है और उसने इमरान को हटाया तो फिर शरीफ की सरकार क्यों बनी और बनी तो उसे गंभीरता से क्यों न लें?

अगर आप पाकिस्तान की राजनीति पर करीबी नजर डालें तो पाएंगे कि पाकिस्तानी सेना में भी संघर्ष की स्थिति है। यह संघर्ष आधुनिकीकरण के हिमायतियों और जिहादी समर्थकों में है। जनरल कमर जावेद बाजवा ने इसके बीच अपनी राह बनाई लेकिन मामला अभी हल नहीं हुआ है।

पाकिस्तान के पास भारत के साथ शांति स्थापना के अनेक अवसर थे। 2001 में मुशर्रफ की आगरा यात्रा इसका उदाहरण है लेकिन वह ऐसे आए जैसे कोई विजेता जनरल पराजित देश में आया हो। 2003-04 और 2007-08 तक यह क्रम बना हुआ था लेकिन 26/11 के हमले ने इसे आगे के लिए नष्ट कर दिया। जब सबकुछ ठीक था तब 26/11 करने की क्या जरूरत थी? इसके लिए पाकिस्तानी सेना और आईएसआई में छिपे जिहादी और चरम राष्ट्रवादी तत्त्व जिम्मेदार थे। क्या कोई गारंटी देगा कि दोबारा ऐसा नहीं होगा? अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया जाए।

First Published - January 22, 2023 | 10:02 PM IST

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