मार्च के अंतिम सप्ताह में मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने कहा कि सरकार सभी सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को हल नहीं कर सकती है। उन्होंने इसके लिए बेरोजगारी का उदाहरण दिया। उन्होंने चकित करते हुए कहा कि सरकार बेरोजगारी के मोर्चे पर और लोगों को काम पर रखने के अलावा कर ही क्या सकती है? उन्होंने कहा, ‘सामान्य तौर पर रोजगार देने का काम वाणिज्यिक क्षेत्र करता है।’
दिसंबर तिमाही में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 8 फीसदी बढ़ा जबकि स्नातकों में बेरोजगारी की दर 40 फीसदी से अधिक है। रोजगारविहीन वृद्धि कोई नया विचार नहीं है। बीते 25 वर्षों में हर सरकार इससे जूझती रही है और इसमें दो कांग्रेसनीत गठबंधन सरकारें शामिल रही हैं। मुझे याद है कि पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार शंकर आचार्य ने इसी समाचार पत्र में अपने स्तंभ में कहा था कि सन 2000 के दशक के मध्य में भी मजबूत वृद्धि के बावजूद रोजगार में इजाफा नहीं हुआ था।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में मंत्रियों और अफसरशाहों की टीम थी। सरकार और उसके बाहर के बेहतरीन मस्तिष्क वाले लोगों ने कई योजनाएं तैयार कीं जिनमें रोजगार गारंटी योजना भी शामिल है। परंतु इसका कोई खास लाभ नहीं हुआ। बेरोजगारी ऊंचे स्तर पर बनी रही। मोदी सरकार ने भी कई नीतियां पेश कीं लेकिन बेरोजगारी बनी रही। 2013-14 में जब नरेंद्र मोदी सत्ता पाने के लिए प्रचार अभियान चला रहे थे तो वह अक्सर अपनी चुनावी रैलियों में युवाओं से कहते थे, ‘आपको नौकरी चाहिए कि नहीं चाहिए?’
नवंबर 2013 में अपने आरंभिक चुनावी भाषणों में से एक में उन्होंने कहा था कि अगर वह सत्ता में आए तो हर साल एक करोड़ युवाओं को रोजगार देंगे। जनवरी 2018 में जब ज़ी टीवी ने उनसे इस वादे के बारे में पूछा तो मोदी ने कहा कि सड़क पर पकोड़े बेचने वालों को भी रोजगारशुदा लोगों में गिना जाना चाहिए और इस प्रकार देश में बेरोजगारों की संख्या काफी कम है। उनकी इस बात काफी मजाक उड़ाया गया जबकि उनके समर्थकों ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने उद्यमिता को लेकर सही टिप्पणी की है।
सरकार के लिए रोजगार तैयार करना इतना मुश्किल क्यों है? इसकी एक वजह तो वही है जो नागेश्वरन ने कही, ‘कारोबारी क्षेत्र को लोगों को काम पर रखना चाहिए।’ लेकिन तब क्या उन्हें खुद से या वाणिज्यिक क्षेत्र से यह नहीं पूछना चाहिए कि वह अधिक रोजगार क्यों नहीं तैयार कर रहा? कारोबारी केवल किसी को काम देने के लिए काम नहीं देते। वे जरूरत पड़ने पर लोगों को काम पर रखते हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि नेता, बाबू और रोजगार तलाशने वाले मशीनों के बजाय लोगों को काम पर रखने के ही हामी हैं। विनिर्माण और भवन निर्माण के कई काम अब मशीन से होते हैं और कारोबार के लिए यही उपयुक्त है। मनुष्यों को कौशल और बेहतर प्रबंधन की जरूरत होती है तथा किसी के काम छोड़ने पर नए लोगों की जरूरत होती है। यह चुनौतीपूर्ण है लेकिन श्रम आधारित क्षेत्रों मसलन कपड़ा और सेवा क्षेत्र के लिए जरूरी भी है।
निश्चित तौर पर यात्रा, परिवहन, स्वागत, स्वास्थ्य सेवा, सॉफ्टवेयर विकास, रखरखाव और मरम्मत, डिजाइन, फाइनैंस और मार्केटिंग के क्षेत्र में कुशल कर्मचारियों की कमी है। इन क्षेत्रों में कुशल लोगों के लिए रोजगार की कमी नहीं। ऐसे में क्या सरकारी नीतियां कारोबारियों को अधिक लोगों को काम पर रखने के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं? यकीनन कर सकती हैं।
यह बात हमें रोजगार रहित वृद्धि की दूसरी वजह की ओर ले आती है: 2014 के चुनाव के पहले मोदी ने रोजगार का वादा किया था लेकिन छह साल तक उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। 2014 और 2020 के बीच उनकी पहलें सामाजिक क्षेत्र में रहीं। मसलन: स्वच्छ भारत, जन धन, डिजिटल इंडिया, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सुरक्षा बीमा, जीवन ज्योति बीमा, अटल पेंशन, सॉइल हेल्थ कार्ड आदि।
इस अवधि की आर्थिक नीतियां मसलन मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, मुद्रा ऋण और स्टार्टअप इंडिया में नारेबाजी अधिक थी और रोजगार निर्माण पर इसका कोई खास असर नहीं हुआ। नोटबंदी एक तुगलकी योजना थी जिसने छोटे कारोबारों और रोजगारों को नष्ट कर दिया।
आश्चर्य नहीं कि भारत की जीडीपी वृद्धि कोविड-19 के पहले गिरकर 5 फीसदी तक आ चुकी थी। ऐसा तब था जबकि जीडीपी के आकलन का तरीका बदलकर आंकड़ों में 1.5 से दो फीसदी तक का इजाफा कर दिया गया था। अर्थव्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ा। हड़बड़ाहट में आकर सरकार ने 20 सितंबर, 2019 में कॉर्पोरेट कर की दरों में नाटकीय कटौती की ताकि कारोबारी अधिक निवेश करें और रोजगार दें। यह कोशिश नाकाम रही क्योंकि कारोबारियों ने रुचि नहीं दिखाई।
बहरहाल, कोविड के बाद के दौर में जीडीपी वृद्धि में इजाफा हुआ और राजस्व में बढ़ोतरी हुई। सरकार के पास नई महत्त्वाकांक्षी नीतियां तैयार करने का अवसर था। इस बार उसने विकास योजनाओं पर जोर दिया और कई दिशाओं में एक साथ पहल कीं। इससे पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया था।
सरकार ने कोविड-19 के दौरान उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना की शुरुआत की। उसके बाद रक्षा उत्पादन और निर्यात नीति तथा रेलवे के आधुनिकीकरण की शुरुआत की गई। 2023-24 के बजट में सरकार ने अधोसंरचना के लिए 10 लाख करोड़ रुपये की असाधारण राशि आवंटित की।
रेलवे, रक्षा उत्पादन, सड़क-परिवहन, शहरी अधोसंरचना, पानी, बिजली आदि क्षेत्रों में क्रियान्वयन नजर आ रहा है। भारतीय वन अधिनियम में नुकसानदेह बदलाव तक किए गए ताकि कथित विकास के मार्ग की बाधा दूर की जा सके। यकीनन इससे रोजगार बढ़ेगा। अगर सरकार चाहती है कि कारोबारी क्षेत्र रोजगार दे तो उसे कारोबारी सुगमता की लागत कम करनी होगी और चीन से सस्ते माल की आवक रोकनी होगी। सात साल पहले रोजगार निर्माण के मसले पर लिखते हुए मैंने कहा था कि सरकारों ने कारोबारियों का जीवन मुश्किल किया है।
प्रधानमंत्री कार्यालय में ऐसी टीम हो सकती है जिसका इकलौता काम कारोबारियों के मन की बात सुनना हो कि आखिर क्यों उनकी लागत अधिक है और कारोबारी सुगमता मुश्किल। बार-बार सामने आने वाली समस्याओं को समाप्त किया जाना चाहिए। इसके लिए राज्यों के साथ तालमेल में काम करना होगा। उक्त टीम कुछ श्रम आधारित परियोजनाओं की निगरानी करके गतिरोध का पता लगा सकती है और बदलाव सुझा सकती है। शायद हमें मोदी के बतौर प्रधानमंत्री तीसरे कार्यकाल में ऐसा देखने को मिले।
आखिरकार वह सामाजिक योजनाओं से विकास परियोजनाओं की फंडिंग तक का सफर तय कर चुके हैं। केंद्र से लेकर तालुका स्तर पर भ्रष्ट और विनाशकारी नीतियों से रोजगार निर्माताओं को आजाद करना तीसरा और अंतिम कदम है जिसकी आवश्यकता है।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)