आम चुनाव अब अपने अंतिम चरणों की तरफ बढ़ रहा है और इसी बीच यह कहा जाने लगा है कि मोदी 3.0 (मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल) के लिए कार्य योजनाएं भी तैयार हो गई हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं उसके समर्थकों को लग रहा है कि नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में देश को एक नई दिशा दे देंगे। परंतु, मैं कहूंगा कि देश ‘मोदी 1.5’ में हैं क्योंकि पिछले 10 वर्षों के दौरान एक के बाद एक निष्प्रभावी नीतियों, कमजोर कामकाज और कम से एक बिना सोचे-समझे उठाए गए कदम ने अर्थव्यवस्था पर तगड़ी चोट की है।
पहले सात वर्षों में सरकार बहुचर्चित विकास ढांचे की एक झलक दिखाने में भी संघर्ष कर रही थी। इसका दोष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार की नीतियों को भी दिया जा सकता है मगर मोदी का पहला पूरा कार्यकाल और दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष दोषपूर्ण, अनर्गल और बेकार नीतियों की भेंट चढ़ गए जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव बढ़ा गया। केवल पिछले तीन वर्षों में अर्थव्यवस्था मोदी 1.0 से बाहर निकल कर ‘मोदी 1.5’ में आ पाई है।
अर्थव्यवस्था कई कारणों से सुस्त हुई जिनमें एक के लिए तो स्वयं सरकार जिम्मेदार थी। यह निर्णय नोटबंदी से जुड़ा था जिसमें सरकार ने अधिकांश मुद्राओं को चलन से बाहर कर दिया था। यह मोदी के कार्यकाल का सबसे निचला स्तर था। नोटबंदी के अचानक निर्णय से अर्थतंत्र में उथलपुथल मच गई, लोगों की नौकरियां छिन गईं और कई कारोबार बरबाद हो गए। नोटबंदी के निर्णय ने देश की अर्थव्यवस्था को गहरे सदमे में डाल दिया।
वर्ष 2019 आते-आते नोटबंदी, आनन फानन में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने, कमजोर क्रय शक्ति और पूंजीगत व्यय में कमी आदि कारणों से देश की अर्थव्यवस्था बीच मझधार में आ गई। अक्सर कहा जाता है कि जनता जनार्दन को पिछली घटनाएं अधिक समय तक याद नहीं रहती है जिसका फायदा राजनीतिज्ञ उठा ले जाते हैं।
खैर, ये 2019 के मध्य के हालात थे। कमजोर निर्यात, कर का भारी भरकम बोझ (यह बात मोदी समर्थक भी स्वीकार कर रहे थे), सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट, वृद्धि दर का 5 प्रतिशत से नीचे सरकना (पुरानी विधि के तहत 3.5 प्रतिशत), वाहन बिक्री 20 वर्षों के निचले स्तर पर आना, विनिर्माण उद्योग में कमजोरी, बेरोजगारी 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंचने आदि कारणों से हालात विकट लग रहे थे। प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए सरकार ने सितंबर 2019 में उद्योग को रफ्तार देने के लिए करों में कटौती करने की घोषणा कर दी। मगर इस कदम से कुछ हासिल नहीं हुआ। कंपनियां केवल इसलिए निवेश नहीं करती हैं कि उनके पास पर्याप्त पूंजी है। वे मांग की स्थिति पर भी विचार करती हैं।
कोविड-19 महामारी देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक और बड़ा झटका साबित हुई। सरकार ने भारी भरकम पूंजीगत व्यय के माध्यम से आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने का प्रयास शुरू कर दिया। मगर आश्चर्य की बात है कि मोदी चुनावी सभाओं में इसका श्रेय नहीं ले रहे हैं। सरकार ने रक्षा उत्पादन बढ़ाने और शहरी बुनियादी ढांचा, रेलवे, नवीकरणीय ऊर्जा, परिवहन, जल आपूर्ति आदि पर भारी रकम खर्च की है।
वित्त वर्ष 2014 में सरकार का पूंजीगत व्यय कुल व्यय का मात्र 14 प्रतिशत था, जो वित्त वर्ष 2024 में बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया। सरकार ने स्थानीय स्तर पर विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए 14 क्षेत्रों के लिए उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) की भी शुरुआत की है, मगर इसके प्रभावों के बारे में फिलहाल कुछ कहना जल्दबाजी होगी।
अर्थव्यवस्था और शेयर बाजार को इससे जरूर फायदा मिला है मगर इस तरह का व्यय दीर्घ अवधि तक जारी रहना जरूरी है। इसका कारण यह है कि आर्थिक वृद्धि को गति देने में निजी क्षेत्र द्वारा प्रभावी भूमिका निभाने की राह में फिलहाल कई संरचनात्मक बाधाएं हैं। यहां हालात थोड़े फंसे नजर आ रहे हैं। क्या भारत सरकार के लिए इतना भारी भरकम पूंजीगत व्यय जारी रखना मुमकिन है? भारत का ऋण एवं जीडीपी अनुपात 82 प्रतिशत है जो पहले ही काफी अधिक है। छोटा-मोटा संकट भी ब्याज दर बढ़ा देगा और रुपये को कमजोर कर देगा।
इतना ही नहीं, यह सरकार की राजकोषीय स्थिति को कमजोर करने के साथ देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में सहायक सरकारी व्यय की रफ्तार भी कम कर देगा। क्या निजी क्षेत्र को दीर्घ अवधि तक लगातार ऊंची वृद्धि दर बरकरार रखने में भूमिका निभाने के लिए कोई संरचनात्मक सुधार हुए हैं? बिल्कुल नहीं। भारत को कुछ कड़े सुधारों की जरूरत है।
इनमें कारोबार करने की राह में आने वाली दिक्कतों को दूर करना, मंजूरी में लगने वाला समय करना, बिजली, टोल एवं ईंधन पर आने वाली लागत कम करना और श्रम उत्पादकता में सुधार करना शामिल है। भारत इस समय दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां श्रम उत्पादकता सबसे कम है। उनके साथ ही दूसरे सुधार (सॉफ्ट रिफॉर्म्स) जैसे पारदर्शी एवं त्वरित न्याय प्रणाली और भ्रष्टाचार का खात्मा आदि पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है। मगर सरकार ने अब तक इनमें किसी भी क्षेत्र में कोई खास काम नहीं किया है।
भाजपा ने केवल ‘विकास’ करने का ही वादा नहीं किया था। 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले मोदी संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ जमकर बोल रहे थे। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी की घोषणा की थी मगर यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए हादसा साबित हुई।
मगर आश्चर्य की बात यह है कि वित्तीय क्षेत्र के विशेषज भी नोटबंदी के पीछे दिए गए सरकार के तर्क को स्वीकार कर रहे हैं। मगर अब मोदी के प्रशंसक भी यह दावा नहीं कर सकते कि भ्रष्टाचार और काले धन पर अंकुश लगा है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा ने खराब छवि वाले कई लोगों को पार्टी में जगह दी है। भाजपा में शामिल होने के बाद इनमें कई नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप वापस ले लिए गए।
मोदी ने जिस पार्टी का नाम ‘नैशनल करप्शन पार्टी’ रख दिया था अब वह भाजपा की सहयोगी बन गई है। कई अर्थशास्त्रियों को नहीं लगता कि भ्रष्टाचार आर्थिक विकास की राह में कोई बड़ी बाधा है। मगर भ्रष्टाचार बढ़ने से अनैतिक आर्थिक प्रोत्साहन मिलते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि अर्थव्यवस्था में लागत बढ़ जाती है, उद्यमों को नुकसान पहुंचता है और बाद में इसका असर महंगाई, कमजोर मुद्रा, ऊंची ब्याज दर और खपत में कमी के रूप में दिखता है।
भ्रष्टाचार की तरह ही ‘मोदी 1.0’ के तहत अर्थव्यवस्था के सभी पहलू ‘मोदी 1.5’ के अंतर्गत वैसे ही रहे और इस बीच आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने कर बढ़ाकर प्राप्त रकम का इस्तेमाल व्यय बढ़ाने के लिए किया। अगर ये संरचनात्मक मुद्दे (भ्रष्टाचार सहित) सुलझाए जाते हैं तो हम इसे ‘मोदी 3.0’ का नाम दे सकते हैं। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि कम से कम देश के हित के लिए मोदी इन मुद्दों पर ध्यान देंगे।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)