वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में सुधारों के अगले चरण को लेकर काफी उम्मीदें की जा रही हैं। ऐसी जानकारी आ रही है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने जीएसटी में बदलाव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है। अब जीएसटी परिषद में इस पर चर्चा होने के साथ ही निर्णय लिए जाएंगे। यह वास्तव में राजस्व से जुड़ी बातों पर ध्यान केंद्रित करते हुए संभावित सुधारों के विकल्पों और उनके प्रभावों का पता लगाने के लिए एक वैचारिक प्रयोग है।
सरकारें और करदाता एवं उपभोक्ता दोनों ही जीएसटी में इन सुधारों से प्रभावित होंगे। सरकारों के लिए, प्रभावी कर दर बढ़ाने की आवश्यकता हो सकती है। 11 फरवरी, 2025 को लोक सभा में एक प्रश्न के उत्तर में, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बताया था कि वर्ष 2023-24 के लिए औसत जीएसटी दर 11.64 फीसदी थी जबकि जीएसटी से पहले के दौर में यह 15.8 फीसदी थी। कम से कम, मौजूदा औसत दर और राजस्व के प्रदर्शन को बरकरार रखने की आवश्यकता है। वहीं दूसरी तरफ अपेक्षित तौर पर करदाताओं और उपभोक्ताओं की चिंताओं को देखते हुए कर दरों में कमी की वकालत पर जोर दिया जा सकता है।
इन चिंताओं के समाधान के लिए जीएसटी परिषद के पास दो उपाय हैंः कर की दरों की संख्या यानी कर स्लैब में कमी और क्षतिपूर्ति उपकर में बदलाव करना। जीएसटी लागू होने के बाद से ही कर स्लैब की संख्या कम करना हमेशा से ही जीएसटी सुधारों की चर्चा का एक हिस्सा रहा है। पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जीएसटी के तहत राजस्व की स्थिति स्थिर होने के बाद 12 और 18 फीसदी की ‘मानक दरों’ को एक ही दर में मिलाकर, दरों की संख्या कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। यह तर्क दिया जाता है कि कई कर दरें, वास्तव में अनुपालन लागत और प्रशासनिक लागत बढ़ाती हैं क्योंकि वे गलत वर्गीकरण के साथ-साथ उलटे शुल्क ढांचे की गुंजाइश बनाती हैं।
कर दरों की संख्या कम करने के संभावित विकल्पों की खोज करते समय विचार करने योग्य दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं: कर दरों के कारण बनी कर राजस्व की संरचना और मांग में उतार-चढ़ाव की संभावित समझ, यानी कर दरों में बदलाव के प्रति मांग की संवेदनशीलता। कीमतों में लचीलेपन से जुड़ी जानकारी आसानी से उपलब्ध नहीं होती, लेकिन कर राजस्व की संरचना पर कुछ जानकारी उपलब्ध है।
संसद में एक अन्य प्रश्न के उत्तर में, वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने बताया कि वर्ष 2023-24 में जीएसटी राजस्व संग्रह का लगभग 70-75 फीसदी हिस्सा 18 फीसदी वाले कर स्लैब से आया, जबकि केवल 5-6 फीसदी हिस्सा 12 फीसदी के कर स्लैब से आया। इसके अलावा, 5 फीसदी स्लैब से सिर्फ 6-8 फीसदी राजस्व आया और 28 फीसदी के उच्चतम कर स्लैब ने पिछले वित्त वर्ष में राजस्व में 13-15 फीसदी का योगदान दिया था।
इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 5 फीसदी और 12 फीसदी दोनों स्लैब, उच्च कर स्लैब की तुलना में कुल राजस्व में बहुत कम योगदान करते हैं। कर दरों में संशोधन करते समय, यदि इन स्लैब पर ध्यान रहा तो राजस्व जोखिम कम से कम हो सकता है। यदि लक्ष्य, कर स्लैब की संख्या कम करनी है तब 18 और 28 फीसदी स्लैब में बदलाव करना मददगार नहीं होगा।
ऐसे में कुछ इन विकल्पों पर विचार किया जा सकता है:
(क) 5 फीसदी और 12 फीसदी स्लैब का विलय कर एक 8 फीसदी स्लैब बनाया जा सकता है। चूंकि इन स्लैब का राजस्व में योगदान समान है ऐसे में राजस्व पर प्रभाव न्यूनतम हो सकता है।
(ख) अगर 12 फीसदी स्लैब को खत्म कर दिया जाता है तब कुछ वस्तुओं को कम दर पर लाया जा सकता है जबकि अन्य को उच्च दर पर ले जाया जा सकता है ताकि राजस्व तटस्थता बनाई रखी जाए।
(ग) 12 फीसदी स्लैब को समाप्त किया जा सकता है और इसकी सभी वस्तुओं को 5 फीसदी स्लैब के दायरे में ले जाया जा सकता है। इससे सरकारों को राजस्व का नुकसान होगा, जो जीएसटी के 5-6 फीसदी के बराबर होगा।
पहले और दूसरे विकल्पों में कुछ राजनीतिक-आर्थिक विचार सामने आ सकते हैं और उन क्षेत्रों से विरोध भी जताया जा सकता है जिनकी कर दरों में वृद्धि होती है। विकल्प ग, सरकारों की लागत बढ़ाता है लेकिन यह बात करदाता-उपभोक्ता समुदाय को स्वीकार्य होगी।
जीएसटी सुधार के लिए दूसरे घटक, उदाहरण के तौर पर क्षतिपूर्ति उपकर में बदलाव करते हुए कुछ पृष्ठभूमि की जानकारी ध्यान में रखी जा सकती है। यह उपकर जीएसटी व्यवस्था के तहत संग्रह किए गए कुल राजस्व में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। जीएसटी व्यवस्था में कोई भी सुधार, जिसमें उपकर को समाप्त करना शामिल है उससे राजस्व में कमी आएगी। इसका अर्थ है, वर्ष 2023-24 में 1.44 लाख करोड़ रुपये और वर्ष 2024-25 में 1.49 लाख करोड़ रुपये, या जीएसटी के तहत शुद्ध राजस्व के 7.6 फीसदी की कमी। पहले पांच वर्षों के लिए, राज्यों के ‘राजस्व घाटे’ को ध्यान में रखते हुए उपकर से हासिल राजस्व की व्यवस्था की गई थी। बाद के वर्षों में, इसका इस्तेमाल केंद्र सरकार को राजस्व हानि के लिए मुआवजे की प्रतिबद्धताओं को पूरा करने से जुड़े ऋणों की भरपाई के लिए हुआ। दूसरे शब्दों में, पिछले दो वर्षों में, न तो केंद्र और न ही राज्यों की मौजूदा व्यय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए राजस्व मिला है। इस संदर्भ को देखते हुए, यह तर्क दिया जा सकता है कि उपकर से मिला राजस्व या इसके बदलाव से मिलने वाला राजस्व, अतिरिक्त उपलब्ध राजस्व होगा। जीएसटी सुधार के ढांचे में इस धारणा को शामिल करने से विकल्पों का दायरा बढ़ सकता है।
क्षतिपूर्ति उपकर को जीएसटी की शीर्ष दरों में मिलाया जा सकता है। यह क्षतिपूर्ति उपकर, मुख्यतौर पर लक्जरी वस्तुओं व सेवाओं, प्रदूषण फैलाने वाले सामान और हानिकारक वस्तुओं पर लगता है। ऐसे में इन करों को बनाए रखना उचित और न्यायोचित माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों की राजस्व संग्रह में समान हिस्सेदारी होगी। उपकर से मिलने वाला राजस्व, 12 फीसदी के स्लैब से मिलने वाले राजस्व के बराबर है। ऐसे में ऊपर दिया गया विकल्प ग राजस्व के लिहाज से तटस्थ हो सकता है यानी इससे सरकारों के राजस्व को कोई नुकसान नहीं होगा। एक और विकल्प यह है कि उपकर को खत्म कर दिया जाए। इससे केंद्र और राज्य के राजस्व में कोई बदलाव नहीं आएगा। हालांकि जीएसटी को तर्कसंगत बनाने के उपाय के तौर पर यह उपाय अपने आप में आम आदमी को पसंद नहीं आता और निष्पक्षता की चिंताओं को अनदेखा कर देता है। जाहिर है, यह उपाय आकर्षक नहीं है।
(लेखिका एनआईपीएफपी की निदेशक हैं। लेख में व्यक्तिगत विचार हैं)