तकनीकी बेरोजगारी तब आती है जब तकनीकी विकास और कार्य पद्धतियों संबंधी विकास के कारण कुछ लोगों को अपने रोजगार गंवाने पड़ते हैं। यह बातें और घटनाएं आजकल सुर्खियों में बनी हुई हैं। लंदन से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र फाइनैंशियल टाइम्स की खबर का शीर्षक देखें: ‘टेक कंपनीज एक्स जॉब’ यानी प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा नौकरियों में कटौती। वहीं भारतीय अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया का एक शीर्षक कहता है: ‘आईटी जॉब्स स्लोडाउन: सेक्टर सीज 10 परसेंट डिप’ यानी सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के रोजगारों में मंदी: इस क्षेत्र में 10 फीसदी की गिरावट।
किसी विषय की लोकप्रियता को साबित करने के लिए आधुनिक दौर के सबूत भी हैं। मिसाल के तौर पर रेडिट पर इस विषय पर तमाम चर्चाएं हो रही हैं और विकीपीडिया ने इस विषय पर एक आलेख दिया है। इस आलेख में बीते दौर के दौरान तकनीक के कारण आने वाली बेरोजगारी की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि कई अध्ययन यह बता चुके हैं कि स्वचालन के कारण भविष्य में बहुत सारे रोजगार जाएंगे।
हमारे जटिल भविष्य के बारे में अनुमान लगाने के लिए अतीत पर नजर डालना जरूरी है। वर्ष 1811 से 1817 के बीच टेक्सटाइल क्षेत्र के श्रमिकों का एक समूह जिसकी आजीविका को स्वचालित करघों के कारण खतरा उत्पन्न हो गया था, नेड लुड नामक एक रॉबिनहुड नुमा व्यक्ति के नेतृत्व में एकजुट हुआ और उसने मिलों और मशीनरी पर तब तक हमला किया जब तक कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनका दमन नहीं कर दिया। विद्वानों ने लुडाइट आंदोलन में एक पैटर्न का आरंभिक उदाहरण देखा: बड़े पैमाने पर स्वचालन की शुरुआत ने वेतन और रोजगार के अवसरों को प्रभावित किया। यह संभव है कि वैसा ही एक आंदोलन आर्टिफिशल इंटेलिजेंस तकनीक की क्रांति के विरुद्ध भी सामने आए।
जॉन मेनार्ड कींस ने 1930 में एक आलेख लिखा था- ‘इकनॉमिक पॉसिबिलिटीज फॉर अवर ग्रैंडचिल्ड्रेन’। इसमें उन्होंने एक नया शब्द दिया- ‘टेक्नॉलॉजिकल अनएंप्लॉयमेंट’ यानी तकनीकी बेरोजगारी। उन्होंने आगे यह सिद्धांत दिया कि यह बेरोजगारी हमारे द्वारा श्रम की बचत के उपाय खोजने के कारण उत्पन्न होती है, लेकिन यह खोज उस गति से आगे निकल सकती है जिस गति से हम श्रम के लिए नए उपयोग ढूंढ़ सकते हैं।
भारत अपने हालिया इतिहास में इस मुद्दे से लगातार संघर्ष करता रहा है। मोहनदास करमचंद गांधी, जो तत्कालीन बॉम्बे में एक संघर्षरत वकील थे, उनको महात्मा की उपाधि तब मिली जब उन्होंने चंपारण के किसानों का नेतृत्व किया और ‘शोषणकारी ब्रिटिश नील बागान मालिकों’ के खिलाफ आंदोलन किया। ये ब्रिटिश मालिक नील की फसल की बहुत कम कीमत देते थे। हालांकि, इतिहास यह बताता है कि नील की कीमतों में गिरावट का कारण ब्रिटिश उत्पादकों का शोषण नहीं, बल्कि जर्मन कंपनियों जैसे बायर और बीएएसएफ द्वारा कोलतार से कृत्रिम रूप से नील का उत्पादन करना था।
एक अन्य हालिया केस स्टडी जिसे हम भारतीय सुविधा से भुला बैठे हैं, वह दिसंबर 1978 की एक घटना है जब देश भर से करीब पांच लाख बैंक कर्मचारी दो दिवसीय हड़ताल पर चले गए थे। वे बैंकों के कंप्यूटरीकरण का विरोध कर रहे थे। यह वह समय था जब बैंक एक चेक क्लियर करने के लिए भी लंबा समय लेते थे।
उदाहरण के लिए 1970 में जब मैं आईआईएम कलकत्ता का छात्र था तब मेरे पिता भारतीय स्टेट बैंक की कन्नूर शाखा में मेरी फीस का जो चेक जमा करते थे उसे कोलकाता (अब कलकत्ता) तक पहुंचने में दो सप्ताह का समय लगता था। इसके बावजूद बैंककर्मी अगले कुछ साल तक कंप्यूटरीकरण का विरोध करते रहे। उस समय की सरकार अडिग रही और हम देख सकते हैं कि आगे क्या हुआ: बैंकिंग अब हमारे मोबाइल फोन में सिमट गई है। तब के 10 फीसदी के मुकाबले आज आबादी का 90 फीसदी हिस्सा बैंकिंग से जुड़ चुका है।
वर्ष 1982 में मुंबई में 50 से अधिक मिलों के 2.50 लाख से अधिक श्रमिकों ने व्यापक हड़ताल कर दी। यह हड़ताल कम वेतन, खराब कामकाजी हालात और आधिकारिक श्रम संगठनों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण की गई थी। इसके लिए कोई मिल मालिकों को दोषी मानता तो कोई यूनियन नेता दत्ता सामंत को लेकिन किसी ने इसकी असली वजह को रेखांकित नहीं किया: वह वजह थी नायलॉन और पॉलिएस्टर जैसे सिंथेटिक कपड़ों का आगमन। इसके चलते सभी कॉटन टेक्सटाइल मिलें बंद हो गईं। लगभग सभी मिल श्रमिकों को अपना रोजगार गंवाना पड़ा और मिल मालिकों ने अपनी मिलों की जमीन को अचल संपत्ति के कारोबार में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
आज हमारे सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या देश और दुनिया में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की नई तकनीकी के खिलाफ वैसे ही हिंसक विरोध प्रदर्शनों की लहर उठेगी जैसी अतीत में देखने को मिल चुकी है? यदि ऐसा हुआ तो इसका हल क्या होगा?
ऐसे कुछ आरंभिक विरोध आंदोलन शुरू भी हो चुके हैं। लंदन में करीब 20 प्रदर्शनकारियों का एक समूह हाल ही में यूनाइटेड किंगडम के विज्ञान, नवाचार और प्रौद्योगिकी विभाग के बाहर एकत्रित हुआ और उसने नारे लगाए कि इस होड़ को रोका जाए क्योंकि यह सुरक्षित नहीं है। वे नीति निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाह रहे थे। अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में प्रदर्शनकारियों ने ओपनएआई के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन किया। उनकी चिंता यह थी कि यह तकनीक मानव जाति के विनाश का कारण बन सकती है। प्रदर्शनकारियों का मानना है कि उनका उद्देश्य सरकारों को प्रेरित करना है कि वे चैट जीपीटी जैसे अग्रणी एआई मॉडल विकसित करने वाली कंपनियों को नियंत्रित करें।
यहां तक कि वेब के मूल सृजनकर्ता टिम बर्नर्स ली ने हाल ही में मानवीय दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए एक अभियान छेड़ा है जिसका उद्देश्य वेब को मानवता के एक साधन के रूप में पुन:स्थापित करना है। वे व्यक्तिगत सशक्तीकरण और पहुंच को प्राथमिकता देते हैं। उनका कहना है कि मुक्त वेब को गलत सूचनाओं, व्यक्तिगत डेटा नियंत्रण खत्म होने और बड़ी तकनीकी कंपनियों के बढ़ते प्रभुत्व से खतरा है।
भारत सहित दुनिया भर की सरकारें इस बात को लेकर जूझ रही हैं कि किस प्रकार का नियमन आवश्यक और उपयुक्त है। पहले की तकनीकी लहरों की तरह, इस बार भी चुनौती यही है कि बहुत अधिक नियमन से एआई के लाभ उठाने में बाधा आएगी, जबकि बहुत कम नियमन मानवता के लिए क्रूर साबित होगा।