दिवंगत डॉ. मनमोहन सिंह को भारत में बुनियादी बदलाव करने वाले योगदान के लिए सराहा जाता है। उन्होंने संसाधनों को असली अर्थव्यस्था में लाने में आधुनिक प्रतिभूति बाजार अहम भूमिका समझ ली थी, जिसके बाद उन्होंने इस बाजार का खाका तैयार किया और इसकी नींव डाली। बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) का गठन इसका सबसे अहम और मुश्किल हिस्सा था, लेकिन उनका योगदान यहीं तक सीमित नहीं था। वास्तव में उन्हें आधुनिक बाजार के लिए जरूरी संस्थाओं, कानूनों एवं मददगार माहौल के साथ पूरा तंत्र तैयार करने का श्रेय जाता है। अमेरिका के साथ बाद में हुए परमाणु समझौते की तरह यह भी मामूली सुधार नहीं था बल्कि बुनियादी और निर्णायक बदलाव लाने वाला था।
अगर तकनीकी कंपनियों सहित कई भारतीय कंपनियां इस साल आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (आईपीओ) का रिकॉर्ड बनाने जा रही हैं तो यह 1990 में हुई शुरुआत का नतीजा है। उस वक्त भारतीय उद्योग अधिक संपत्तियों वाली इंजीनियरिंग कंपनियों से हटकर अधिक मुनाफे और कम संपत्तियों वाले सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्षेत्र की ओर कदम बढ़ा रहा था, जिसमें मानव प्रतिभा का ज्यादा इस्तेमाल होता था। यह क्षेत्र कर्ज के बजाय जोखिम वाली पूंजी पर ज्यादा निर्भर था। बतौर वित्त मंत्री डॉ सिंह ने हर्षद मेहता घोटाले के नतीजों का चतुराई से इस्तेमाल किया और संसद से प्रतिभूति बाजार नियामक के गठन की मंजूरी हासिल कर ली, जिसके पास अधिकार थे और जो सरकार से अलग रहकर काम करता था।
सेबी को कानून ने बाध्यकारी कायदे बनाने का अधिकार दिया। साथ ही इस काम के लिए सरकार की मंजूरी के बगैर ही माहिर लोगों को नियुक्त करने तथा जरूरी नीतियां बनाने का अधिकार भी दिया गया। सेबी को इसके लिए वित्तीय संसाधनों की जरूरत थी। इसके लिए सेबी को सरकार से कर्ज दिलाया गया और स्वायत्तता के साथ काम करने के लिए अपने अधीन आने वाली इकाइयों से शुल्क वसूलने तथा संसाधन तैयार करने का अधिकार भी दिया गया। यह सब कानून में स्पष्ट रूप से लिखा गया, जबकि इससे पहले सभी सरकारी संस्थाओं को सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती थी और उसके अनुदान पर निर्भर रहना पड़ता था।
इस तरह देश का पहला आधुनिक नियामक बना, जो भारत सरकार के विभागों से एकदम अलग था और जिसे अपने क्षेत्र के कायदे बनाने की ताकत कानून से मिली थी। 1992 के सेबी अधिनियम में यह सब नहीं था मगर यह जरूर बता दिया गया था कि किस दिशा में जाना है। डॉ सिंह ने 1995 में आधुनिक नियामक की सभी खासियत इस अधिनियम में जुड़वा दीं। मगर उन्होंने पहले से मौजूद नियामक पूंजी निर्गम नियंत्रक में सुधार की कोशिश नहीं की बल्कि पुराने झंझटों से मुक्त नया नियामक बना दिया।
इसके साथ ही डॉ सिंह और उनकी टीम वे संस्थाएं और बुनियादी ढांचा भी तैयार करने लगी, जो सेबी के नियामकीय दायरे में आने थे। पहला अहम हिस्सा स्टॉक एक्सचेंज थे। उस समय बंबई स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) का जोर था, जिसे ब्रोकर चलाते थे और उन सुधारों के खिलाफ थे, जो उनके माकूल नहीं थे। बीएसई में सुधार की शुरुआती कोशिश के बाद उनकी टीम नया आधुनिक एक्सचेंज बनाने लगी। नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की शुरुआत आईडीबीआई ने स्टार्टअप की तरह की और स्पष्ट नियम बनाया गया कि इसमें ट्रेडिंग करने वाले स्वामित्व ढांचे मं नहीं आ सकते। बेहतर कंपनी प्रशासन पक्का करने के लिए इसे लाभकारी कंपनी के रूप में पंजीकृत कराया गया। स्वामित्व का ढांचा भी आर्थिक प्रोत्साहन को ध्यान मं रखकर बनाया गया ताकि जल्दी मुनाफा कमाने की हड़बड़ी न हो। इस तरह एनएसई पहला स्वतंत्र और कॉरपोरेट एक्सचेंज बन गया।
आपको 1990 के दशक के शुरुआती और बीच के साल तो याद होंगे, जब दूरसंचार और आईटी में एक तरह से क्रांति हो रही थी। उस क्रांति ने वित्तीय बाजारों समेत सभी बाजारों का मिजाज पूरी तरह बदल दिया। लगातार बढ़ रहे दूरसंचार बुनियादी ढांचे और आईटी के चतुराई भरे इस्तेमाल से एनएसई पूरे भारत का एक्सचेंज बन गया और क्षेत्रीय एक्सचेंजों (जिनमें ज्यादातर बहुत खराब तरीके से चलाए जा रहे थे) की कोई तुक ही नहीं रह गई। लेकिन इसके लिए जरूरी था कि कागजी शेयरों को इलेक्ट्रॉनिक शेयरों में तब्दील किया जाए और पैसा भी ऑनलाइन भेजा जा सके। शेयरों को कागज से इलेक्ट्रॉनिक बनाने के लिए कानून में परिवर्तन जरूरी था और पैसे को ऑनलाइन भेजने के लिए बैंकों का कंप्यूटरीकरण पहली शर्त थी।
इसके बाद डिपॉजिटरीज अधिनियम 1996 बनाया गया और हितों का टकराव रोकने के लिए आधुनिक एक्सचेंज जैसे ढांचे वाली डिपॉजिटरी बनाई गई। इसमें भी सेबी की ही तर्ज पर काम हुआ और पहले से मौजूद सरकारी उपक्रम में सुधार करने के बजाय नई बेहतर और आधुनिक डिपॉजिटरी बनाना सही माना गया। महमोहन सिंह के पास प्रतिभाओं को परखने वाली नजर थी, जिसकी मदद से उन्होंने राष्ट्र निर्माण की ख्वाहिश रखने वाले दूरदर्शी लोग जुटा लिए। ये लोग आईडीबीआई से आए थे। नई संस्थाएं बनाने के लिए डॉ सिंह ने इन लोगों के साथ उद्यमियों की तरह शानदार नई पहलें कीं और जोखिम भी लिए।
इसी के साथ सी रंगराजन के नेतृत्व में भारतीय रिजर्व बैंक भी धीरे-धीरे सरकारी बैंकों में कंप्यूटरीकरण की रफ्तार बढ़ा रहा था। जब राजनीतिक माहौल अनुकूल हुआ तब रिजर्व बैंक ने कई नए निजी बैंकों को लाइसेंस दे दिया, जो शुरू से ही तकनीक का जमकर इस्तेमाल कर रहे थे।
नियामक आ गया, बुनियादी ढांचा बन गया और संस्थाएं खड़ी हो गईं तब नीति निर्माताओं का ध्यान बाजार के भागीदारों की संख्या बढ़ाने तथा विविधता लाने पर गया, जो बाजारों के विकास के लिए जरूरी था। कानून में संशोधनों के जरिये विदेशी संस्थागत निवेशकों को भारतीय शेयर बाजारों में रकम लगाने की इजाजत दे दी गई। यह अहम कदम था क्योंकि उस समय भारत में ऐसे बड़े संस्थागत निवेशक नहीं थे, जिन्हें संपत्तियों के बजाय केवल कारोबारी योजनाएं तथा प्रतिभाएं दिखाने वाली कंपनियों के शेयरों को समझने और उनमें निवेश करने का अनुभव हो।
डॉ सिंह ने जो बुनियाद रखी उसी के बल पर भारत शेयर बाजारों की प्रगति मापने वाले आकार, गहराई, कायदे और दूसरे पैमानों पर इतना आगे पहुंच सका। छोटे-मोटे सुधार तो 1977 में ही शुरू हो चुके थे। 1991 में बड़ा बदलाव यह रहा कि विदेशियों पर शक करने की पुरानी आदत छोड़कर भारत ने दुनिया के लिए दरवाजे खोल दिए और वित्त से जुड़ी पुरानी शंकाएं किनारे रखकर उसी को भारतीय अर्थव्यवस्था की नई ऊंचाई का जरिया बना लिया गया।
अब इस प्रगति के बेपटरी होने का खतरा खड़ा हो गया है और देश के राजनीतिक नेतृत्व समेत हम सभी को साथ मिलकर खड़ा होना पड़ेगा ताकि हम एक बार फिर वैश्वीकरण और वित्त के अनुकूल रुख अपनाएं तथा वित्तीय व्यवस्था के लिए संस्थाएं बनाने पर ध्यान दें।
(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो हैं और प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं)