अक्सर मेरा सामना ऐसे हालात से होता है जहां मुझे किसी उच्च शिक्षण संस्थान या किसी कारोबारी संस्थान के लिए वरिष्ठ प्रबंधक का चयन करना होता है। ऐसी स्थिति में प्राय: मेरे आसपास मौजूद लोग मुझे ऐसे प्रत्याशी का चयन करने को कहते हैं जिसके पास विदेशी डिग्री हो या विदेश में काम करने का अनुभव हो। जब मैं उनसे प्रश्न करता हूं कि ऐसा क्यों करूं तो उनके चेहरे पर पहेलीनुमा भाव होते हैं मानो मैंने किसी ऐसी बात पर प्रश्न कर दिया है जिस पर किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं।
यदि संबंधित निर्णय यूं ही एक और प्रोफेसर या प्रबंधक के चयन से संबंधित हो तो इसे यह कहकर उचित ठहराया जा सकता है कि यह सांस्कृतिक मिश्रण का प्रयास है जिससे बेहतरी आएगी। परंतु जब मामला भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) या नीतिगत निर्णय लेने वाले किसी राष्ट्रीय संस्थान का हो तो मैं दोबारा सवाल उठाता हूं और हर बार लोग मुझे यूं ही अजीब तरीके से देखते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि विदेशी डिग्री या विदेशों में काम के अनुभव को लेकर यह लगाव केवल सामान्य लोगों में हो। मैंने ऐसे तमाम सरकारी (वर्तमान और पूर्व) सचिव और सफल कारोबारों के प्रबंध निदेशक भी विदेशी वस्तुओं के प्रति झुकाव दिखाते हैं।
कुछ पेशेवर विषयों, उदाहरण के लिए अर्थशास्त्र के विद्वानों में भी ऐसा झुकाव दूसरों से ज्यादा दिखता है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर अथवा राज्य या केंद्र सरकारों के आर्थिक सलाहकार जैसे पदों के लिए विदेशी डिग्री या कार्य अनुभव अनिवार्य माना जाता रहा है। हालांकि आरबीआई के मौजूदा गवर्नर इसके अपवाद हैं। आजादी और उच्च शिक्षा में निवेश को इतना लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी हम शायद यह यकीन नहीं कर पा रहे हैं कि हमारे विश्वविद्यालय उत्कृष्ट आर्थिक विचारक तैयार कर सकते हैं।
मैंने व्यक्तिगत रूप से यह देखा है और सबसे अधिक तो आईआईएम के निदेशक चुनते समय ऐसी दिक्कत आती है। भले ही स्तरीय और अपने आप को साबित कर चुके भारतीय प्रत्याशी मौजूद हों लेकिन बोर्ड के सदस्य प्राय: जोर देते हैं कि ऐसा व्यक्ति तलाश किया जाए जो किसी विदेशी विश्वविद्यालय (प्राय: अमेरिकी) में प्रोफेसर हो। यह भावना तब और प्रबल होती है जब निदेशक तलाश रहे आईआईएम के चेयरमैन ने आईआईएम या भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) में अध्ययन न किया हो बल्कि वह एक सफल कारोबारी अधिकारी हो।
मैं अब तक यह बताने में सक्षम हो चुका हूं कि जब ऐसे अनिवासी भारतीय प्रत्याशी को चुना जाता है तो क्या होता है। वह उस समय अपने करियर के अंतिम चरण में होता है। प्राय: उनके पास काम करने के लिए छह वर्ष तक का समय बचा होता है। अमेरिकी विश्वविद्यालय किसी भी स्थिति में यह नहीं चाहते कि उनके सेवानिवृत्ति लाभ किसी तरह खतरे में पड़ें। दूसरी बात, उनके परिवार अमेरिका में रम चुके होते हैं और उन्हें भारत नहीं लाया जा सकता। इन सब बातों के परिणामस्वरूप चुना गया निदेशक मेहमान की तरह यदाकदा भारतीय परिसर में आता है।
एक और बात यह है कि नुकसान इस मेहमान जैसी भूमिका के कारण नहीं होता। बल्कि यदाकदा आने वाले इन अनिवासी निदेशकों के पास इतना समय ही नहीं होता है कि वे वे 5-10 वर्ष की कोई भावनात्मक प्रतिबद्धता विकसित कर पाएं जो नवाचारी शोध केंद्र या पाठ्यक्रम में बड़ा बदलाव ला सके। मैंने ऐसी घटनाएं भी देखी हैं जहां बेहतरीन आईआईएम ऐसे अनिवासी निदेशकों को चुनने के दशक भर बाद बुरी तरह लडख़ड़ा गए।
नीति निर्माण के स्तर पर देखें तो ऐसे नीति बनाने वाले मेहमान निदेशक भारत में अपने कार्यकाल के दौरान पश्चिमी बातों का प्रचार प्रसार करते हैं। फिर चाहे वह सन 1950-70 के दशक में समाजवाद-सार्वजनिक क्षेत्र की वरीयता की बात हो या मौजूदा दौर की कम ब्याज दर-अंशधारक मूल्य-आधिक्य की व्यवस्था। अधिक वृहद स्तर पर मैंने उन भारतीयों के बारे में भी कुछ परेशान करने वाली चीजें पाईं जो उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने के लिए अत्यधिक लालायित रहते हैं। इसके पीछे कई बार बहुत व्यावहारिक कारण होते हैं: क्योंकि देश के शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों मसलन आईआईएम, आईआईटी या मेडिकल कॉलेजों आदि में दाखिले के लिए जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है। ऐसे में अगर आपके माता-पिता समृद्ध हैं तो आप उनके धन की बदौलत हार्वर्ड या हार्वर्ड जैसे अन्य प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान में दाखिला पा सकते हैं। सन 2005 की पुलित्जर पुरस्कार विजेता पुस्तक ‘द प्राइस ऑफ एडमिशन:हाऊ अमेरिकाज रूलिंग क्लास बाइज इट्स वे इन टु इलीट कॉलेज्स-ऐंड हू गेट्स लेफ्ट आउटसाइड द गेट्स’ (लेखक: डेनियल गोल्डन) बताती है किस कैसे यह काम बड़े पैमाने पर होता है।
कुछ भारतीय परिवारों और समुदायों में आईआईएम और आईआईटी की डिग्री लेकर विदेश जाने की आकांक्षा इसलिए भी होती है क्योंकि उन्हें लगता है कि विदेश में जीवन बेहतर होगा और भौतिक दृष्टि से भी उनके लिए ज्यादा सुविधाजनक होगा। इस पर व्यावहारिक नजर डालें तो सभी बड़े भारतीय कारोबार परिवारों द्वारा संचालित होते हैं।
यह एक तरह से नियम ही बन गया है कि वे विदेशों में शिक्षा लेंगे और अपने परिवार का कारोबार संभालने वापस आएंगे। चूंकि विदेशों में वे प्राय: कला या वाणिज्य विषयों की पढ़ाई करते हैं इसलिए वे इस धारणा के साथ वापस आते हैं कि कारोबारी क्षेत्र के सभी तकनीक आधारित नवाचार विदेशों में हो सकते हैं। उनका काम केवल संबंधों और अनुबंधों के माध्यम से कारोबार को संभालना है।
इन बातों ने एक देशव्यापी संस्कृति बनाई है कि भारत में किसी तरह का नवाचार नहीं हो सकता। तमाम बौद्धिक रचनात्मकता पश्चिमी देशों पर छोड़ दी गई है। भारत में होने वाले नवाचारों पर यह अविश्वास आम है। यह धारणा वर्तमान वरिष्ठ अफसरशाहों के मन में भी घर कर चुकी है।
क्या कुछ सौ वर्षों का ब्रिटिश उपनिवेशवाद इसका कारण है? क्या उस घटना ने हम भारतीयों के भीतर ऐसा वायरस पैदा कर दिया है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीयों के काम पर विश्वास नहीं करने देता? यह वायरस साफ तौर पर कोविड-19 वायरस से अधिक खतरनाक है और आसानी से जाने वाला नहीं है। इस वायरस को समाप्त करने के लिए भी हमें कड़ा संघर्ष करना होगा।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी और ‘द वेव राइडर’ पुस्तक के लेखक हैं)