जैसे ही मैंने शोध पत्र का शीर्षक देखा मैं चिढ़ गया। उसका शीर्षक था: ‘महिला नेताओं को लेकर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं बाजार? आईपीओ (आरंभिक सार्वजनिक पेशकश) की एक जांच’। मुझे लगा कि शोधकर्ता हमेशा यही रोना क्यों रोते रहते हैं कि भारत में नेतृत्व के मामले में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। चाहे वह राजनीति हो, कारोबार हो या सामाजिक क्षेत्र हो? इस बारे में एक और आलेख की भला क्या जरूरत? लेकिन मैंने उस शोध पत्र की शुरुआत में दिए गए संक्षिप्त परिचय को पढ़ना शुरू किया और मैं उसमें दिए गए निष्कर्ष को पढ़कर चकित रह गया। उसमें लिखा था, ‘परिणाम दिखाते हैं कि निवेशक उन कंपनियों के आईपीओ को अधिक सबस्क्राइब करते हैं जहां शीर्ष और वरिष्ठ प्रबंधकीय पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक होता है।’
मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है। ऐसा शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब मेरी नजर ऐसे किसी शीर्षक पर न जाती हो जो कहता हो कि ‘लैंगिक असमानता भारतीय समाज का एक अहम मुद्दा है।’ या फिर ‘विश्व आर्थिक मंच के जेंडर गैप इंडेक्स यानी जीजीआई में भारत 135 देशों में 113वें स्थान पर रहा।’ भारतीय समाज में महिलाओं के साथ खराब व्यवहार इतना बड़ा मुद्दा प्रतीत होता है कि विकिपीडिया में तो बाकायदा एक खास खंड भारत में लैंगिक असमानता को समर्पित है। मैंने उस पत्र को विस्तार से पढ़कर यह जानने की कोशिश की कि आखिर लेखक इस नतीजे पर पहुंचे कैसे। वह लिखते हैं ’हम जिस पिक्चर पर निर्भर हैं वह है ओवरसबस्क्रिप्शन जो किसी आईपीओ की मांग को मापता है। इससे तात्पर्य यह है कि किसी आईपीओ इश्यू को निवेशकों ने कितनी बार सबस्क्राइब किया। यह इस बात को भी दर्ज करता है कि क्या आईपीओ फॉर्म के शेयरों की कुल मांग, आईपीओ के माध्यम से प्रस्तुत शेयरों की पेशकश से अधिक है?‘
इस पर्चे को शिव नादर विश्वविद्यालय की देवव्रती बसु और ग्रीनविच बिजनेस स्कूल यूके की श्रेयसी चक्रवर्ती ने लिखा है। इन दोनों ने अपनी पीएचडी भारतीय प्रबंध संस्थान कलकत्ता से की है। उन्होंने अपने अध्ययन के लिए 2017-18 और 2020-21 के दौरान भारतीय स्टॉक एक्सचेंज के 43 आईपीओ को चुना जो 20 अलग-अलग उद्योगों से ताल्लुक रखते थे। इसका प्रमुख स्वतंत्र चर है शीर्ष और वरिष्ठ प्रबंधन टीम में महिलाओं की उपस्थिति। अगर फर्म के शीर्ष प्रबंधन में कम से कम एक महिला है तो इस चर का मूल्य एक रखा गया अन्यथा इसे शून्य माना गया। उनके अन्य स्वतंत्र चरों में फर्म की आयु, आकार, राजस्व वृद्धि, इश्यू का आकार, इश्यू मूल्य, लॉट का आकार, आईपीओ गुणवत्ता रेटिंग, इश्यू का प्रबंधन कर रहे शीर्ष प्रबंधकों की संख्या, उद्योग और वर्ष शामिल थे।
लेखकों ने उचित ही संकेत किया कि चूंकि कोई नियामकीय आदेश नहीं है इसलिए संभावना यही है कि अगर महिलाओं को शीर्ष और वरिष्ठ प्रबंधन पदों पर चुना जाता है तो उन्हें ऐसे पद उनके कौशल, क्षमता और अनुभव की बदौलत मिलें। लेखक आगे कहते हैं कि वरिष्ठ प्रबंधन टीम में महिलाओं की मौजूदगी यह संकेत देती है कि फर्म समता और श्रेष्ठता के सिद्धांत को अपनाती है और महिला कर्मचारियों के सशक्तीकरण पर काम करती है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं की उपस्थिति से जोखिम कम होता है, बातचीत बढ़ती है, धोखाधड़ी की संभावना में कमी आती है और निर्णय प्रक्रिया में ईमानदारी तथा नैतिकता बढ़ती है। चूंकि वरिष्ठ प्रबंधन पदों पर महिलाओं की उपस्थिति भारतीय नियामकीय संस्थाओं द्वारा बाध्यकारी नहीं है इसलिए उनकी उपस्थिति जवाबदेह नीतियों और व्यवहार के प्रति प्रतिबद्धता का मजबूत संकेत देती है। ऐसे में निवेशक भी शीर्ष प्रबंधन टीम में महिलाओं की मौजूदगी को सकारात्मक ढंग से लेंगे।
मैं इस शोध पत्र तक कैसे पहुंचा? उसके लिए मुझे नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सिक्युरिटीज मैनेजमेंट (एनआईएसएम) के लोगों का धन्यवाद करना होगा जिन्होंने मुझे उस समिति में चुना जिसे गत दिसंबर के मध्य में आयोजित उनकी इंटरनैशनल कैपिटल मार्केट कॉन्फ्रेंस में प्रस्तुत शोध पत्रों के विजेता चुनने थे। चुने गए शोध पत्र आईआईटी (बंबई और रुड़की) तथा आईआईएम (अहमदाबाद, बेंगलूरु और इंदौर) के अलावा अन्य शीर्ष भारतीय और विदेशी संस्थान शामिल थे। जब मैंने इस शोध पत्र को करीब दो दर्जन चयनित शोध पत्रों में शीर्ष स्थान दिया तो मुझे यही अचंभा हो रहा था कि क्या अन्य निर्णयकर्ताओं ने भी ऐसा ही किया होगा। मुझे खुशी हुई कि सब ने ऐसा ही किया था।
थोड़ा गहराई से सोचने पर मुझे पता चलता है कि निश्चित तौर पर महिलाएं देश के वित्तीय क्षेत्र में शीर्ष पर रही हैं: माधवी पुरी बुच (भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड की चेयरपर्सन), अरुंधती भट्टाचार्य (हाल तक भारतीय स्टेट बैंक की प्रमुख), शिखा शर्मा (हाल तक ऐक्सिस बैंक की मुख्य कार्याधिकारी) तथा ऐसे ही कुछ अन्य उदाहरण हमारे सामने हैं। अगर हम महिला मुख्य कार्याधिकारियों की अपनी खोज को वित्तीय क्षेत्र के बाहर ले जाएं तो किरण मजूमदार शॉ (बायोकॉन की संस्थापक सीईओ) और फाल्गुनी नायर (नायिका की संस्थापक और सीईओ) के रूप में हमारे सामने सफल कारोबारी महिलाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नजर डालें तो इंदिरा नूयी के रूप में पेप्सी की पूर्व सीईओ का उदाहरण है। अहम बात यह है कि ये सभी महिलाएं अपनी काबिलियत के दम पर आगे बढ़ीं। उनके पीछे पारिवारिक विरासत नहीं थी। एक और बात, हमारी वित्त मंत्री का नाम भी निर्मला सीतारमण है।
शायद हम भारतीयों ने जिम्मेदार मां के रूप में महिलाओं की छवि को मन में बहुत गहरे तक बसा लिया है। याद कीजिए सन 1957 में आई मदर इंडिया नामक फिल्म जिसे महबूब खान ने निर्देशित किया था और जिसमें नरगिस मुख्य भूमिका में थीं। उस फिल्म को अब तक की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में गिना जाता है। फिल्म की नायिका को आदर्श भारतीय महिला के रूप में देखा जा सकता है जो उच्च नैतिक मूल्य रखती है और समाज के लिए किसी भी प्रकार का बलिदान करने के लिए भी तैयार रहती है। यह बात सही नहीं है कि कोई समाज जिस चीज का जश्न मनाता है वह उसके वास्तविक मूल्यों के बारे में बताता है। भारत में उच्च प्रबंधन में महिलाओं की सफलता का उत्सव मनाना भारतीय समाज के लिए एक शुभ संकेत माना जा सकता है।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)