डॉनल्ड ट्रंप के कदमों ने विश्व अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल मचा दी है। उन्होंने हर प्रकार के आयात पर 10 फीसदी बुनियादी टैरिफ लागू कर दिया और स्टील, एल्युमीनियम, वाहनों और वाहन कलपुर्जों पर 25 फीसदी का अतिरिक्त टैरिफ लगाने की बात कही। उन्होंने बेतुके ढंग से जवाबी शुल्क लगाने की बात कही, हालांकि फिर उसके क्रियान्वयन को 90 दिनों के लिए स्थगित कर दिया।
उन्होंने चीन पर 145 फीसदी का भारी टैरिफ लगाया। वह मान कर चल रहे थे कि चीन जल्दी झुक जाएगा लेकिन चीन ने भी अमेरिका से होने वाले आयात पर 124 फीसदी का टैरिफ लगाकर प्रतिकार किया। अमेरिका के बड़े कारोबारी साझेदारों कनाडा, मेक्सिको और यूरोपीय संघ ने भी कहा कि वह अमेरिकी टैरिफ का विरोध करेंगे। कनाडा को लेकर उनकी लगातार अपमानजनक टिप्पणियों के कारण ही वहां उदारवादी सरकार दोबारा चुनकर आ गई है। ट्रंप के टैरिफ संबंधी कदम और फेडरल रिजर्व के प्रमुख जेरोम पॉवेल को निकालने की धमकी ने इक्विटी बाजारों और बॉन्ड बाजार पर बुरा असर डाला है। राष्ट्रपति ट्रंप यह नहीं समझ रहे हैं कि अमेरिकी व्यापार घाटा मोटे तौर पर उच्च राजकोषीय घाटे की वजह से है। ट्रंप ने अब संकेत दिया है कि वह चीन के विरुद्ध बेतहाशा बढ़ाए गए टैरिफ को कम करने को तैयार हैं और उन्होंने यह वादा भी किया है कि पॉवेल को पद से नहीं हटाएंगे।
चीनी भाषा का एक श्राप है जो कहता है: ‘जाओ तुम दिलचस्प समय में जियो’ परंतु इसके भीतर उम्मीद की एक किरण भी है। चीन में जोखिम और अवसर दोनों के लिए एक ही शब्द है और चीन को इस कारोबारी जंग में दोनों नजर आ रहे हैं। चीन अब यूरोपीय संघ, भारत और अन्य देशों के साथ तालमेल बिठाकर स्वयं को एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में पेश कर रहा है। परंतु चीन को भी इस व्यापारिक गतिरोध की कुछ जिम्मेदारी लेनी होगी। कोविड के झटके के बाद उसने अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू खपत की ओर संतुलित करने के बजाय आक्रामक निर्यात आधारित सुधार किया। अगर ट्रंप पीछे हटते हैं तो चीन अत्यावश्यक आर्थिक पुनर्संतुलन करने के बजाय फिर अपने गड़बड़ी वाले निर्यात आधारित मॉडल पर जोर बढ़ाएगा। भारत के मामले में भी जोखिम और अवसर दोनों हैं। भारत को कैसी प्रतिक्रिया देनी चाहिए? क्या उसे घरेलू मांग पर अधिक भरोसा करना चाहिए? या फिर उसे इस कारोबारी झटके का इस्तेमाल मजबूत और साहसिक आंतरिक सुधारों के लिए करना चाहिए ताकि प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जा सके और संरक्षण कम किया जा सके? विकसित भारत पर हुए एक आयोजन में भी यही मुद्दे केंद्र में थे। पिछले दिनों जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में हुए इस आयोजन में मैं भी मददगार था। उसी समय भारत का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल वॉशिंगटन डीसी में द्विपक्षीय व्यापार समझौते के पहले चरण के लिए वार्ता में लगा हुआ था।
विश्व बैंक के दक्षिण एशिया के वाइस प्रेसिडेंट मार्टिन रेजर ने दिखाया कि भारत अन्य देशों की तुलना में कम प्रभावित होगा क्योंकि उसकी हिस्सेदारी सेवा निर्यात में अधिक है और साथ ही निर्यात बाजार में उसकी विविधता चीन और अमेरिका से परे है। हालांकि, धीमी पड़ती वैश्विक वृद्धि के बीच भारत की वृद्धि संभावनाएं भी कमजोर पड़ रही हैं।
उन्होंने यह भी दिखाया कि भारत का टैरिफ और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर अंकुश उभरते बाजारों और विकासशील देशों से अधिक हैं। भारत के मुक्त व्यापार समझौते यानी एफटीए भी चीन की तुलना में और यहां तक कि ब्राजील से भी छोटे हैं। उन्होंने दलील दी कि भारत को इस कारोबारी झटके का इस्तेमाल एक अवसर के रूप में करना चाहिए और अहम सुधारों को अंजाम देना चाहिए और व्यापार के मोर्चे कमजोर प्रदर्शन पर ध्यान देना चाहिए ताकि वह बेहतर रोजगार, श्रम शक्ति में महिलाओं की अधिक भागीदारी और बेहतर उत्पादकता पर काम कर सके।
यूरोपीय संघ की व्यापार आयुक्त सेसिलिया माल्मस्ट्रॉम की अध्यक्षता वाले एक सत्र में सेंटर फॉर इकनॉमिक ऐंड सोशल प्रोग्रेस के संजय कथूरिया ने कहा कि 2018 के बाद से व्यापार संरक्षण में वृद्धि ने भारत के निर्यात को प्रभावित किया है। उन्होंने अनुमान जताया कि भारत सालाना 450 से 500 अरब डॉलर के निर्यात अवसर गंवा रहा है। इससे देश को 7 करोड़ रोजगार का नुकसान हो रहा है और श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी प्रभावित हो रही है। भारत में 2017 से एफडीआई में भी गिरावट आई है। यह चीन और वियतनाम के उलट है। उन्होंने तमाम क्षेत्रों में टैरिफ कम करने को कहा और कहीं अधिक गहरे एफटीए की अनुशंसा करते हुए यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ के साथ व्यापार समझौतों को भी प्राथमिकता देने की वकालत की। उन्होंने दिखाया कि भारत के श्रम कानून, जमीन अधिग्रहण में मुश्किल और जटिल नियामकीय ढांचे उसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता को कम करते हैं।
पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने श्रम गहन विनिर्माण आधारित निर्यात पर जोर दिया जहां भारत की वैश्विक हिस्सेदारी सन 2000 के 1.7 फीसदी से बढ़कर 2014 में 2.9 फीसदी हो गई लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट आई और 2023 में यह 2.4 फीसदी रह गई। यह वह दौर था जब आयात संरक्षण बढ़ रहा था। उन्होंने कहा कि जो सेवा के नेतृत्व वाले निर्यात के हिमायती हैं, वे गलती कर रहे हैं क्योंकि सेवा निर्यात ज्यादा से ज्यादा श्रम शक्ति के पांच फीसदी के लिए लाभप्रद हो सकता है और वह विकसित भारत के लिए व्यापक विकास रणनीति नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि 4 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था की घरेलू मांग कभी इतनी अधिक नहीं होगी कि वह 100 लाख करोड़ डॉलर के धीमे पड़ते वैश्विक बाजार की मांग की भी भरपाई कर सके। कोई भी देश केवल आंतरिक मांग के दम पर उन्नत अर्थव्यवस्था नहीं बन सका है।
मेरी अपनी समझ कहती है कि अगर चीन और अमेरिका किसी व्यापार समझौते पर पहुंचते हैं तो भी दुनिया की सकल घरेलू उत्पाद और व्यापार वृद्धि कम रहेगी। अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 2025 के वैश्विक वृद्धि के अपने पूर्वानुमान को कम करके 2.8 फीसदी कर दिया है और वैश्विक व्यापार वृद्धि के लिए इसे कम करके 1.7 फीसदी कर दिया गया। भारत की वृद्धि दर को संशोधन के बाद घटाकर 6.2 फीसदी किया गया। इसके अलावा, वैश्विक क्षमता केंद्रों यानी जीसीसी की तेज वृद्धि के कारण बड़ी संख्या में उच्च कुशलता वाले सेवा रोजगार भारत आए हैं और सेवा निर्यात को गति मिली है। आगे चलकर अमेरिका की ओर से इसका प्रतिरोध हो सकता है। भारत के सामने कई जोखिम हैं।
आगे चलकर भारत को तभी लाभ हो सकता है जब वह इस अवसर का लाभ चीन के विकल्प के रूप में उभार के लिए करे और इसके साथ ही सेवा निर्यात में अपनी बढ़त को कायम रखे। ऐपल ने तय किया है कि वह अमेरिका आयात होने वाले सभी आईफोन भारत में बनवाएगा। लेकिन आईफोन की इस कामयाबी को विभिन्न उद्योगों में दोहराना होगा।इसके लिए भारत को कहीं अधिक साहसी आंतरिक कारक बाजार और नियामकीय सुधार करने होंगे। इसके साथ ही हमें इस वर्ष अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते और यूके तथा यूरोपीय संघ के साथ गहरे मुक्त व्यापार समझौतों को भी अंजाम देना होगा। इन सबका मतलब यह है कि संरक्षण में कमी करनी होगी।
इन ‘दिलचस्प समयों’ में भारत को एक विजेता के रूप में उभरना होगा और ऐसे तरीके निकालने होंगे जो विकसित भारत बनाने के लिए जोखिम को अवसर में बदलें।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर , और अशोक यूनिवर्सिटी के प्रतिष्ठित फेलो हैं)