दुनिया में कहीं भी बड़े कारोबारी समूहों को भंग नहीं किया गया है। भारत में ऐसी मांग आर्थिक आत्महत्या के समान होगी। बता रहे हैं आर जगन्नाथन
ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो अर्थशास्त्री एक अलग ही दुनिया में जी रहे हैं जो मौजूदा दौर की हकीकतों से दूर है। जब आपको हर हालात में तमाम समस्याओं का बार-बार एक ही हल सुनाई देता है तो आश्चर्य होता है कि वे तार्किक सोच में सक्षम भी हैं या नहीं।
रिजर्व बैंक के एक पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भारत की निरंतर वृद्धि को लेकर पांच चुनौतियां सामने रखीं। उनमें से कुछ तो ऐसे वक्तव्य हैं जिनसे कम ही लोग असहमत होंगे लेकिन उनकी अन्य बातें मौजूदा भू राजनीतिक हकीकत से एकदम असंबद्ध हैं।
मार्च में ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन से प्रकाशित एक पर्चे में डॉ. आचार्य ने कहा कि भारत की विनिर्माण के क्षेत्र में ऊंची उछाल असंतुलित है और वह बड़े कारोबारी घरानों की वजह से है।
आचार्य कहते हैं, ‘मेरे आकलन में औद्योगिक संतुलन कायम करने के लिए, शुल्क में कमी करनी होगी ताकि वैश्विक वस्तु व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़े और संरक्षणवाद में कमी आए, बड़े कारोबारी समूहों को भंग किया जाए ताकि प्रतिस्पर्धा बढ़े और कीमतें तय करने पर उनका नियंत्रण कम हो, यह सुनिश्चित किया जाए कि दिवालिया संहिता बड़े कारोबारी समूहों के डिफॉल्ट से निपटने के लिए तैयार हैं।’
डॉ. आचार्य मानते हैं कि नए भारत की औद्योगिक नीति है राष्ट्रीय स्तर पर अगुआ तैयार करना और शायद इसका संबंध कीमतों के लगातार ऊंचा बना रहने से है और संभव है कि यही मूल मुद्रास्फीति के ऊंचे स्तर पर बने रहने की वजह हो।
सवाल यह है कि अगर आप एक ही तरह के हल सुझाते रहेंगे तो फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि संदर्भ क्या है? इन हालात में एक खास दायरे से बाहर सोचना बहुत जरूरी है।
हम इस बारे में बात करेंगे कि क्या इस मोड़ पर देश के बड़े कारोबारी समूहों को भंग करने की मांग करना सही है। हमें इस दावे की भी पड़ताल करनी होगी कि क्या मूल मुद्रास्फीति वाकई में पांच बड़े कारोबारी समूहों की उच्च मूल्य शक्ति की वजह से है? आचार्य ने इसमें रिलायंस, टाटा, बिड़ला, अदाणी और भारती एयरटेल का नाम शामिल किया है।
इन समूहों को तोड़ने की उनकी सलाह दो बातों पर आधारित है: पहली इन पांच समूहों की कीमतों को लागत की तुलना में बहुत अधिक बढ़ाने की क्षमता। दूसरा, गैर वित्तीय क्षेत्र में इन पांच कंपनियों की परिसंपत्तियों की बढ़ती हिस्सेदारी। गैर वित्तीय क्षेत्र में इनकी हिस्सेदारी 1991 के 10 फीसदी से बढ़कर 2021 में 18 फीसदी हो चुकी है। इनके बाद वाली पांच कंपनियों की हिस्सेदारी इस अवधि में 18 फीसदी से घटकर 9 फीसदी रह गई।
यह बात सही है कि बड़े समूहों के आकार और उनके काम के बड़े पैमाने के कारण उन्हें मूल्य तय करने का अधिकार हो सकता है लेकिन मूल मुद्रास्फीति के साथ इसका रिश्ता संदेहास्पद है। तथ्य यह है कि मूल मुद्रास्फीति बीते एक दशक से अधिक समय से काफी ऊंची है और इस बात का कारोबारी समूहों की शक्ति से कोई लेनादेना नहीं। 2012-13 से अब तक मूल मुद्रास्फीति कभी 4-4.5 फीसदी से नीचे नहीं आई। बल्कि 2012-13 में यह उच्चतम स्तर पर थी जबकि उस समय ये समूह इतने बड़े नहीं थे।
मौद्रिक नीति समिति दरें तय करने के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का इस्तेमाल करती है। कृषि और ईंधन कीमतों ने उसे प्रभावित किया है। ये दोनों सरकारी नीतियों से प्रभावित होते हैं, कंपनियों से नहीं।
दूसरा बिंदु है कि पांच बड़े समूह न केवल छोटे और मझोले उपक्रम क्षेत्र बल्कि अगले पांच समूहों की हिस्सेदारी को भी प्रभावित कर रहे हैं। इस पर दो वजहों से प्रश्न उठ सकते हैं: तुलना का वर्ष यानी 2021 कोविड का वर्ष था जब किसी भी कंपनी के लिए विस्तार करना मुश्किल था। आश्चर्य नहीं कि पांच बड़ी कंपनियां कम कीमत पर संपत्तियां खरीदना जारी रख सकती थीं। 2021 से पहले के चार वर्षों में भी प्रमुख कर्जग्रस्त समूहों का आकार घट रहा था। इनमें रुइया समूह भी शामिल था जिसे इस्पात और तेल क्षेत्र में नुकसान सहना पड़ा, अनिल अंबानी समूह को दूरसंचार और वित्त क्षेत्र में, जीएमआर और जीवीके समूहों को भी नुकसान उठाना पड़ा जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में लाभान्वित हुए थे। कोविड के बाद ही अगले पांच नए समूहों की वृद्धि शुरू हो सकती है। अगले पांच समूहों की परिसंपत्ति में कमी ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता के आरंभिक प्रभाव तथा कोविड संकट के कारण हुई।
बड़े कारोबारी समूहों को भंग करने की मांग वैसे ही है जैसे कि नए सिरे से हथियारबंद होती दुनिया को शस्त्रविहीन करने की मांग। अगर देश की उन कंपनियों को भंग किया जाएगा जो एमेजॉन, ऐपल या वॉलमार्ट को घरेलू बाजार में टक्कर दे सकती हैं तो जाहिर है हम भारतीय विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को खुली छूट देना चाहते हैं। हमें देखना होगा कि अमेरिका और यूरोप कितने प्रभावी ढंग से अपनी बड़ी कंपनियों को टुकड़ों में बांटते हैं। उसके बाद ही हमें ऐसा करना चाहिए।
हम भूराजनीतिक हकीकतों को भी नहीं भूल सकते। भारत अपने यहां दिग्गज कंपनियां बना रहा हो या नहीं लेकिन तथ्य यह है कि कोविड के बाद और चीन की बढ़ती दादागीरी के बीच आपूर्ति श्रृंखलाएं प्रभावित हुई हैं। अब उनका निर्धारण आर्थिक दलील के आधार पर नहीं बल्कि भूराजनीतिक कारणों से हो रहा है। जब हम अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के शीर्ष आर्थिक सलाहकार भरत राममूर्ति को यह कहते सुनते हैं कि अमेरिका सभी आपूर्ति श्रृंखलाओं को अपने देश से शुरू और खत्म होते देखना चाहता है तो हमें आश्चर्य होता है कि डॉ. आचार्य किस दुनिया में हैं? किन उद्योगों को बचाना है और किन्हें छोड़ देना है यह निर्णय भूराजनीतिक हकीकतों को दिमाग में रखकर लिया जाता है और इस मामले में आर्थिक प्रतिस्पर्धा ही इकलौती वजह है।
बाजार की शक्ति और गठजोड़ बनाने के प्रश्न का भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग को समाधान करना चाहिए, न कि अर्थशास्त्रियों को। बिना उचित प्रमाण के बड़े कारोबारी समूहों को भंग करने की मांग सही नहीं है।
कारोबारी समूहों की बढ़ती शक्ति आज नहीं तो कल आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुसंगत बनाने में मदद करेगी। इससे नवाचार और प्रतिस्पर्धी मझोली कंपनियों की एक परत तैयार होगी। इनके माध्यम से ही बिना अंतहीन सरकारी सब्सिडी के गुणवत्तापूर्ण रोजगार तैयार हो सकेगा।
हमें और अधिक बड़ी तथा मझोली कंपनियों की जरूरत है क्योंकि वही महिलाओं के अनुकूल कार्यस्थल मुहैया करा सकती हैं। भारत के श्रमिकों में महिलाओं की भागीदारी दर तब तक नहीं बढ़ेगी जब तक कि हम औपचारिक क्षेत्र में उनकी हिस्सेदारी नहीं बढ़ाएंगे।
बिना बड़े आकार की कंपनियों के प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था तैयार करना मुश्किल है। चीन और जापान के उभार में सरकारी नीतियों और अंत:संबंधित कारोबारी समूहों की अहम भूमिका रही है। हो सकता है उन देशों को अब इन ढांचों की जरूरत न हो लेकिन भारत को अभी इनकी आवश्यकता है।
भारत के उभार के लिए बड़े कारोबारी समूह आवश्यक हैं। अभी उन्हें भंग करने का वक्त नहीं आया है।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)