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भारत को अमेरिका-चीन टकराव से मिल रहे रणनीतिक अवसर का लाभ उठाना चाहिए

अमेरिका और चीन के बीच छिड़ी कारोबारी जंग के बीच भारत के लिए यह उचित अवसर है कि वह इसका लाभ उठाए। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं अजय शाह

Last Updated- October 13, 2025 | 9:53 PM IST
US China

चीन, वैश्विक मूल्य आधारित व्यवस्था को योजनाबद्ध रूप से कमजोर कर रहा है। उसका सरकार के नेतृत्व वाला आर्थिक मॉडल ऐसे सिद्धांतों पर आधारित है जो विश्व व्यापार संगठन के नियमों के विपरीत हैं। इसमें बहुत बड़े पैमाने पर औद्योगिक सब्सिडी शामिल है जो विश्व स्तर पर अतिरिक्त क्षमता निर्मित करती है। इसके अलावा वह गैर शुल्क अवरोध, राज्य प्रायोजित बौद्धिक संपदा चोरी और जबरिया तकनीक हस्तांतरण का भी इस्तेमाल करता है।

सुरक्षा के क्षेत्र में चीन ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किया है, इसे दक्षिण चीन सागर को लेकर 2016 के स्थायी मध्यस्थता न्यायालय के निर्णय को खारिज करने के उसके निर्णय में भी महसूस किया जा सकता है। वह ताइवान के विरुद्ध सैन्य दबाव का इस्तेमाल कर क्षेत्रीय स्थिरता को नुकसान पहंचाता है और यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस का आर्थिक मददगार बना हुआ है। अपनी प्रतिक्रिया में डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिकी प्रशासन ने विभिन्न क्षेत्रों में भारी भरकम शुल्क दर का इस्तेमाल किया है ताकि चीन के व्यवहार में बुनियादी बदलाव लाया जा सके।

इस विवाद को भूराजनीति के क्षेत्र के ‘चिकन गेम’ की तरह समझा जा सकता है: दो वाहन चालक एक लेन वाली सड़क पर तेजी से एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे हैं। उनमें से जो पहले रास्ता बदलता है उसे चिकन कहा जाता है। अगर दोनों ही रास्ता नहीं बदलते हैं तो इसका नतीजा एक भयंकर टक्कर के रूप में सामने आता है। अमेरिका और चीन के बीच का गतिरोध इसी प्रकार का है। हर पक्ष खुद को ताकतवर दिखा रहा है लेकिन करीबी नजर डालने से बता चलता है कि दोनों की आंतरिक कमजोरी उन्हें ऐसा करने पर विवश कर रही है।

चीन की बात करें तो अर्थव्यवस्था गंभीर ढांचागत कमजोरी की शिकार है। अत्यधिक नकदी वाला संपत्ति क्षेत्र इस संकट के केंद्र में है। इसके चलते डेलवपर्स दिवालिया हो रहे हैं और स्थानीय सरकारें जो अपने राजस्व के बड़े हिस्से के लिए जमीन की बिक्री पर निर्भर हैं वे मुश्किल में हैं। इसने संक्रामक रूप ले लिया और बैंकिंग क्षेत्र भी गहरे दबाव में आ गया। ऐसा इसलिए क्योंकि डेवलपर्स और स्थानीय सरकार की वित्तीय कंपनियां, दोनों का उनसे जुड़ाव था।

सरकार ने आर्थिक राष्ट्रवाद पर जोर दिया और निजी क्षेत्र के आत्मविश्वास को कुचल दिया। युवाओं में बेरोजगारी की दर अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। दशकों की राज्य निर्देशित औद्योगिक नीति ने एक के बाद एक कई उद्योगों में अतिरिक्त क्षमता निर्मित कर दी। इसमें स्टील से लेकर सोलर पैनल और इलेक्ट्रिक वाहन तक सभी शामिल हैं। अब इन क्षेत्रों को वित्तीय रूप से कारोबार योग्य बने रहने के लिए अतिरिक्त उत्पादन का निर्यात करना आवश्यक है। यानी शुल्क और व्यापार अवरोध उनके लिए मुश्किल बढ़ा सकते हैं।

केंद्रीय नियोजना के मिश्रण की नाकामी, संपत्ति के बुलबुले के ध्वस्त होने और जनांकिकी में गिरावट के साथ 1980 के दशक के तत्कालीन सोवियत संघ के साथ ऐतिहासिक साम्यता देखी जा सकती है। उस समय भी ऐसे ही एक ताकतवर नजर आने वाली और केंद्रीकृत नियोजन वाली अर्थव्यवस्था अंदर ही अंदर ध्वस्त हो गई थी। चीन की दुविधा स्पष्ट है। वर्ष 2023 में चीन ने विकसित देशों को मोटे तौर पर 1.85 लाख करोड़ डॉलर का वस्तु निर्यात किया। इसमें से अमेरिका को 427 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात किया गया था। चीन की सरकार राष्ट्रवादी गौरव और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए व्यापार युद्ध को समाप्त करने की व्यावहारिक जरूरत के बीच उलझ गई है।

अमेरिका की बात करें तो संरक्षणवाद की तमाम दुहाइयों के बीच आर्थिक हकीकत भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। ऊंची और व्यापक शुल्क वृद्धि आत्मघाती नीति है जो घरेलू अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक नुकसान पहुंचा रही है। शुल्क वृद्धि ने आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया है, अमेरिकी निर्माताओं के लिए कच्चे माल की लागत बढ़ा दी है और एक तरह से यह उपभोक्ताओं पर कर की तरह काम कर रहा है। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस में पूंजी निवेश के अलावा अमेरिकी आर्थिक वृद्धि में ठहराव नजर आ रहा है। शुल्क वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति संबंधी दबाव बढ़ रहा है। नीतिगत अनिश्चितता के बीच अमेरिकी परिसंपत्तियों से वैश्विक स्तर पर पीछे हटने की प्रवृत्ति के बीच, अमेरिकी डॉलर में उल्लेखनीय गिरावट आई है। अकेले वर्ष 2025 में ही डॉलर और यूरो की विनिमय दर लगभग 11 फीसदी तक घट गई है।

दोनों देश जबरदस्त समस्याओं के बीच ऊंचे दांव वाले ‘चिकन गेम’ में उलझे हुए हैं। दोनों पक्षों पर पीछे हटने का बहुत अधिक दबाव है। हर नेता चाहता है कि वह ताकत दिखाए और रियायतें हासिल करे लेकिन दोनों चाहेंगे कि व्यापार युद्ध समाप्त हो और वे अपनी घरेलू समस्याओं पर ध्यान दे सकें। इससे पता चलता है कि तमाम गर्मागर्मी के बीच अत्यधिक संरक्षणवादी उपाय अस्थायी साबित हो सकते हैं। भारतीय नीति निर्माताओं और कंपनियों के लिए उथल-पुथल वाला माहौल रणनीतिक अवसर तैयार करता है। इसमें सबसे उचित राह हो सकती है गहरे और समझदारी वाले वैश्विक एकीकरण की रणनीति।

पहली बात, भारत को अमेरिका के साथ एक व्यापक व्यापार और निवेश समझौते को प्राथमिकता देनी चाहिए। ऐसा समझौता विदेश नीति के अहम संबंधों को टिकाऊ बनाएगा और तकनीक, वित्त और सेवा क्षेत्र में आर्थिक नजरिये से लाभदायक होगा। दोनों पक्षों के शुल्क और गैर शुल्क गतिरोधों के कारण प्रगति रुकी हुई है। वीजा पर मतभेद, कर जटिलताओं और डेटा के स्थानीयकरण संबंधी नियम भी बाधा बने हुए हैं। इन बाधाओं को दूर करने से भारत वैश्विक बाजारों के साथ एकीकृत हो सकेगा।

दूसरा, यह रणनीतिक मेल भारत की स्थिति को चीन प्लस एक के स्वाभाविक विकल्प के रूप में और मजबूत करता है। इस अवसर का लाभ उठाने के लिए घरेलू ढांचागत सुधारों के प्रति नए सिरे से प्रतिबद्धता आवश्यक है। इसके लिए नियमों और नियामक संस्थाओं के कामकाज में मूलभूत बदलाव की आवश्यकता है। अप्रत्यक्ष कर सुधारों को और गहराई देना तथा एक पारंपरिक और स्पष्ट जीएसटी प्रणाली अपनाना जरूरी है। साथ ही, धीमी न्यायिक प्रक्रिया, श्रम और भूमि कानूनों जैसी बुनियादी समस्याओं का भी समाधान करना होगा। इसका उद्देश्य एक ऐसा वातावरण बनाना है जहां विदेशी और घरेलू कंपनियां आत्मविश्वास के साथ काम कर सकें, जिससे निजी निवेश को प्रोत्साहन मिले और दीर्घकालिक आर्थिक विकास सुनिश्चित हो सके।

तीसरा, भारत को अन्य उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ एकीकरण मजबूत करना चाहिए। इसके लिए गहरे और व्यापक मुक्त व्यापार समझौतों का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान और ताइवान जैसे देश शामिल हैं। ये समझौते केवल व्यापार दस्तावेज नहीं हैं। वे घरेलू शासन को बेहतर बनाने में मददगार हो सकते हैं। ध्यान रहे जैसा कि अर्थशास्त्रियों जगदीश भगवती और ऐनी क्रूगर ने दशकों पहले गौर किया था, वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने वाली कंपनियां आमतौर पर सरकारी नीति-नियमों का दुरुपयोग कर आय अर्जित करने की कोशिश कम करती हैं और अधिक नवाचार करती हैं।

आखिर में भारतीय कंपनियों के लिए रणनीतिक दिशा एकदम स्पष्ट है और वह है वैश्वीकरण। अब यह आवश्यकता है कि हम वैश्विक स्तर पर जाकर कुछ सीखें। बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने साथ उन्नत तकनीकी और प्रबंधकीय कौशल लाती हैं। घरेलू कंपनियों को वैश्विक पूंजी, तकनीक और कुशल कर्मियों के साथ संबद्धता कायम करना चाहिए। कोई कंपनी किस हद तक अंतरराष्ट्रीयकृत है वह उसकी गुणवत्ता का संकेतक है। वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा कंपनियों को घरेलू कारोबारी चक्र और नियामकीय अनिश्चितताओं से बचाती है। यह उन्हें राज्य-प्रायोजित समर्थन की बजाय वास्तविक प्रतिस्पर्धा पर निर्भर होने के लिए मजबूर करती है। नए दौर में कंपनियों को साझेदारों का चयन सोच-समझकर करना होगा। उन देशों को प्राथमिकता देनी होगी जहां भूराजनीतिक और नियामकीय जोखिम कम हों, यानी जहां उच्च भरोसे वाली उदार लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं हों।

First Published - October 13, 2025 | 9:47 PM IST

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