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ट्रंप के दौर में भारत की कूटनीतिक रणनीति: सहयोग से टकराव और नई चुनौतियों तक का सफर

देश को अमेरिका के राष्ट्रपति की कूटनीति से बचाने के लिए हमें अपने सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर विरोधाभासों का करना होगा अवलोकन। बता रहे हैं शेखर गुप्ता

Last Updated- August 03, 2025 | 10:45 PM IST
Trump Tariff

डॉनल्ड ट्रंप का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना इन दिनों चलन में है। भारत में हम भी अपने स्तर पर ऐसा कर रहे हैं। बहरहाल हमें उन्हें दो साल तक और झेलने का तरीका तलाश करना होगा। किसी के पास ऐसी कोई दवा या इलाज नहीं है जिससे उन्हें ‘ठीक’ किया जा सके। भारत को ऐसे तरीके तलाश करने होंगे जिससे वह खुद को ट्रंप के अतार्किक कदमों से बचा सके। खुद को सोशल मीडिया पर ट्रंप की कूटनीति से बचाने के लिए सबसे पहले हमें अपने सत्ता प्रतिष्ठान से संबंधित बहस में मौजूद विरोधाभासों पर नजर डालनी होगी। यहां प्रतिष्ठान से तात्पर्य केवल मोदी सरकार से नहीं बल्कि जनमत में उनका समर्थन करने वालों से भी है। इनमें सोशल मीडिया से लेकर टेलीविजन पैनलिस्ट और अखबारों में संपादकीय और विचार लेख लिखने वाले भी शामिल हैं।

हम इसकी शुरुआत 2014 में मोदी के उभार से कर सकते हैं। यही वह समय था जब हमारी व्यवस्था ने 30 साल के लंबे इंतजार का जश्न मनाया था। यह जश्न एक ऐसे मजबूत नेता के आगमन का था जो भारत की सामरिक, आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक ताकत को पूर्णता दे सके। संक्षेप में कहें तो एक व्यापक राष्ट्रीय शक्ति। पहली चेतावनी हमें शी चिनफिंग की ओर से मिली जब चीन के सैनिक ठीक उसी समय दक्षिण लद्दाख के चुमार क्षेत्र में घुस आए जब मोदी अहमदाबाद में उनकी खातिरदारी कर रहे थे। समय के साथ चीन की सेना का रुख और बिगड़ता गया। हालांकि चीन को लेकर भारत दीर्घकालिक नजरिया रखता है।

कुल मिलाकर माहौल उत्साहवर्धक था। नई दुनिया में भारत का आगमन हो चुका था। जिसे वह बहुध्रुवीयता और बहु गुटबंदी का पाठ पढ़ा रहा था। अगर एक प​श्चिमी सामरिक विद्वान भारत को एक ऐसा ताकतवर देश बताता जिसकी दिशा बदलती रहती है तो कुछ इस प्रकार की प्रतिक्रिया आती: अरे समझदारी बरतिए, आप तुर्की या ब्राजील की बात नहीं कर रहे हैं। हम एक महाशक्ति बन चुके हैं। या बनने वाले हैं। वर्ष 2023 में इसका चरम आया जब जी 20 की बैठक हुई थी। अब तक भारत दुनिया भर में चर्चा का विषय बन चुका था। हम जल्दी ही दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने वाले थे, हम क्वाड के केंद्र में थे बल्कि और भी अधिक महत्त्वपूर्ण थे क्योंकि हम किसी संधि से बंधे नहीं थे। हम उन चार देशों में शामिल थे जो चीन से निगाहें मिलाकर खड़े हो सकते थे। हमने अपनी 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा पर उसके हजारों सैनिकों को व्यस्त कर रखा था।

आखिरकार भारत अपने कद के मुताबिक काम कर रहा था। भारत मंडपम में जी20 देशों के प्रमुखों का आगमन और मोदी के साथ उनका हाथ मिलाना और गले मिलना दुनिया ने देखा। भारत दुनिया को खासकर, पश्चिम को उपदेश दे रहा था। यूरोप खासतौर पर निशाने पर था। आंशिक रूप से रूस के साथ हमारे संबंधों की रक्षा के लिए लेकिन इसलिए भी क्योंकि उसने अपने समर्थकों के साथ बहुत अच्छा तालमेल रखा। ये सारी बातें सत्ता प्रतिष्ठान की बहस की बहुध्रुवीयता में पहले ध्रुव का निर्माण करती हैं।

दूसरा ध्रुव तब उभरता है जब जी 20 शिखर बैठक के समय अमेरिका, कनाडा और कुछ हद तक ब्रिटेन के साथ रिश्तों में खटास उभरती है। निज्जर-पन्नू के मसले की छाया भी पड़ती है लेकिन ट्रुडे के कनाडा को छोड़कर कोई और देश सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहता। पहला स्पष्ट झटका तब लगा जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को जनवरी में क्वाड की बैठक और गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होने के लिए भारत बुलाया गया था, लेकिन उन्होंने आने से इनकार कर दिया। फ्रांस ने हमें शर्मिंदा होने से बचाया।

इस समय तक, हमारी द्विध्रुवीयता स्पष्ट हो चुकी थी और लगातार बढ़ रही थी। इन सभी कार्रवाइयों को जानबूझकर शत्रुतापूर्ण कार्रवाई माना गया। एक दशक तक यह विश्वास बना रहा कि पश्चिमी देश भारत को एक महत्त्वपूर्ण और अपरिहार्य रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखते हैं। यहां तक कि चीन के साथ संकट के दौरान उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी दोनों क्षेत्रों में, अमेरिका की मदद को लेकर भी एक शांत स्वीकृति देखने को मिली थी।

अब पश्चिम खिलाफ हो चुका था। उसे आत्मनिर्भर भारत का उभार बरदाश्त नहीं था। वह हमारी जड़ों को खोदना और शाखाओं को छांटना चाहता था ताकि हमारा कद बौना रह जाए। एक दशक तक खुद को अपरिहार्य, अनिवार्य, स्वाभाविक सहयोगी मानने के बाद, इस प्रतिष्ठान का एक बड़ा हिस्सा इंदिरा युग की चुभन की ओर लौट रहा था। रूसी तेल खरीद को भी रणनीतिक स्वायत्तता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया जबकि वास्तव में यह प्रतिबंधों के कारण किफायती कीमतों के दायरे में की गई खरीद थी। चतुर कूटनीति के तहत इसे चुपचाप अंजाम देना चाहिए था। सच कहें तो, पश्चिम को ठेंगा दिखाने और उसकी अवज्ञा करने का दावा हमारे राजनयिकों या राजनेताओं की तरफ से नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी के व्यापक तंत्र की तरफ से आया। यह कुछ-कुछ ऐसा था कि देखो, हम भी चीन की तरह उनका मुकाबला कर सकते हैं।

गत वर्ष तकरीबन इसी समय पहले के उत्साह का स्थान पीड़ा ने लेना शुरू कर दिया था। शेख हसीना को सत्ता से हटाए जाने के लिए अमेरिका, उदारवादी संस्थानों और ‘दुष्ट’ क्लिंटन-ओबामा डीप स्टेट को दोषी ठहराया गया। उन्होंने यकीनन उन ताकतों की मदद की जिन्हें वे लोकतांत्रिक मानते थे। वैसे ही जैसे अरब उभार में किया गया था लेकिन इस बार भागीदारी काफी कम थी। इन बातों ने मोदी सरकार को और अधिक नाराज किया क्योंकि यह घटना तकरीबन उसी समय हुई जब भारत के चुनाव नतीजे आए थे और उनका गठबंधन 240 सीटों पर रुक गया था। ऐसा लगा मानो दुनिया दोबारा उनको कमजोर करने की कोशिश में लग गई है।

यह हमें दो तरह से नुकसान पहुंचाता है। पहला, 1998 के बाद के 25 सालों में अमेरिका के साथ रिश्तों में जो निवेश किया गया था, वह बेकार हो गया। दूसरा, हम बहुत नाराज हो गए, बहुत अधिक पीड़ित महसूस करने लगे और यह पूछ ही नहीं सके कि हमारी कूटनीति और हमारी खुफिया प्रणाली कैसे पराजित हो गई। भारत ने बांग्लादेश में काफी कुछ निवेश किया है और वह केवल कारोबार, बिजली या सीमा से जुड़े मसलों के निपटान तक सीमित नहीं है। भारत सालाना 20 लाख बांग्लादेशी नागरिकों को वीजा जारी कर रहा था। किसी को अंदाजा नहीं था कि हसीना इतनी अलोकप्रिय हो चुकी हैं।

अंदर ही अंदर एक तूफान पल रहा था। तथ्य यह है कि पश्चिम ने ढाका में हमें पछाड़ दिया। बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों अमेरिका से हमसे बेहतर ढंग से निपटे। यह तब जब हम प्रवासियों के उभार का जश्न मना रहे थे, भारतीय मूल के शीर्ष सीईओ अमेरिकी राजनीति में उभरते भारतीय मूल के लोगों की गणना करते हुए खुश थे। ये ह​स्तियां हमारी पैरोकार बनें इसके लिए हमारी कूटनीति को उनको अपने साथ जोड़ना था, लेकिन हम विफल रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि हम एक ठुकराए गए प्रेमी की भूमिका में आ गए। इस पूरी कहानी में अमेरिका एक महाशक्ति है जो शत्रु की भूमिका में है और हमें उससे अपने दम पर लड़ना है। पाकिस्तान एक शत्रु है, चीन उसका इस्तेमाल हमारे विरुद्ध करता है और रूस कमजोर पड़ चुका है। हर कोई हमारे विरुद्ध है। अल्लामा इकबाल ने भी लिखा है, ‘सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहां हमारा।’ हम अकेले लड़ेंगे। हम पहले भी ऐसा कर चुके हैं। हम बहुत देशभक्त देश हैं। स्वदेशी जागरण मंच पहले ही कह चुका है कि हम लड़ाई को तैयार हैं। ट्रंप को क्या पता?

यह हमारी द्विध्रुवीयता का दूसरा, प्रमुख पहलू है। अफसोस की बात यह है कि हम नई वास्तविकता का आकलन किए बिना और उसके अनुसार प्रतिक्रिया दिए बिना ही इसमें पीछे की ओर कूद पड़े हैं। उदाहरण के लिए, मध्यस्थता का मुद्दा। सरकार इसे आसानी से स्वीकार करके संभाल सकती थी कि 1987 के बाद किसी भी भारत-पाकिस्तान संकट में, विदेशी शक्तियों ने पाकिस्तान पर दबाव डालकर मदद की है। विदेशी भागीदारी हमेशा से रही है, लेकिन शिमला समझौते के बाद, कश्मीर पर मध्यस्थता के लिए कभी नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके लिए एक बढि़या शब्द गढ़ा था: सुविधा। ट्रंप को झूठा बताने के संकेत देने के बजाय सरकार संसद में ट्रंप का धन्यवाद कर सकती थी कि उन्होंने पाकिस्तान को सदबुद्धि दी।

ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि राहुल गांधी ने युद्ध विराम के तत्काल बाद सवाल उठा दिया कि भारत ने मध्यस्थता क्यों स्वीकार कर ली। हम पहले भी लिख चुके हैं कि मोदी सरकार राहुल की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया दिए बिना नहीं रह सकती। वे अक्सर सरकार को उसका एजेंडा बदलने को उकसाते हैं। ऐसे में पीडि़त होने का भाव प्रबल हुआ। यह तब है जब वास्तविक सत्ता प्रतिष्ठान, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, वाणिज्य मंत्री आदि सभी खामोश हैं। वे समझदारी से ट्रंप की अनदेखी कर रहे हैं और परदे के पीछे बातचीत चल रही है। बहरहाल, इनके समर्थकों के बीच जो धारणा व्याप्त है वह खुद के लिए ही चुनौती खड़ा करने वाली है।

First Published - August 3, 2025 | 10:45 PM IST

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