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बढ़ती पारदर्शिता और राजकोषीय सूझबूझ: बजट में वह अहम जानकारी जिसकी कर दी गई अनदेखी

इस वर्ष के बजट में एक नया वक्तव्य शामिल किया गया है, जो पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में स्वागत योग्य कदम है। विस्तार से बता रहे हैं ए के भट्‌टाचार्य

Last Updated- September 12, 2024 | 9:40 PM IST
Increasing transparency and fiscal prudence: Important information that was ignored in the budget बढ़ती पारदर्शिता और राजकोषीय सूझबूझ: बजट में वह अहम जानकारी जिसकी कर दी गई अनदेखी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत 23 जुलाई को 2024-25 का बजट पेश किया और संसद ने उसे 8 अगस्त को मंजूरी दे दी। इस बजट में वित्त मंत्री ने एक नई और अहम जानकारी दी, जिसकी लगभग अनदेखी ही कर दी गई। यह जानकारी या खुलासा बजट के व्यय दस्तावेज के वक्तव्य क्रमांक 27-ए में दिया गया है।

इसे उसी दस्तावेज में शामिल वक्तव्य क्रमांक 27 समझने की भूल न करें, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा पूरी तरह निपटाए जाने बॉन्ड और राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) से ऋण लेकर चलाई जा रही योजनाओं और धनराशियों का जिक्र होता है। इन्हें बाद में सरकारी खजाने से चुकाया जाता है। यह अलग बात है कि पिछले दो वर्षों में सूझबूझ के साथ हो रहे राजकोषीय प्रबंधन के कारण 2021-22 के बाद से ऐसे ऋण या बॉन्ड का सहारा नहीं लेना पड़ा है।

किंतु वक्तव्य 27 को व्यय दस्तावेज में फिर भी रखा गया है, जो 2016-17 से 2021-22 तक की गई राजकोषीय गलती की याद दिलाता है। ध्यान रहे कि बॉन्ड और एनएसएफएफ से लिए गए ऋण को राजकोषीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम के तहत सरकारी कर्ज का हिस्सा माना जाता है। दूसरे शब्दों में उनकी मदद लेने से सरकार को वास्तव में हुए राजकोषीय घाटे पर पर्दा पड़ जाता है।

इससे भी बुरी बात यह है कि मार्च 2019 तक के बजट में इन बॉन्ड या ऋण का कोई जिक्र नहीं किया गया था। 2019-20 के बजट में पहली बार व्यय दस्तावेज में वक्तव्य क्रमांक 27 दिखाई दिया था। इसके साथ ही ऐसे मामलों में पारदर्शिता के संबंध में जागरूकता बढ़ी। अगले दो सालों में वित्त मंत्रालय ने सचेत प्रयास किए कि ऐसे बॉन्ड और ऋण की कम से कम मदद ली जाए। 2022-23 में यह मदद लेनी बंद भी कर दी गई।

2016-17 से 2021-22 तक छह वर्षों के दौरान केंद्र सरकार ने बॉन्ड और एनएसएसएफ ऋण के जरिये करीब 6 लाख करोड़ रुपये जुटाए। इसमें से करीब 4.61 लाख करोड़ रुपये एनएसएसएफ ऋण से आए थे और बॉन्ड की हिस्सेदारी करीब 1.37 लाख करोड़ रुपये थी। परंतु पिछले दो वर्षों में सरकार ने इस रकम का तेजी से निपटान किया और एनएसएसएफ का पूरा ऋण चुका दिया। अब सरकारी खजाने पर केवल 1.37 लाख करोड़ रुपये की देनदारी बची है। यह राजकोषीय सूझबूझ सराहनीय है।

तकरीबन ऐसी ही समझदारी और पारदर्शिता दिखाते हुए 2024-25 के बजट दस्तावेज में पहली बार वक्तव्य क्रमांक 27-ए पेश किया गया जिसमें चुनिंदा सरकारी कंपनियों द्वारा बजट से इतर जुटाए गए संसाधनों का ब्योरा शामिल है। ये कंपनियां हैं भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएचएआई) और इंडियन रेलवे फाइनैंस कॉरपोरेशन (आईआरएफसी)।

इन दोनों कंपनियों द्वारा जुटाए गए संसाधन देनदारी हैं, लेकिन एफआरबीएम अधिनियम के तहत उन्हें केंद्र सरकार का कर्ज नहीं माना जाता है। फिर भी वित्त मंत्रालय ने इन उधारियों को अतिरिक्त जानकारी के रूप में सार्वजनिक पटल पर रखा। इससे पता चलता है कि वित्त मंत्रालय राजकोषीय सूझबूझ को कितनी गंभीरता के साथ ले रहा है।

उदाहरण के लिए एनएचएआई की स्थापना भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण अधिनियम के तहत की गई थी। यह बाजार से धन उधार लेता है और टोल संग्रह तथा अन्य प्रकार की आय से उसे चुकाता है। इसी प्रकार आईआरएफसी भारतीय रेल के साथ पट्टे वाली अपनी व्यवस्था के जरिये धन जुटाती है ताकि रेलवे की रोलिंग स्टॉक की जरूरतें पूरी की जा सकें।

इसमें केंद्र के खजाने के लिए वित्तीय जोखिम साफ नजर आते हैं। अगर एनएचएआई अपना कर्ज चुकाने के लिए टोल से पर्याप्त कमाई नहीं कर पाया तो उसे उबारने के लिए केंद्र सरकार को ही आगे आना होगा। इसका बोझ सरकारी खजाने पर ही पड़ेगा। इसी तरह आईआरएफसी धन की कमी के कारण बॉन्डधारकों को रकम नहीं दे पाई या कर्ज नहीं चुका पाई तो उसकी भरपाई रेल मंत्रालय को ही करनी होगी।

अगर एनएचएआई और आईआरएफसी की बकाया देनदारी तेजी से बढ़ती है तो जोखिम और अधिक हो जाएगा। 2019-20 में एनएचएआई और 2020-21 में आईआरएफसी की देनदारी बढ़ते हुए हम देख ही चुके हैं। 2013-14 में एनएचएआई की बकाया देनदारी 23,356 करोड़ रुपये थी, जो 2019-20 में नौ गुना बढ़कर 2.48 लाख करोड़ रुपये हो गई।

आईआरएफसी की बकाया देनदारी 2013-14 के 76,539 करोड़ रुपये से बढ़कर 2020-21 में 4.09 लाख करोड़ रुपये हो गई। बीते कुछ वर्षों में दोनों की बकाया देनदारी में इजाफे की गति काफी धीमी हुई है और उनकी सालाना शुद्ध अतिरिक्त उधारी भी घटी है। इसमें संदेह नहीं है कि बजट दस्तावेज में शामिल करने से इसके प्रति जागरूकता बढ़ेगी और उन लोगों को सावधानी बरतने का संदेश मिलेगा, जो आगे चलकर केंद्र में लोक वित्त संभालेंगे।

सावधानी का संदेश आवश्यक है क्योंकि अतीत में अक्सर सरकारें खजाने को हुआ वास्तविक घाटा छिपाने के लिए राजकोषीय बाजीगरी करती रही हैं। 1987 में अपना इकलौता बजट पेश करते हुए राजीव गांधी ने तेल पूले खाते में मौजूद अतिरिक्त रकम को खामोशी से सरकार की व्यय पूर्ति में इस्तेमाल कर लिया था। यह घाटे को कम दिखाने का चतुराई भरा लेकिन राजकोषीय दृष्टि से नासमझी भरा कदम था।

कई वर्ष बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के वित्त मंत्री पलनिअप्पन चिदंबरम और उनके बाद आए प्रणव मुखर्जी ने 2005 से 2010 के बीच तेल कंपनियों को कीमत नहीं बढ़ाने के कारण हुए घाटे की भरपाई सीधे सब्सिडी देकर नहीं की बल्कि 1.34 लाख करोड़ रुपये के तेल बॉन्ड जारी कर दिए। उर्वरक कंपनियों के लिए भी इसी वजह से उर्वरक बॉन्ड जारी किए गए। इस तरह के बॉन्ड जारी करने की कोई जानकारी 2008-09 तक बजट में नहीं दी गई।

खुशकिस्मती से 2010-11 में यह राजकोषीय नासमझी बंद हो गई। परंतु खजाने पर इन बॉन्ड का बोझ ब्याज की शक्ल में आया, जो एक के बाद एक सरकारों को परेशान करता रहा। वर्तमान सरकार को भी यह बोझ उठाना पड़ा है। मोदी सरकार ने भी सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए बॉन्ड जारी किए, जिस पर सवाल खड़ा किया जा सकता है।

मगर उसने कम से कम खुलासा तो किया है और सभी को बताया है कि ब्याज और मूलधन चुकाने में अगले कुछ वर्षों तक कितनी रकम जाएगी। जो भी हो आज के खर्च का बोझ भविष्य के वित्त मंत्रियों और सरकारों पर डालना राजकोषीय दृष्टि से गैर जिम्मेदाराना कदम होता है और बिना जानकारी दिए किया जाए तो और भी नुकसानदेह होता है।

वर्ष 2024-25 के बजट में पहली बार 2023-24 के व्यय एवं प्राप्ति के प्रमुख आंकड़े शामिल किए गए हैं, जो जुलाई में बजट तैयार करते समय आ गए थे। ताजातरीन आंकड़ों का इस्तेमाल सराहनीय है। परंतु बजट दस्तावेज में वक्तव्य 27-ए को शामिल करना और भी सराहनीय है, जबकि एफआरबीएम अधिनियम के मुताबिक ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

उम्मीद करनी चाहिए कि यह वक्तव्य आने वाले वर्षों में भी बजट में रहेगा ताकि सरकार और लोक नीति पर टिप्पणी करने वाले बकाया देनदारी में किसी भी अस्वाभाविक उछाल की ओर ध्यान दिला सकें और सरकार इसे चेतावनी मानकर जरूरी कदम उठा सके। वाणिज्यिक गतिविधियों में लगे सरकारी स्वामित्व वाले और भी सांविधिक निकायों की बकाया देनदारी को भी शायद इस वक्तव्य में शामिल किया जाना चाहिए ताकि इसे अधिक ठोस और सार्थक स्वरूप दिया जा सके।

First Published - September 12, 2024 | 9:40 PM IST

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