नई सरकार के कार्यकाल में समावेशी विकास की नीति देश को ब्राजील के बजाय जापान की तरह तरक्की करने की राह पर ले जाएगी। बता रहे हैं रथिन राय
भारत में नई सरकार का गठन हो गया है। अब सरकार के समक्ष कई गंभीर आर्थिक चुनौतियां हैं जिनका प्रभावी ढंग से समाधान होने पर ही भारत विकास यात्रा पर निर्बाध रूप से आगे बढ़ सकता है।
सबसे पहले चुनौती रोजगार के अभाव से जुड़ी है। वर्ष 2014 के बाद चार चीजें बदतर हो गई हैं। ये बिगड़े हालात की तरफ इशारा कर रहे हैं। इसे देखते हुए सरकार की तरफ से गंभीर प्रयास की आवश्यकता है।
पहली बात, देश में 18 से 35 वर्ष के दायरे में 10 करोड़ लोग रोजगार तलाश नहीं कर रहे हैं और न ही उनके पास शिक्षा या किसी तरह का प्रशिक्षण है। दूसरी बात, देश के श्रम बल का 45 प्रतिशत हिस्सा जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है।
तीसरी बात, उत्तरी राज्यों से दक्षिणी राज्यों और देशभर से विदेश की तरफ पलायन स्थिर एवं सुरक्षित जीवन के लिए सबसे आकर्षक विकल्प बना हुआ है। चौथी बात, दूसरा सबसे प्रमुख आकर्षण सरकारी नौकरी के प्रति है जिसे पाने के चक्कर में लाखों युवा अपना समय बरबाद कर रहे हैं।
वर्तमान स्थिति में सरकार ने उन लोगों के लिए मुआवजे का प्रावधान कर रखा है जो कहीं पलायन नहीं कर पा रहे या सरकारी नौकरी में नहीं आ रहे हैं। कृषि क्षेत्र में लगे लोगों को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का सहारा दिया जा रहा है। सभी तरह की सब्सिडी और नकदी अंतरण से यह योजना इन लोगों को रोजमर्रा की जरूरतों का महज कुछ हिस्सा खरीदने में मदद मिल रही है। इ
सका परिणाम यह है कि देश लचर कृषि क्षेत्र, 90 प्रतिशत अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और लगभग विनिर्माण उद्योग विहीन उत्तर एवं पूर्व (जहां देश की अधिकांश आबादी रहती है) जैसी चुनौतियों से उलझ कर रह गया है।
दूसरी चुनौती उपभोग/खपत से जुड़ी है। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में उपभोग में वृद्धि पिछले कुछ समय से कमजोर रही है। खतरनाक बात तो यह है कि उपभोग का एक बड़ा हिस्सा ऋणों पर टिका हुआ है।
दूसरी तरफ, महंगी वस्तुओं का उपभोग बेरोकटोक बढ़ता ही जा रहा है। वाहन जैसे क्षेत्रों में महंगी कारें बिक्री बढ़ा रही हैं, न कि सस्ती कारें। हवाई यात्रा की बढ़ती मांग के बीच रेल सेवा जरूरत के हिसाब से सीमित की जा रही है।
न्यूनतम वेतन पाने वाले लोगों के लिए ईंधन और बिजली की तरह आवास की व्यवस्था भी सब्सिडी के दम पर ही हो पाएगी। दुनिया में सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था में अधिकांश लोग ऋण, सब्सिडी के बिना बेहतर और आर्थिक रूप से सुरक्षित जीवन जीने की हालत में नहीं हैं।
तीसरी चुनौती उत्पादकता से जुड़ी है। मेरे विचार से यह समस्या असमानता का संकेत है और इसका तार समाज से जुड़ा हुआ है। इस चुनौती से निपटने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास करना होगा। उत्तर प्रदेश और बिहार नेपाल से गरीब हैं। इन दोनों राज्यों से श्रम एवं पूंजी का प्रवाह देश के पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में होता है।
इसका मतलब है कि ऐसे लोगों के मूल स्थानों या राज्यों में विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्रों से जुड़ी नौकरियां नहीं होने के कारण उन्हें देश के दूसरे राज्यों में रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है। आधारभूत ढांचे का इस्तेमाल सामान तटीय बंदरगाहों तक ले जाने के लिए न होकर लोगों को एक से दूसरे स्थान तक पहुंचाने (कोविड महामारी का वाकया तो जरूर याद होगा) के लिए हो रहा है। जाति, धर्म एवं लिंग भी उत्पादकता पर असर डालते हैं। भाई-भतीजावाद और अपराधशीलता प्रवृत्ति को समाज में संचय और संपन्नता के बजाय स्थान मिलना स्थिति को और भयावह बना रहा है।
ये भारत के विकास की राह में गंभीर, बदतर होती और लंबे समय से चली आ रही चुनौतियां हैं। मगर ये मुद्दे चुनाव में अधिक प्रभावी नहीं दिखे और न ही नतीजों में इनकी स्पष्ट छाप मिली। चुनाव के बाद जनता के फैसले यानी नतीजों में विविधता यह बात स्पष्ट करती है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में नुकसान उठाना पड़ा वहीं, इंडी गठबंधन (इंडिया) को इन दोनों राज्यों में बढ़त मिली मगर बिहार और तेलंगाना में इसका उल्टा हुआ। यह इस बात का संकेत है कि विकास से जुड़े मुद्दे मौजूदा चुनावों के लिए प्रत्यक्ष तौर पर मायने नहीं रखते हैं।
अगर चुनावी राजनीति इस प्रतिस्पर्द्धा के इर्द-गिर्द घूमती है कि कौन बेहतर क्षतिपरक राज्य दे सकता है या आर्थिक अवसर हाथ से निकलने की भरपाई बेहतर तरीके से कौन कर सकता है तो फिर चुनौतियां कम नहीं होंगी। इनके साथ अगर संवैधानिक लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन और राजनीतिक समावेशन लगातार विवाद में रहते हैं तो देश वास्तविक रूप से कभी विकासोन्मुख नहीं हो पाएगा।
राजनीतिक तंत्र इन व्यापक चुनौतियों से बेपरवाह है और केवल राजकोषीय घाटे एवं रीपो दर में मामूली बदलाव और कर से जुड़े विषयों पर बहस करने से ही संतुष्ट है। इन बातों में बेवजह समय बरबाद न कर नीति निर्धारकों को वर्तमान समय की चुनौतियों को दूर करने पर ध्यान देना चाहिए।
मगर देश में इन चुनौतियों से निपटने वाले लोग तभी आएंगे जब राजनीतिज्ञ बदलाव लाने की दिशा में काम करेंगे और एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा को आगे बढ़ाएंगे जो राष्ट्र के विकास के लिए सामूहिक प्रयासों को बढ़ावा देने में सक्षम होगी।
एक ऐसी औद्योगिक नीति पर विचार किया जाना चाहिए जिससे विनिर्माण में नयापन आए और औपचारिक आर्थिक गतिविधियों की हिस्सेदारी बढ़ सके। न्यूनतम वेतन अर्जित करने वालों की घरों की जरूरत पूरी करने के लिए मध्यम अवधि की योजना जरूरी है। केवल निर्यात और यूनिकॉर्न (एक अरब डॉलर से अधिक मूल्यांकन वाली स्टार्टअप इकाई) को लेकर खुशफहमी में रहने से काम नहीं चलेगा।
राष्ट्रीय आय में वेतन की शिथिल पड़ी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए एक सक्रिय आय नीति की आवश्यकता है। इसके साथ ही एक ऐसी नीति की भी जरूरत है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और आर्थिक दृष्टिकोण से स्थिर एवं लाभकारी कृषि क्षेत्र के हितों को शहरी क्षेत्रों में बड़बोलापन दिखाने वाले लोगों को सस्ता भोजन देकर हमेशा सूली पर नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। इस तरह के विचार राजनीतिक बहस का हिस्सा होना चाहिए और संसद में इन पर चर्चा होनी चाहिए। मगर ऐसा नहीं हो पा रहा है।
चुनावों में अधिक वजूद नहीं मिलने और पहले से मौजूद मुद्दों पर मची तकरार के बावजूद मैं लगातार एक समावेशी विकास की राह पर सभी के साथ आने की उम्मीद कर रहा हूं। समावेशी विकास की यह नीति देश को ब्राजील के बजाय जापान की तरह तरक्की करने की राह पर ले जाएगी। लंबे समय से चले आ रहे विवादित मुद्दों के समाधान के लिए इससे बेहतर कोई विकल्प नहीं हो सकता। समावेशी विकास की नीति एक प्रभावी औजार है।
(लेखक कौटिल्य स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में प्राध्यापक और ओडीआई लंदन में अतिथि वरिष्ठ फेलो हैं। )