इस सदी के पहले 15 वर्षों में सरकार के साथ काम करने में भारतीय उद्योग जगत ने दो प्रमुख मुद्दों का मुखर होकर विरोध किया। एक भुगतान में अत्यधिक देर और चयन की एल-1 (सबसे कम बोली लगाने वाला) पद्धति में मौजूद खामियां।
ऐसा माना जाता है कि कई व्यवसाय ऐसे हैं जो कभी सरकार के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता थे, लेकिन तमाम कमियों के कारण उन्हें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए जूझना पड़ा। अंतत: वे धीरे-धीरे रास्ते से हट गए और देश गुणवत्तापूर्ण आपूर्तिकर्ताओं से वंचित हो गया।
ऐसा नहीं है कि सरकार इन मुद्दों के प्रति असंवेदनशील रही या इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। उदाहरण के लिए प्राप्ति पोर्टल (पेमेंट रेटिफिकेशन ऐंड एनालिसिस इन पॉवर प्रोक्योरमेंट फॉर ब्रिंगिंग ट्रांसपेंरेंसी इन इनवाइसिंग ऑफ सप्लायर्स) ने बिजली वितरण कंपनियों द्वारा ऊर्जा उत्पादकों को किए जाने वाले भुगतान की प्रक्रिया में कमियों का पता लगाने और उनमें सुधार के लिए काफी काम किया। ऊर्जा मंत्रालय ने इसमें देरी करने वालों पर बहुत कड़ाई बरती।
सरकार ने समय-समय पर छोटी और मझोली कंपनियों का पैसा रोकने या देर से देने वालों पर जुर्माना लगाने तथा इस संबंध में सख्त दिशानिर्देश जारी कर सुधार के प्रयास किए। लेकिन, टीवी सोमनाथन (वर्तमान में कैबिनेट सचिव) जब वित्त मंत्रालय में थे, तो उन्होंने जमीन पर व्यवस्थित रूप से कार्रवाई करते हुए इस कमजोरी को दूर करने की कोशिश की। वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग ने 29 अक्टूबर, 2021 को ‘खरीद और परियोजना प्रबंधन पर सामान्य दिशानिर्देश’ शीर्षक से एक अधिसूचना जारी की थी। सुधारों पर अन्य सरकारी घोषणाओं के विपरीत इसे बहुत कम करके आंका गया, लेकिन यह जमीनी स्तर पर चुपचाप किए जाने वाले सुधारों का उत्कृष्ट उदाहरण था।
सामान्य तौर पर सरकारी सेवाओं और अनुबंधों के लिए खरीद में अव्यवस्था पर अपेक्षित कार्रवाई के लिए यह 22 पृष्ठों का नोटिस भर था, लेकिन इसकी जिस बात ने निजी क्षेत्र को राहत और खुशी दी, वह यह कि इसमें भुगतान में देरी करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की हिदायतें दी गई थीं। इसमें साफ तौर पर व्यवस्था की गई थी कि पात्र चालू खाता बिलों का कम से कम 75 प्रतिशत भुगतान बिल जमा करने के 10 कार्यदिवसों के भीतर किया जाना चाहिए। शेष पैसा बिलों की अंतिम जांच परख के बाद 28 कार्यदिवसों में हर हाल में दे दिया जाए।
इसके अलावा, परियोजनाओं पर काम करने वाली एजेंसियों को 100 करोड़ रुपये से अधिक के बिलों की निगरानी तथा ठेकेदारों को अपने बिलों की स्थिति का पता लगाने के लिए ऑनलाइन व्यवस्था शुरू करने का निर्देश दिया गया था। चयन के नियमों में भी सुधार किया गया।
सभी परामर्शदाता निविदाओं के लिए तीन खरीद प्रक्रियाओं- क्यूसीबीएस (क्वालिटी ऐंड कॉस्ट बेस्ड सेलेक्शन), एलसीएस (लीस्ट कॉस्ट सिस्टम) और एसएसएस (सिंगल सोर्स सेलेक्शन) का पालन पहले से किया जा रहा था। नए नियमों में एफबीएस (फिक्स्ड बजट सेलेक्शन) की व्यवस्था दी गई, जहां कीमत तय होती है और चयन अधिकतम योग्यता के आधार पर होता है।
कार्य और गैर परामर्शदायी सेवाओं के लिए अधिसूचना में क्यूसीबीएस का रास्ता अपनाया गया, जिसकी सामान्य तौर पर अभी तक इजाजत नहीं थी। अब दो शर्तों के साथ इसे आगे बढ़ाया गया। एक, जहां परियोजना को सक्षम प्राधिकारी द्वारा क्यूओपी (क्वालिटी-ओरिएंटेड प्रोक्योरमेंट) घोषित किया गया हो और दूसरा, गैर परामर्शी सेवाओं के लिए जहां अनुमानित खरीद मूल्य 10 करोड़ रुपये से अधिक न हो।
क्यूसीबीएस के अंतर्गत गैर वित्तीय मानकों का अधिकतम भार 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। इस प्रकार बहुत अधिक आलोचनाओं में घिरी एल1 (सबसे कम बोली लगाने वाला) व्यवस्था को अंतत: समाप्त कर कर दिया गया।
एक बोली नियम लागू करने की इजाजत देकर इसने पिछली तमाम बाधाओं को भी दूर करने का काम किया। यहां तक कि जब केवल एक बोली लगे तो भी प्रक्रिया को वैध माना जाना चाहिए, बशर्ते प्रक्रिया संतोषजनक रूप से विज्ञापन के जरिये आगे बढ़ी हो और निविदा जमा कराने के लिए पर्याप्त समय दिया गया हो तथा यह तार्किक और अनुमानित मूल्य पर आधारित हो। अभी भी कई ऐसी खामियां हैं, जिन पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
पहली, इसमें अभी माल को बाहर रखा गया है। लेकिन, चाहे परिष्कृत मेडिकल उपकरणों का मामला हो अथवा ड्रोन खरीदने का, इसमें क्यूसीबीएस पद्धति को लागू किया जाना चाहिए। इसे केवल कार्य और सेवाओं तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए।
दूसरा, क्यूसीबीएस में गैर वित्तीय मामलों के लिए अधिकतम 30 प्रतिशत भार की सीमा इस प्रारूप के प्रचार-प्रसार में साहस की कमी को दर्शाती है। भारतीय कंपनियां बहुपक्षीय वित्त पोषण के साथ-साथ परामर्शदायी समेत विशिष्ट बोलियों के मामले में पूरी तरह 80:20 (तकनीकी:वित्तीय) ढांचे को ही अपनाती हैं।
तीसरे, नए नियमों संबंधी अधिसूचना खरीद विधि के रूप में स्विस चुनौती पर भी कुछ नहीं कहती है।
चौथे, जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात इस दस्तावेज से गायब है, वह यह कि राज्य और राज्य स्तरीय सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां (पीएसयू) सुधारों को किस प्रकार अपनाएंगी और अपने यहां उन्हें कैसे लागू करेंगी। अभी ये नियम केवल केंद्र सरकार से जुड़े संस्थानों और केंद्रीय पीएसयू पर ही लागू होते हैं। मालूम हो कि सार्वजनिक खरीद में राज्यों की हिस्सेदारी 60 फीसदी है।
मौजूदा अधिसूचना का सबसे प्रभावशाली और आधिकारिक पहलू यह है कि इसमें किए गए प्रावधान भारत संघ के सामान्य वित्तीय नियमों का हिस्सा हैं। इसने केंद्र सरकार की खरीद एजेंसियों के वित्त विभाग में बुरी तरह खलबली मचा दी है, क्योंकि नियमों के उल्लंघन पर अब फौरन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) और केंद्रीय सतर्कता आयोग का हथौड़ा सिर पर आ पड़ेगा।
चौंकाने वाली बात यह है कि भारतीय उद्योग जगत की ओर से सार्वजनिक खरीद प्रक्रिया में इतने बड़े सुधारों को वह तवज्जो नहीं दी गई, जितनी दी जानी चाहिए थी।
विश्लेषक और वित्तीय मामलों के टिप्पणीकार भी इस पर कुछ खास कहते दिखाई नहीं दिए। अब इस अधिसूचना को जारी हुए तीन साल बीत चुके हैं, तो यह सवाल खास तौर पर उठना लाजिमी है कि सरकार के साथ व्यापार करने के दौरान नए नियमों का क्या प्रभाव पड़ा है? अब वित्त मंत्रालय के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह इन संशोधित नियमों से कारोबारी माहौल में आए परिवर्तन का पता लगाने के लिए स्वतंत्र रूप से आकलन कराए।
अंतत: भारत के निजी क्षेत्र को इन ऐतिहासिक उपायों की ओर से आंख बंद कर नहीं बैठना चाहिए। तमाम उद्योग संघों और चैंबर ऑफ कॉमर्स को सभी स्तरों पर इन नए नियमों को लागू करने की मांग उठानी चाहिए और इन सुधारों के कारोबार पड़ने वाले असर का अपने स्तर पर भी विश्लेषण करना चाहिए।
(लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ हैं। वह इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक और प्रबंध ट्रस्टी भी हैं)