facebookmetapixel
नवंबर में थोक महंगाई शून्य से नीचे, WPI -0.32 प्रतिशत पर रही; खाद्य तेल व दलहन पर निगरानी जरूरीई-कॉमर्स क्षेत्र की दिग्गज कंपनी फ्लिपकार्ट का मुख्यालय सिंगापुर से भारत आएगा, NCLT ने दी मंजूरीघने कोहरे और गंभीर प्रदूषण से उत्तर भारत में 220 उड़ानें रद्द, दिल्ली में कक्षाएं ऑनलाइन चलेंगीप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे अम्मान, भारत-जॉर्डन द्विपक्षीय संबंधों में प्रगाढ़ता का नया अध्यायपहली छमाही की उठापटक के बाद शांति, दूसरी छमाही में सेंसेक्स-निफ्टी सीमित दायरे में रहेडॉलर के मुकाबले लगातार फिसलता रुपया: लुढ़कते-लुढ़कते 90.80 के रिकॉर्ड निचले स्तर तक पहुंचाभारत के निर्यात ने रचा रिकॉर्ड: 41 महीने में सबसे तेज बढ़ोतरी से व्यापार घाटा 5 महीने के निचले स्तर परमनरेगा बनेगा ‘वीबी-जी राम जी’, केंद्र सरकार लाने जा रही है नया ग्रामीण रोजगार कानूनGST कटौती का असर दिखना शुरू: खपत में तेजी और कुछ तिमाहियों तक बढ़ती रहेगी मांगविदेशी कोषों की बिकवाली और रुपये की कमजोरी का असर: शेयर बाजार मामूली गिरावट के साथ बंद

आयात शुल्क में बढ़ोतरी की नीति कितनी कारगर?

Last Updated- December 15, 2022 | 1:00 AM IST

एक फरवरी, 2018 को आम बजट में 46 उत्पादों पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया गया था ताकि ‘घरेलू उद्योगों को समुचित संरक्षण’ दिया जा सके। यह मोदी सरकार के पहले कार्यकाल का पांचवां और अंतिम पूर्ण बजट था। परंतु यह पहला मौका नहीं था जब इस सरकार ने अपनी संरक्षणवादी अभिरुचि प्रकट की।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा पेश किए गए चार बजट में भी सीमा शुल्क में इजाफा किया गया था लेकिन कुछ ही वस्तुओं पर। पहले तीन बजट में कहा गया कि यह बढ़ोतरी ‘घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने’ और ‘घरेलू मूल्यवद्र्धन’ तथा ‘मेक इन इंडिया’ को प्रोत्साहन देने के लिए की गई। चौथे बजट में थोड़ा खुलकर कहा गया कि ‘घरेलू उद्योग को संरक्षण’ देने के लिए शुल्क वृद्धि आवश्यक है।
फरवरी 2018 के पांचवें बजट में संरक्षणवाद उस समय खुलकर सामने आ गया जब एक साथ ढेर सारी वस्तुओं के सीमा शुल्क में तत्काल प्रभाव से इजाफा किया गया। यह आम चुनाव से ठीक एक वर्ष पहले हुआ और 2019 तथा 2020 के बजट में इस नीति को बरकरार रखा गया।
घरेलू उद्योगों के संरक्षण के नाम पर ढेर सारी वस्तुओं के सीमा शुल्क में इजाफा करना आर्थिक दृष्टि से अतार्किक भले हो लेकिन यह घरेलू कारोबारियों और व्यापार लॉबी के पोषण की राजनीति की उपज है। सन 1990 के दशक में बॉम्बे क्लब को नरसिंहराव-मनमोहन सिंह की जोड़ी की दरों में कमी की नीति के समक्ष हार माननी पड़ी थी लेकिन अब वह ज्यादा ताकत के वापस लौटा है।
वर्ष 2018 में दरों में इजाफा करने की नीति कितनी कारगर रही? ऐसी बढ़ोतरी के असर के आकलन के लिए दो वर्ष का समय काफी है। फरवरी 2018 में जिन 46 वस्तुओं का आयात शुल्क बढ़ाया गया, वर्ष 2015-16 और 2016-17 में देश के कुल आयात में उनकी हिस्सेदारी 22-23 प्रतिशत थी। कीमत में बात करें तो 2016-17 में इनमें से 40 वस्तुओं का 84 अरब डॉलर का आयात किया गया जबकि 2015-16 में 88 अरब डॉलर का आयात हुआ था। इतने उच्च मूल्य के आयात पर इतना अधिक आयात शुल्क क्यों लगाया जा रहा था? यकीनन अप्रैल-जनवरी 2017-18 में इन वस्तुओं के आयात में काफी तेजी आई और इस दौरान 94 अरब डॉलर मूल्य का आयात हुआ। शायद इस वजह से भी आयात शुल्क बढ़ाया गया हो। वर्ष 2017-18 में पूरे वर्ष के दौरान इन 46 वस्तुओं का आयात मूल्य बढ़कर 112 अरब डॉलर हो गया।
परंतु आयात में यह इजाफा मोटे तौर पर आयात में उस वर्ष हुए कुल इजाफे के अनुरूप ही था। वर्ष 2017-18 में देश का कुल आयात 21 प्रतिशत बढ़कर 465 अरब डॉलर हो गया। इसके पीछे रुपये का डॉलर की तुलना में मजबूत होना भी एक कारण था। 2017-18 में डॉलर के लिए रुपये की विनिमय दर 4 प्रतिशत बढ़कर 64 रुपये हो गई थी जबकि एक वर्ष पहले यह 67 रुपये थी।
आखिर क्यों सरकार बाजार आधारित विनिमय दर प्रबंधन प्रणाली पर यकीन नहीं करती और रुपये का अवमूल्य होने देकर देश के निर्यात को नियंत्रित नहीं करती? नीति निर्माताओं को यह पता होना चाहिए कि रुपये के मूल्य में एक वर्ष में चार प्रतिशत अधिमूल्यन भी आयात वृद्धि की अहम वजह था। इसके बजाय सरकार ने घरेलू उद्योग के संरक्षण के नाम पर 40 से अधिक उत्पादों पर सीमा शुल्क बढ़ा दिया।
वर्ष 2018-19 में भारतीय रुपये का 8.5 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। उससे अगले वर्ष भी 1.4 प्रतिशत का अवमूल्यन हुआ। फरवरी 2018 में सीमा शुल्क में बढ़ोतरी के बाद के दो वर्ष में रुपये का 10 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ। 46 उत्पादों पर शुल्क दर बढ़ाकर घरेलू उद्योगों को संरक्षित करने का वादा अब पर्याप्त से भी अधिक हो गया। दस फीसदी अवमूल्यन के साथ अधिकांश वस्तुओं के लिए शुल्क बढ़ोतरी 5 से 10 प्रतिशत रही। खाद्य प्रसंस्करण चीजों के लिए शुल्क वृद्धि 20 से 40 फीसदी थी और हीरों तथा अन्य कीमती रत्नों के लिए इसे दोगुना बढ़ाकर 5 फीसदी कर दिया गया था।
इसके बावजूद शुल्क वृद्धि के बाद दो वर्षों में इन 46 वस्तुओं के आयात में कोई कमी नहीं आई। बल्कि जूते-चप्पल, घड़ी और दीवार घड़ी, खाद्य प्रसंस्करण वस्तुओं मसलन फलों के रस तथा इत्र आदि का आयात बढ़ गया। इलेक्ट्रॉनिक्स और हार्डवेयर (मोबाइल फोन और स्मार्ट वाच सहित), वाहन और वाहन कलपुर्जे, हीरे, कीमती रत्न-आभूषण, फर्नीचर, खिलौने, रेशमी वस्त्र तथा पतंग, धूप चश्मे, सिगरेट लाइटर जैसी चीजों पर शुल्क वृद्धि का बहुत मामूली असर हुआ।
यह दलील दी जा सकती है कि आयात शुल्क वृद्धि का असर लंबे समय में सामने आएगा और बीते दो वर्ष के रुझान को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता। परंतु व्यापक प्रश्न यह है कि क्या घरेलू विनिर्माता उन वस्तुओं का देसी विकल्प दे पा रहे हैं जिनका आयात महंगा किया गया है? या फिर आयात निरंतर जारी है और बढ़े हुए आयात शुल्क की लागत उपभोक्ताओं को तो नहीं वहन करनी पड़ रही। यदि ऐसा हुआ तो यह देश के विनिर्माण को गैर प्रतिस्पर्धी बनाएगा।
परंतु सरकार घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने के नाम पर शुल्क दरों में वृद्धि की गलत नीति पर टिकी हुई है और यह बात बीते दो बजट से जाहिर होती है। जुलाई 2019 में और फरवरी 2020 में आयात क्रमश: 37 और 16 नई वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गया ताकि घरेलू कारोबारियों को समान कारोबारी माहौल मिल सके और मेक इन इंडिया को बढ़ावा दिया जा सके। कुछ वस्तुओं मसलन जूते-चप्पलों और खिलौनों पर लगने वाला शुल्क और बढ़ा दिया गया। इससे यह संकेत निकला कि फरवरी 2018 की शुल्क वृद्धि घरेलू उद्योगों को पर्याप्त संरक्षण नहीं दे पा रही थी।
ऐसा लगता है कि देश की शुल्क प्रणाली में मनमानापन जारी रहेगा, भले ही इसके कारण अल्पावधि में आयात में महत्त्वपूर्ण कमी आ जाए। ऐसी नीति का दुष्प्रभाव देश की विनिर्माण प्रतिस्पर्धा पर पड़ेगा।

First Published - September 26, 2020 | 12:42 AM IST

संबंधित पोस्ट