भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने रुपये को समर्थन देने के लिए विदेशी विनिमय आवक को बढ़ावा देने वाले उपायों को अपनाने की बुधवार को घोषणा की। रुपया कई वजहों से दबाव में है। उच्च जिंस कीमतें और बढ़ते आयात ने भी विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ाई है। उदाहरण के लिए जून में व्यापार घाटा बढ़कर 25.5 अरब डॉलर हो गया जबकि चालू खाते के घाटे के भी चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद के 3 प्रतिशत का स्तर तक रहने का अनुमान है। चालू खाते के घाटे का अनुमानित स्तर चिंता का विषय नहीं है लेकिन दिक्कत यह है कि हमारे देश से पूंजी खाते की काफी धनराशि भी बाहर जा रही है।
विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) कुछ समय से भारतीय परिसंपत्तियों की बिक्री कर रही हैं और वर्ष के आरंभ से उन्होंने करीब 30 अरब डॉलर की राशि निकाली है। ज्यादातर पूंजी वैश्विक वित्तीय तंत्र में व्याप्त जोखिम से बचाव के लिए निकाली जा रही है। अमेरिका में बढ़ती ब्याज दरें भी इसकी एक वजह हैं।
निश्चित तौर पर भारतीय रुपया इकलौती ऐसी मुद्रा नहीं है जो दबाव में है। अमेरिकी डॉलर की मजबूती ने दुनिया भर के मुद्रा बाजार में अस्थिरता बढ़ा दी है। इसमें विकसित देश भी शामिल हैं। उदाहरण के लिए जापानी येन और ब्रिटिश पाउंड की कीमत चालू वित्त वर्ष में 9 फीसदी से अधिक गिरी है जबकि रुपये के मूल्य में 4.6 प्रतिशत की गिरावट आई है। रुपये के मूल्य में कम गिरावट की वजह रिजर्व बैंक का बचाव है। वर्ष के आरंभ से अब तक रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार में करीब 37 अरब डॉलर की कमी आई है।
हालांकि आरबीआई के पास अभी भी 593 अरब डॉलर का भंडार मौजूद है जो बाहरी अस्थिरता से निपटने के लिए पर्याप्त है लेकिन उसने और ताकत झोंकने का निर्णय लिया है। जिन उपायों की घोषणा की गई उनके मुताबिक बैंकों को अनिवासी बाहरी और विदेशी मुद्रा तथा अनिवासी बैंक जमा के मामलों में एक तय अवधि तक नकद आरक्षित अनुपात और सांविधिक तरलता अनुपात का स्तर बरकरार रखने से छूट दी गई। इससे बैंकों को ऐसे जमा पर ब्याज देने के मामले में भी अधिक आजादी मिली। इसके अलावा रिजर्व बैंक ने डेट बाजार में एफपीआई के लिए नियम शिथिल किए तथा भारतीय कंपनियों को विदेशों में अधिक उदार शर्तों पर कर्ज लेने की इजाजत दी।
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इन कदमों का सीमित प्रभाव होगा क्योंकि विश्व स्तर पर जोखिम से बचाव की प्रवृत्ति है। उदाहरण के लिए कंपनियां शायद रुपये पर दबाव के कारण विदेशी ऋण नहीं लेना चाहें। कुल मिलाकर नीतिगत दिशा बहसतलब है क्योंकि इससे जोखिम बढ़ सकता है। बढ़ता विदेशी कर्ज, खासतौर पर अल्पावधि की प्रकृति का ऋण शायद इस समय मुद्रा के बचाव के लिए सबसे श्रेष्ठ प्रतिक्रिया न हो। शायद रिजर्व बैंक आयातित मुद्रास्फीति के प्रभाव को सीमित करने तथा विदेशी मुद्रा में कर्ज लेने वाली कंपनियों के बचाव के लिए मुद्रा बाजार में जरूरत से अधिक हस्तक्षेप कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक करीब 40 प्रतिशत बाहरी कर्ज असुरक्षित है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि वैश्विक माहौल कुछ समय तक अनिश्चित बना रह सकता है। ऐसे में मुद्रा का बचाव काफी महंगा हो सकता है और शायद ऐसा करना टिकाऊ भी न साबित हो। चूंकि आरबीआई के पास अस्थिरता से बचाव के लिए पर्याप्त भंडार है इसलिए उसे रुपये का व्यवस्थित अवमूल्यन होने देना चाहिए। इससे न केवल कारोबारी क्षेत्रों का बचाव होगा बल्कि भारतीय परिसंपत्तियां भी विदेशी निवेशकों के लिए अधिक आकर्षक होंगी। इससे समग्र बाहरी खाता स्थिर होगा और मुद्रा भी। मुद्रास्फीति की समस्या को मौद्रिक नीति से हल किया जाना चाहिए। आरबीआई इस मामले में पीछे है। इसके अलावा उसे कंपनियों को प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि वह विदेशी मुद्रा के जोखिम का बचाव करे। यह आशा नहीं करनी चाहिए कि आरबीआई हमेशा इस बचाव का बोझ सहेगा।