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GST में दो चरणों वाले सुधार की दरकार: शार्ट टर्म में मांग को बढ़ावा और लॉन्ग टर्म में दरों में समायोजन

कर दरों को तर्कसंगत बनाना एक लंबा लक्ष्य हो सकता है, हालांकि केंद्रीय जीएसटी में एकतरफा कटौती से कम समय में घरेलू मांग को बढ़ावा मिल सकता है। बता रही हैं आर कविता राव

Last Updated- September 02, 2025 | 10:59 PM IST
GST Reforms

भारत के कारोबारी जगत के मौजूदा आर्थिक माहौल के बीच ही इसे एक और झटका लगा है। अमेरिकी सरकार द्वारा घोषित दंडात्मक शुल्क 27 अगस्त से लागू हो गए हैं। इसके तहत भारत के विभिन्न तरह के निर्यात पर 50 फीसदी का आयात शुल्क लगाया गया है। इन शुल्कों का प्रभाव वस्त्र, जूते-चप्पल, रत्न एवं आभूषण और झींगा निर्यात सहित कई अन्य क्षेत्रों में भी महसूस किया जा सकता है। इसके अलावा, दूसरे चरण के प्रभाव दिखने की भी आशंका जताई जा रही है जैसे कि निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के लिए जरूरी कच्चे माल के आयात में कमी। रत्न एवं आभूषण एक ऐसा ही क्षेत्र हैं जिसमें निर्यात वास्तव में कच्चे हीरों के आयात से जुड़ा हुआ है।

हालांकि, राजनयिक तरीके से कम शुल्कों वाले दौर में वापस लौटने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं लेकिन भारत सरकार इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए स्पष्ट रूप से नई पहलों को शामिल करेगी जिसमें नए बाजारों की तलाश करना और अल्पावधि में निर्यात करने वाली इकाइयों की मदद करने वाली नीतियां बनाना भी शामिल है। निर्यात क्षेत्र को लक्षित करने वाले नीतिगत पहलों के अलावा, निर्यात मांग की जगह घरेलू मांग को प्रोत्साहित करने के लिए व्यापक उपाय भी किए जाने की संभावना है।

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) दरों में सुधार करते हुए इसे युक्तिसंगत बनाना भी एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है। यह बदलाव अर्थव्यवस्था की अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों जरूरतों को पूरा करने में मदद कर सकता है। फिलहाल, जीएसटी की व्यवस्था में सुधार के दो मुख्य उद्देश्य हो सकते हैं। पहला, लंबे समय की प्रतिबद्धता के अनुसार, दर संरचना को युक्तिसंगत बनाना, जीएसटी की दरों को व्यवस्थित करना और कर स्लैब की संख्या कम करना है। दरों को तार्किक बनाए जाने की प्रक्रिया, अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए है और इसका लक्ष्य, एक ऐसी कर व्यवस्था स्थापित करना है जो लंबे समय तक टिकाऊ हो।

दूसरा, अल्पकालिक स्तर पर अर्थव्यवस्था के मौजूदा आर्थिक झटके और वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनिश्चितता को देखते हुए, घरेलू मांग को बढ़ावा देना आवश्यक लक्ष्य हो सकता है। इस मांग में दो चीजें शामिल हैं, परिवारों में खपत और सरकार द्वारा किया गया खर्च, खासतौर पर पूंजीगत व्यय। इन दोनों ही बातों को ध्यान में रखते हुए नई व्यवस्था तैयार करनी होगी। सुधारों की रूपरेखा तय करते समय कुछ बातों पर विचार करना जरूरी है:

1. मांग बढ़ाने के लिए, कर की दरें कम करने की सलाह दी जाती है। मांग पर सकारात्मक असर तभी होगा जब कर में कमी का लाभ, कीमतों में कमी के रूप में ग्राहकों तक पहुंचे। जीएसटी लागू होने के समय, मुनाफाखोरी रोकने के प्रावधानों का इस्तेमाल किया गया था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कीमतों में तुरंत कमी आए। लेकिन, ऐसे प्रावधान विवादास्पद होते हैं इसलिए बाजार की शक्तियों पर निर्भर रहना बेहतर है। हालांकि, इस प्रक्रिया में समय लग सकता है, जिसका मतलब है कि मांग में वृद्धि धीरे-धीरे होगी।

2. कर दरों में कमी का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि किसी वस्तु की मांग उसकी कीमत में बदलाव के प्रति कितनी संवेदनशील है। जब मांग बहुत ज्यादा लचीली होती है तब कर दर कम करने से उसकी मांग अधिक होती है, जिससे कुल राजस्व बढ़ सकता है। लेकिन, अगर मांग कम है, तब कर कम करने से राजस्व में कमी आ सकती है। इससे, जीएसटी राजस्व पर इसका कुल प्रभाव अनिश्चित रहता है।

3. जीएसटी, राज्य सरकारों के राजस्व का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। राज्यों के राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन प्रतिबद्धताओं और कर्ज लेने की सीमाओं को देखते हुए अगर जीएसटी दरों में कमी से राज्यों के राजस्व पर तुरंत कोई बुरा असर पड़ता है, तो इससे उनके पूंजीगत व्यय में कमी आ सकती है। राज्यों को यह भी ध्यान रखना होगा कि वित्त आयोग अभी अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप दे रहा है, जो मौजूदा कर व्यवस्था पर आधारित हैं। दरों में बदलाव से केंद्रीय राजस्व पर भी असर पड़ेगा, जिसका बाद में राज्यों की वित्तीय स्थिति पर भी अप्रत्यक्ष प्रभाव हो सकता है।

4. एक संघीय अर्थव्यवस्था में, अर्थव्यवस्था को वृहद स्तर पर स्थिर रखने की मुख्य जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होती है क्योंकि आर्थिक अनिश्चितता के समय में कर्ज लेने की क्षमता केंद्र के पास अधिक होती है। ऐसे में अल्पकालिक अनिश्चितताओं का बोझ केंद्र सरकार को उठाना चाहिए।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, एक संभावित तरीका यह है कि जीएसटी सुधार दो चरण में किए जाएं। पहला, दीर्घकालिक सुधार से जुड़ा है जिसका लक्ष्य, कर दरों की संख्या कम करना है। इसमें इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि कुल राजस्व पर ज्यादा असर न पड़े, यानी पहले जितना राजस्व मिलता था, उतना ही मिलता रहे। इसका मतलब यह हो सकता है कि कुछ वस्तुओं पर कर दर बढ़े और कुछ पर घटे।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को समझने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) एक महत्त्वपूर्ण मापदंड है। अगर हम राजस्व को जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखें तो यह एक उपयोगी बेंचमार्क होगा। हमें इसका अनुपात स्थिर रखने का लक्ष्य रखना चाहिए। इस तरह का तालमेल बिठाने के लिए कुछ वस्तुओं पर कर की दर बढ़ानी होगी जबकि कुछ पर घटानी होगी। उदाहरण के लिए, कई वस्तुएं जो अभी कर के दायरे से बाहर हैं, उन्हें कम दर के साथ कर दायरे में लाया जा सकता है। जिन वस्तुओं पर अभी 12 फीसदी कर लगता है, उन्हें ऊंची कर स्लैब में रखा जा सकता है। सही से तैयार की गई दो या तीन दरों वाली कर व्यवस्था मध्यम अवधि में स्थिर रह सकती है और निवेशकों के लिए भी नीतिगत स्थिरता प्रदान कर सकती है।

वर्तमान सुधार एजेंडा का दूसरा भाग यह हो सकता है कि केंद्र सरकार एकतरफा और कम समय के लिए कर की दरें कम करे। यह राज्यों की जीएसटी को बिना बदले, सिर्फ केंद्रीय जीएसटी को कम करके किया जा सकता है। यह कदम कुछ वैसा ही होगा जैसा कि वैश्विक वित्तीय संकट के असर को कम करने के लिए केंद्रीय उत्पाद शुल्क में कमी की गई थी।

जब व्यवस्था स्थिर हो जाए, तब यह दी गई छूट वापस ली जा सकती है। अगर कर में यह बदलाव केंद्र सरकार करती है, तो राज्यों के वित्त पर इसका असर कम पड़ेगा। यह भी साफ है कि सरकारी खर्चों से बढ़ने वाली मांग को कर प्रोत्साहन उपायों से कमजोर होने से बचाने के लिए वित्तीय नियमों में कुछ ढील देने की जरूरत पड़ेगी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो थोड़े समय के लिए राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी हो सकती है। इस तरह की दो स्तर वाली सुधार प्रक्रिया, राज्य सरकारों के साथ बेहतर तालमेल बिठाने में मददगार साबित हो सकती है और नीतिगत स्थिरता भी दे सकती है, इसलिए इस पर विचार किया जा सकता है।


(लेखिका राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान, नई दिल्ली की निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

First Published - September 2, 2025 | 10:38 PM IST

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