जब 1 मार्च, 1969 को देश की पहली राजधानी ट्रेन दिल्ली से हावड़ा के लिए रवाना हुई तो एक तरह से भारतीय रेल का नया सफर शुरू हो गया। दिल्ली से शाम साढ़े पांच बजे रवाना हुई इस राजधानी ट्रेन ने हावड़ा तक का सफर केवल 17 घंटे में पूरा कर लिया, जिसमें उससे पहले 24 घंटे से भी ज्यादा का वक्त लग जाता था। उस समय इस ट्रेन में वातानुकूलित (एसी) प्रथम श्रेणी का किराया 280 रुपये और एसी चेयर कार का 90 रुपये था। चमचमाते लाल और सफेद डिब्बों वाली यह रेलगाड़ी पूरी तरह वातानुकूलित थी, जिसमें यात्रियों को बढ़िया और स्वादिष्ट व्यंजन परोसे गए थे। पटरियों पर 120 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ती यह ट्रेन उत्तर प्रदेश और बिहार के कई प्रमुख स्टेशनों को धड़धड़ाते हुए पार कर गई और बिना रुके हावड़ा पहुंच गई। यह सोचकर हंसी आती है कि उस समय कई अखबारों के संपादकीय में इसे अमीरों की रेलगाड़ी बताया गया था और कहा गया था कि भारत जैसे गरीब देश में इस रेलगाड़ी से सफर करना लोगों के वश की बात नहीं होगी।
मगर अब एकदम साफ हो गया है कि भारतीय रेल को नई रफ्तार और सोच के साथ आगे बढ़ना है तो उसे हाई-स्पीड रेल तकनीक अपनानी होगी। हमें एक बार फिर ध्यान रखना होगा कि तकनीकी विकास की तेज चाल को अमीरों का शगल न मान लिया जाए। हाई-स्पीड रेल भारतीय रेल की यात्री नेटवर्क में उस समय दाखिल होने जा रही है, जब एक साथ चार बड़ी बातें नजर आ रही हैं।
पहली बात, भारतीय रेल स्वयं कायाकल्प के दौर से गुजर रही है। रेल तंत्र का विस्तार, समर्पित माल गलियारे, लगभग पूरी हो रही बुलेट ट्रेन परियोजना, वंदे भारत ट्रेनों की बढ़ती संख्या और प्रकार, दिल्ली-मेरठ जैसे रीजनल रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम, स्टेशनों का पुनर्विकास और आधुनिक ‘कवच’ सुरक्षा प्रणाली भारतीय रेल को एक नई पहचान देने जा रहे हैं। हाई-स्पीड रेल को इसका अभिन्न हिस्सा होना चाहिए।
दूसरी बात भारतीय रेल रोजाना 13,000 गाड़ियां चलाती है, जिन पर 2.4 करोड़ लोग सफर करते हैं। यह संख्या ऑस्ट्रेलिया की आबादी से केवल 20 लाख कम है। इन यात्रियों में 1 करोड़ बड़े शहरों तक और लंबी दूरी की यात्रा करते हैं, जिनमें 5 लाख लोग (5 प्रतिशत) एसी डिब्बों में सफर करते हैं। यह रेल को अच्छी कमाई कराने वाली श्रेणी है, जो किफायती हवाई यात्रा और इंटरसिटी लक्जरी बसों के पास जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है।
तीसरी बात, भारत के आर्थिक संकेतक जता रहे हैं कि देश रेल तकनीक के मामले में कायाकल्प के लिए पूरी तरह तैयार है। भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) क्रय शक्ति समता के आधार पर दूसरे देशों के उस समय के जीडीपी के बराबर हो गया है, जिस समय उन देशों ने हाई-स्पीड रेल शुरू कर दी थी और यह दशकों पहले हुआ था। इससे संकेत मिलता है कि यह भारत के लिए पारंपरिक रेल को छोड़कर हाई-स्पीड रेल की तरह कदम बढ़ाने का एकदम सही वक्त है।
चौथी बात, गुजरात के वडोदरा में हाई-स्पीड रेल प्रशिक्षण केंद्र तैयार हो रहा है, जहां किसी भी समय 4,000 लोगों को प्रशिक्षित करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाली सेवाएं होंगी। हाई-स्पीड रेल के लिए क्षमता निर्माण का काम भी चल रहा है।
इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए हाई-स्पीड रेल कई मायनों में ऐसी जरूरत बन गई है, जिसे टाला नहीं जा सकता। इसका कारण भारतीय रेल नेटवर्क है, जो इतना बड़ा और पेचीदा है कि मौजूदा ढांचे को यात्रियों की बढ़ती भीड़ के हिसाब से उन्नत करने में कई दशक लग जाएंगे। इंटरनैशनल यूनियन ऑफ रेलवेज के अनुसार मौजूदा रेल पटरियों को 200 से 220 किमी प्रति घंटा अधिकतम रफ्तार के लायक बना दिया जाए तो उसे हाई-स्पीड रेल माना जाएगा। इसके लिए बिछने वाली नई पटरी पर 250 किमी प्रति घंटा या अधिक रफ्तार से गाड़ी दौड़ जानी चाहिए। इस परिभाषा के हिसाब से भारत के लिए रेल नेटवर्क को आधुनिक बनाना और हाई-स्पीड रेल पर जोर देना आसान हो जाता है। दिलचस्प है कि अहमदाबाद-मुंबई बुलेट ट्रेन की रफ्तार 320 किमी प्रति घंटा तक हो सकती है, जो जापान की शिंकासेन के बराबर होगी। चीन में शांघाई मागलेव 431 किमी प्रति घंटा तक रफ्तार हासिल कर लेती है।
हाई-स्पीड रेल से कई फायदे हो सकते हैं। एसी 1 और एसी 2 के यात्रियों को इसमें भेज दिया जाए तो शयनयान और द्वितीय श्रेणी के लिए सीटें बढ़ सकती हैं। अलग लाइन होने के कारण यह भारतीय रेल के नेटवर्क पर मौजूद भीड़ को कुछ हल्का कर देगी। इससे शहरी क्षेत्रों में लोगों का जमाव भी कम होगा, जिससे वहां आबादी का बोझ घटेगा। हाई-स्पीड रेल का हरेक किलोमीटर पारंपरिक पटरी के मुकाबले पांच गुना क्षमता मुहैया कराता है, इसलिए मझोले और छोटे शहरों के विकास में यह अहम भूमिका निभा सकती है।
रेल विशेषज्ञ मानते हैं कि हाई-स्पीड रेल पेचीदा प्रणाली है, जिसमें डिब्बों, पटरी के डिजाइन, सिग्नल प्रणाली, केंद्रीकृत नियंत्रण, सुरक्षा और परिचालन एवं रखरखाव प्रणाली समेत विभिन्न तकनीकों को अचूक तरीके से एक साथ लाना होता है। भारत ने देश के भीतर ट्रेन बनाकर दिखा दी है मगर कई उपकरण और प्रणालियां अब भी विदेश से मंगानी पड़ती हैं। देश में विकसित हाई-स्पीड रेल तकनीक का आत्मनिर्भर भारत की सोच के साथ इस्तेमाल इस यात्रा में अहम पहलू होगा।
तकनीक केंद्रित नई संस्था बनाने का सुझाव दिया जा रहा है, जिसे नैशनल एचएसआर टेक्नोलॉजी कॉरपोरेशन कहा जा सकता है। कई एचएसआर गलियारे तैयार करने की योजना है और नैशनल हाई-स्पीड रेल कॉरपोरेशन सात या ज्यादा की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट जांच रहा है। देश में ही बुलेट ट्रेन तैयार करने की भी योजना है और चेन्नई में इंटीग्रल कोच फैक्टरी ज्यादा रफ्तार वाली वंदे भारत ट्रेन के नमूने तैयार कर रहा है। भारतीय रेल ने बीईएमएल को दो तेज रफ्तार ट्रेन बनाने के लिए 867 करोड़ रुपये का ठेका दिया है। इनकी रफ्तार 280 किमी प्रति घंटा तक होगी। हाई-स्पीड रेल गलियारों का चयन विकास अर्थशास्त्र की ठोस समझ पर आधारित होना चाहिए, जिसमें सोचना चाहिए कि रोजाना कितने यात्री चढ़ेंगे, किस कीमत तक का टिकट खरीद सकेंगे, किस-किस इलाके में इसे होना चाहिए और दूरी तथा पूंजीगत व्यय आदि पर भी विचार होना चाहिए।
इन्फ्राविजन फाउंडेशन ने इन पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया है और पाया है कि 2035 तक इन गलियारों का विकास किया जा सकता है:
गलियारा 1: दिल्ली-रेवाड़ी-जयपुर-अजमेर-जोधपुर-अहमदाबाद-मुंबई
गलियारा 2: चेन्नई-मुंबई (तिरुपति होकर), बेंगलूरु, तुमकुरु, दावणगेरे, धारवाड़, बेलगाम, कोल्हापुर, सातारा, पुणे, नवी मुंबई और गोवा तक विस्तार
गलियारा3: दिल्ली-सोनीपत-पानीपत-करनाल- अंबाला-चंडीगढ़-लुधियाना-जालंधर-अमृतसर
गलियारा 4: दिल्ली-आगरा-लखनऊ-वाराणसी- पटना-कोलकाता
जापान, इटली और स्पेन जैसे हरेक देश ने हाई-स्पीड रेल के विकास की अपनी अलग योजना बनाई है और सफल भी रहे हैं। इससे पता चलता है कि सभी के लिए एक ही ढांचा काम नहीं करता। भारत को अपना रास्ता खुद गढ़ना होगा। इसलिए हाई-स्पीड रेल पर तेजी से काम किया जाए।
(लेखक बुनियादी ढांचे के विशेषज्ञ हैं और इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक तथा प्रबंध न्यासी हैं)