बीते साल 7 अक्टूबर को हमास के साथ युद्ध छिड़ने के बाद इजरायल में पर्यटकों की संख्या बहुत तेजी से गिरी। जिस देश में हर माह औसतन तीन लाख से अधिक पर्यटक आते थे, वहां युद्ध शुरू होने के अगले ही महीने यानी नवंबर में यह संख्या केवल 39,000 पर आ गई। इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि इजरायल हमेशा से युद्ध के खतरों से सुरक्षित पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात रहा है।
प्रत्येक वर्ष बड़ी संख्या में दूसरे देशों की एयरलाइंस हजारों पर्यटकों को यहां लाती हैं। परस्पर आतंकवाद और हिंसा प्रभावित विस्थापन की घटनाओं के बावजूद तीन अब्राहमी धर्मों से जुड़े ऐतिहासिक स्थलों को देखने के लिए विदेशी पर्यटक खिंचे चले आते हैं।
लेकिन वहां अब उड़ानें रद्द की जा रही हैं तो स्थिति निश्चित रूप से बहुत खराब ही होगी। ऐसे में इजरायल के ये हालात उत्तर भारत में रोजगार की स्थिति को बयां करने के लिए काफी हैं। उत्तर भारत में पिछले महीने से नौकरी के लिए हजारों की संख्या में मजदूर और निर्माण श्रमिक इस समय उच्च शारीरिक जोखिम वाले देश इजरायल जाने के लिए लाइन लगाए हुए हैं।
इजरायल में 10,000 निर्माण श्रमिकों की भर्ती के लिए इजरायल के अनुरोध पर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सरकारों ने बाकायदा विज्ञापन निकाला था, क्योंकि युद्ध के कारण वहां श्रमिकों की भारी कमी हो गई है। शुरुआती चरण में 5,000 श्रमिकों की भर्ती इजरायली अधिकारियों की देख-रेख में की जा रही है। इजरायल जाने के इच्छुक कुछ मजदूरों ने कहा कि युद्ध के खतरों से ज्यादा उन्हें अपने देश के मुकाबले चार गुना मेहनताना मिलने का सुनहरा अवसर दिख रहा है।
हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इजरायल के लिए श्रमिक भेजने की कवायद केंद्र सरकार की व्यापक परियोजना का हिस्सा है। भारत ने खेतों, विनिर्माण और निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों की आपूर्ति करने के लिए विभिन्न देशों (खाड़ी देशों के अलावा) के साथ समझौते करने के लिए योजना बनाई है।
इस योजना के तहत भारत ने इजरायल के साथ भी 40,000 कामगारों की आपूर्ति के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। ये कामगार मुख्य रूप से फिलिस्तीन के वेस्ट बैंक और गाजा से आने वाले श्रमिकों की जगह लेंगे, जिनके वर्क परमिट युद्ध शुरू होने के बाद रद्द कर दिए गए हैं। ग्रीस ने भी खेतों में काम करने के लिए भारत से 10,000 मौसमी श्रमिक भेजने का अनुरोध किया है। इटली को भी नगरपालिका में कार्य करने के लिए कामगारों की तलाश है।
सरकार इस योजना के लिए स्वयं अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन यह कोई नया विचार नहीं है। वर्ष 2007 में प्रवासी भारतीय कार्य मंत्रालय (एमओआईए) ने कुशल और अर्ध-कुशल कामगारों को खाड़ी तथा अन्य देशों में काम के लिए जाने में मदद के लिए नीतियां बनाई थीं। इसके तहत सरकार ने उस समय यूरोप, दक्षिणी-पूर्वी एशिया और उत्तरी अमेरिका में भारतीय पेशेवरों के जाने की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए द्विपक्षीय समझौते करने की योजना तैयार की थी।
एमओआईए पूर्ववर्ती संप्रग सरकार में एक अलग मंत्रालय हुआ करता था, जो 2014 में नई सरकार आने के बाद विदेश मंत्रालय के साथ संबद्ध कर दिया गया। इस मंत्रालय का मकसद अवैध रूप से विदेश जाने वालों पर अंकुश लगाना और भारतीय प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षा एवं मदद सुनिश्चित करना था। यह अलग बात है कि यह योजना सिरे नहीं चढ़ पाई।
इस संबंध में मौजूदा सरकार की योजना की काफी तारीफ की जा रही है, क्योंकि इसके जरिये न केवल भारतीयों को तयशुदा आय का भरोसा है बल्कि उनके लिए बेहतर आजीविका के अवसर भी हैं। इसे एक व्यावहारिक कदम माना जा रहा है, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था में इस समय व्यापक स्तर पर उभरते श्रमबल को विदेश में मिलने वाले वेतन के बराबर पारिश्रमिक देने की क्षमता का अभाव झलकता है।
यह बात एक हद तक सही हो सकती है, परंतु बड़ा मुद्दा नैतिकता का है। यह किसी से छुपा नहीं है कि दूसरे देशों में ब्लू कॉलर श्रमिकों के साथ कितना बुरा बरताव किया जाता है। यह मुद्दा उस समय पश्चिमी मीडिया ने बड़े जोर-शोर से उछाला था जब कतर को फुटबॉल विश्व कप की मेजबानी मिली थी।
अधिकांश मामलों में जहां श्रमिकों को अधिक वेतन दिया जाता है, वहां मानवाधिकार हनन के मामले भी ज्यादा सामने आते हैं। वर्ष 2016 में तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जेद्दा कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा नौकरी से निकाले गए भूखे-प्यासे श्रमिकों की मदद कर खूब सुर्खियां बटोरी थीं। कम मेहनताना और भारी शोषण का शिकार हताश बेरोजगार जो ऐसी नौकरी पाने के लिए दलालों को लाखों रुपये देते हैं, यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि विदेश में उनके साथ कैसा सुलूक होने वाला है।
पश्चिमी एशिया अकेला ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां प्रवासी कामगारों के साथ दुर्व्यवहार होता है। अमेरिका जैसा देश भी इस मामले में पीछे नहीं है। वर्ष 2011 में ऐसा एक मामला उस समय प्रकाश में आया था जब मिसीसिपी और टैक्सस में भारतीय श्रमिकों को कम वेतन देने और दुर्व्यवहार करने के लिए एक संघीय एजेंसी ने संबंधित कंपनी पर मुकदमा ठोक दिया था। इसके बाद 2021 में न्यूजर्सी में मंदिर निर्माण में लगे भारतीय मजदूरों को कम वेतन देने और श्रम मानकों का उल्लंघन करने के मामले में मंदिर प्रबंधन को कोर्ट में घसीटने का मुद्दा भी खूब उछला था।
इसलिए विदेश में कामगारों की आपूर्ति के लिए केंद्र सरकार की ताजा योजना से कई सवाल खड़े होते हैं। क्या सरकार को ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए जिस पर उसका नियंत्रण न हो या आंशिक रूप से ही वह हस्तक्षेप कर सकती हो? यह मुद्दा विशेषकर इजरायल के परिप्रेक्ष्य में अधिक संवेदनशील हो जाता है, जहां युद्ध फैलता जा रहा है और अभी यह नहीं कहा जा सकता कि इसका नतीजा क्या होगा।
दूसरे देशों के साथ समझौते करते समय क्या सरकार ऐसे उपाय भी कर रही है, जिससे वहां श्रमिकों के साथ होने वाले व्यवहार का पता लगाया जा सके? क्या सरकार इस स्थिति में है कि वह संबंधित देश में अपने श्रमिकों के लिए कार्य दशाओं की शर्तें लागू कर सके? आखिर में बड़ा सवाल यह कि दो देशों के बीच ऐसे श्रम समझौतों से क्या रोजगार का स्थायी हल निकाला जा सकता है, जो भारत में बहुत बड़ा मसला है?
यदि ऐसे समझौतों में रोजगार का मसला हल होने की गारंटी नहीं है तो भारत सरकार वैश्विक नौकरी भर्ती के ठेकेदार के रूप में परिवर्तित होने का खतरा ही मोल ले रही है। यह ऐसे देश के लिए कतई अपेक्षित स्थिति नहीं है जो वैश्विक स्तर पर अपने लिए बड़ी भूमिका की आकांक्षा कर रहा है। अग्निवीर योजना की तरह ही यह परियोजना भी युवाओं में बेरोजगारी की समस्या का घड़ा खुली सड़क पर फोड़ देगी।
विदेश मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर पंजीकृत भर्ती एजेंटों की ताजा सूची जारी की है। साथ ही अपंजीकृत दलालों को रिश्वत देने को लेकर भी गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी गई है। विदेश में बेहतर करियर के ख्वाब दिखाने वाले दलालों के जाल से लोगों को बचाने की दिशा में इसे एक अच्छी पहल कहा जा सकता है।