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  लेख  शासकीय अनुबंध प्रक्रिया समस्या और समाधान
लेख

शासकीय अनुबंध प्रक्रिया समस्या और समाधान

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —February 9, 2021 11:46 PM IST
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भारतीय राज्य की बात करें तो वह राज्य क्षमता के क्षेत्र में कई तरह की बाधाओं से ग्रस्त है। यह कमी कई क्षेत्रों को प्रभावित करती है। उन विशेषज्ञों को खूब प्रोत्साहन मिलता है जो किसी क्षेत्र के जानकार होते हैं और उस क्षेत्र की आंतरिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे में उनका ध्यान उन समस्याओं की ओर नहीं जाता है जो पूरे देश को प्रभावित करती हैं। भारत में जब किसी एक क्षेत्र के विशेषज्ञ दूसरे क्षेत्र पर नजर डालते हैं तो वे अक्सर यह देखकर चकित रह जाते हैं कि चीजें कितनी गलत हो रही हैं। मुझे अक्सर लोगों से यह सुनने को मिलता है, ‘मुझे लगता था कि केवल मेरे क्षेत्र में इतनी गड़बड़ी है।’
सरकारी संस्थानों को प्रभावित करने वाली क्षमताओं के पांच तत्त्व हैं: पहला, प्रतिरोधी शक्ति को विधि व्यवस्था के रूप में सीमित करना। दूसरा, सरकारी अनुबंध प्रणाली। तीसरा, वित्तीय परिचालन। चौथा, मानव संसाधन और पांचवां पारदर्शिता। जब हम इन पांच क्षेत्रों में प्रगति करते हैं तो इसका लाभ सभी सरकारी तथा अन्य क्षेत्रों में महसूस किया जाता है।
सरकारी अनुंबध प्रक्रिया में दरअसल खरीद से लेकर अनुबंध पर पुनर्वार्ता, उससे जुड़े विवाद और भुगतान तक तमाम बातें शामिल होती हैं। यह सभी सरकारी क्षेत्रों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है। जिन क्षेत्रों में अनुबंध की क्षमता महत्त्वपूर्ण है उनके उदाहरण के रूप में रक्षा उपकरणों की खरीद, औषधि और टीके, निजी-सार्वजनिक भागीदारी अथवा इंजीनियरिंग खरीद तथा बुनियादी निर्माण क्षेत्र के अनुबंध शामिल हैं। सरकारी अनुबंधों की कमजोरी सभी क्षेत्रों में सरकार की क्षमता को प्रभावित कर रही है। उदाहरण के लिए कोविड-19 देश में स्वास्थ्य नीति के समक्ष अब तक की सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा। कोविड-19 के दौरान व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण, जांच, स्वास्थ्य सेवाओं, टीकाकरण और इससे जुड़ी सेवाओं के लिए सरकारी खरीद के स्तर की क्षमताओं की आवश्यकता थी और है। यदि सरकारी अनुबंध के क्षेत्र में क्षमताएं बेहतर होतीं तो हमें महामारी के दौरान बेहतर नतीजे देखने को मिलते।
निजी संस्थानों में कंपनियां प्राय: यह निर्णय लेती हैं कि कोई वस्तु आंतरिक रूप से तैयार कर ली जाए या उसे अनुबंध के द्वारा बाहर से हासिल किया जाए। जब नीति निर्माता किसी अनुबंध की व्यवहार्यता को लेकर चिंतित रहते हैं तब सरकारी संस्थानों द्वारा आंतरिक उत्पादन पर जोर दिया जाता है। परंतु हथियार कारखाने हमेशा निजी रक्षा निर्माताओं से लागत और तकनीक के मामले में पीछे रहेंगे। उच्च सरकारी क्षमता का अर्थ है कम लागत पर बेहतरीन पनडुब्बी तैयार करना। इसके लिए यह समझना जरूरी है कि सरकारी अनुबंध कैसे तैयार हो। सरकार द्वारा अतिशय आंतरिक उत्पादन और इसके कारण उपजी अक्षमताओं की एक वजह सरकारी अनुबंधों में कमी भी है।
सरकारी भुगतान में होने वाली कठिनाइयां भी बहुत चर्चा में रहती हैं। बहरहाल, भुगतान में देरी तो प्रक्रिया के अंतिम चरण में सामने आने वाली अनुबंध की विफलता की अभिव्यक्ति है। शुरुआती चरणों मसलन खरीद, पुनर्वार्ता, विवाद निस्तारण में होने वाली कमियां ही आगे चलकर भुगतान में देरी की वजह बनती हैं। हमें इस समूची प्रक्रिया में सुधार करना होगा तभी भुगतान में देरी के संकट से उबरा जा सकेगा।
इस समस्या के तीन तत्त्वों पर विस्तार से चर्चा होती रही है: सरकारी खरीद के कानून, भ्रष्टाचार के खिलाफ अधिक प्रयास और कंप्यूटरीकरण। बहरहाल भ्रष्टाचार या कर/सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात दिखाता है कि जीडीपी की तुलना में प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत अंतरराष्ट्रीय देशों के अनुभव के मध्य में है। यह स्पष्ट नहीं है कि भ्रष्टाचार के मामले में ऐसे अन्य देशों के समक्ष भारत की स्थिति क्या है।
कानून ऐसे उपाय हैं जिनके माध्यम से सरकार लोगों को रोकती है लेकिन यह सरकारी अनुबंध की समस्या के मूल में नहीं है। शुभ रॉय और दिया उदय का विभिन्न देशों पर किया गया शोध अध्ययन बताता है कि सरकारी खरीद कानूनों और इसमें भ्रष्टाचार के बीच कोई संबंध नहीं है। नीतिगत सुधार की बात करें तो कंप्यूटर इंजीनियरिंग शायद ही उपयोगी हो। गहन संगठनात्मक बदलाव की प्रक्रिया में, नेतृत्त्व कंप्यूटरों के इस्तेमाल को उपयोगी पा सकता है। परंतु हमें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि केवल कंप्यूटरीकरण से सरकारी संगठनों की कमियों को पूरा किया जा सकेगा। प्रक्रियात्मक बदलाव का काम नेतृत्व को करना होगा। कंप्यूटरीकरण बड़ी नीतिगत समस्या का एक छोटा तत्त्व है।
शुरुआती शोध बताते हैं कि सरकारी खरीद के मामले में संगठनात्मक क्षमता में गतिरोध है। सरकारी संगठनों को यह समझने की आवश्यकता है कि उन्हें किस चीज की आवश्यकता है। उन्हें निजी बाजार की भी समझ होनी चाहिए जहां से वे खरीद करते हैं। सतही रवैया अपनाने से शुरुआती दौर के दस्तावेजीकरण में गलती होती है जो प्रक्रिया की नाकामी की वजह बनती है। इन समस्याओं को हल करने के लिए ऐसी टीम विकसित करनी होंगी जो खरीद के काम पर निरंतर ध्यान दे सकें। इससे खरीद के काम में विशेषज्ञता उत्पन्न होती है और संगठन के भीतर खरीद को लेकर सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। हर देश को इन पांच क्षेत्रों में अहम संगठनात्मक और प्रक्रियात्मक डिजाइन के सबक सीखने चाहिए। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र में क्षमता हासिल करने के लिए नीतिगत पाइपलाइन के जरिये: डेटा, शोध, रचनात्मक नीतिगत प्रस्ताव, सार्वजनिक बहस, सरकार के भीतर  निर्णय और नीतिगत क्रियान्वयन तक सुसंगतता आवश्यक है।
यूरोप में 19वीं सदी में जब शुरुआती राज्य क्षमता हासिल कर रहे थे तब खतरा पड़ोसियों और अन्य राज्यों से था। डार्विन की इस प्रक्रिया में आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता वाली संस्कृतियों का जीडीपी अधिक थाा और इसलिए उनके पास संसाधन भी अधिक थे। उस दौर के यूरोपीय देशों में सफलता पांच तत्त्वों पर निर्भर थी जिसमें सरकारी अनुबंध भी शामिल था। उस दौर की तरह आज हमारे लिए चीन की चुनौती का सामना करने के लिए जरूरी है कि भारतीय राज्य में कई संगठनात्मक बदलाव किए जाएं।
सरकारी अनुबंध हर शासकीय संगठन मेंं आकार लेता है लेकिन छोटी तादाद में ही सही संगठन असंगत गतिविधियों के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। रॉय और शर्मा ने अपने शोध में पाया कि 11 खरीद संस्थान कुल सरकारी खरीद के 80 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी हैं। यानी केवल 11 संगठनों में बेहतर अनुबंध क्षमता के साथ अधिक लाभ पाए जा सकते हैं। प्रगति की राह इस बात में निहित है कि पहले परिपक्व शोध प्रक्रिया अपनाई जाए और सामुदायिक व्यवहार अपनाया जाए। इसके बाद 10 छोटे सरकारी संस्थानों में प्रारंभिक क्रियान्वयन किया जाए। इसके बाद उपरोक्त 11 संस्थानों में बदलाव से बड़े लाभ की दिशा में आगे बढ़ा जाए। यह काम आगामी पांच से 10 वर्ष में हो सकता है।
(लेखक स्वतंत्र आर्थिक विश्लेषक हैं)

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