इंसान भले ही जमीन पर रहते हैं लेकिन मानवता का मूल गहरे समुद्र में है। सन 1967 में जब दुनिया ऐतिहासिक समुद्री कानून पर बातचीत कर रही थी तब माल्टा के राजनयिक अरविड प्राडो ने कहा था, ‘समुद्र ही वह कोख है, जहां से जीवन आया। महफूज रखने वाले इस समुद्र से ही जीवन निकला। हमारे खून और आंसुओं का खारापन अब भी हमारे शरीर में उस अतीत की निशानी हैं।’
हमें समुद्र से जोड़ने वाली गर्भनाल स्वयं जीवन का आधार तत्त्व है। पृथ्वी की आधी ऑक्सीजन समुद्र ही बनाते हैं। कुल कार्बन उत्सर्जन का 30 फीसदी समुद्र सोख लेते हैं। वातावरण के तापमान को ये कम करते हैं। यह पृथ्वी का सबसे बड़ा कार्बन सिंक है। पृथ्वी की जलवायु को कायदे में रखने का काम अगर यह बंद कर दे तो इस ग्रह से जीवन खत्म होने में देर नहीं लगेगी।
समुद्र की सेहत ठीक करने की चिंता बहुत पुरानी है। द लॉ ऑफ द सी (समुद्र का कानून) पर दस्तखत तो 1982 में किए गए थे मगर यह लागू 1994 में किया गया। इसमें समुद्री वातावरण के संरक्षण से जुड़े प्रावधान थे। परंतु पहली विस्तृत और व्यापक योजना 2015 के सतत विकास के लक्ष्यों (एसडीजी-14) में पेश की गई, जिसमें दुनिया के महासागरों, सागरों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण तथा पर्यावरण अनुरूप इस्तेमाल की बात की गई। इसके तहत 2030 तक 10 लक्ष्य हासिल किए जाने हैं, जिनमें समुद्री प्रदूषण समाप्त करना, मछलियों का अत्यधिक शिकार बंद करना और समुद्र का अम्लीकरण रोकना आदि शामिल हैं। इनमें से कोई लक्ष्य दूर-दूर तक हासिल होता नहीं दिखता। इन लक्ष्यों पर हुई प्रगति की समीक्षा करने और इनका क्रियान्वयन बढ़ाने के इरादे से पहला संयुक्त राष्ट्र समुद्री सम्मेलन 2017 में न्यूयॉर्क में हुआ और दूसरा 2022 में लिस्बन में। मगर अभी तक निराशा ही हाथ लगी है।
स्वतंत्र गैर लाभकारी संस्था ओशनकेयर कहती है, ‘लिस्बन 2022 के बाद से महासागरों की हालत कई संकेतकों पर बिगड़ती दिखी है और सरकारें कोई ठोस काम किए बगैर जबानी जमाखर्च में लगी रहती हैं। 5-10 साल बाद तो महासागरों के लिए कुछ कारगर करने का मौका ही नहीं रह जाएगा।’ संयुक्त राष्ट्र के इन सम्मेलनों में बातचीत नहीं होती और इनकी घोषणाएं स्वैच्छिक संकल्प होती हैं। देशों के सामने इन्हें लागू करने का कोई प्रोत्साहन ही नहीं होता क्योंकि इनका अनुपालन कराने के लिए कोई कानूनी प्रावधान ही नहीं है।
तीसरा संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन फ्रांस और कोस्टारिका ने साथ मिलकर 9 से 13 जून तक नीस में आयोजित किया। इस समय भूराजनीति खेमों में बंटी है और डॉनल्ड ट्रंप का अमेरिका बहुपक्षीयता को नकार चुका है, इसलिए इस माहौल में सम्मेलन को कामयाब माना जा सकता है। इसमें 170 से अधिक देशों के प्रतिनिधि थे और 60 देशों के प्रमुखों तथा सरकारों ने इसमें हिस्सा लिया। इससे राजनीतिक घोषणा और नीस ओशन एक्शन प्लान निकलकर आया। इसमें सरकारों के साथ वैज्ञानिकों, संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों और नागरिक समाज के स्वैच्छिक संकल्प शामिल हैं। इससे भी अहम बात यह है कि राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे जैव विविधता या उच्च सागर संधि को जल्द स्वीकार करने तथा अगस्त में जिनेवा में होने वाले अंतिम दौर में वैश्विक प्लास्टिक्स संधि पर वार्ता संपन्न करने का संकल्प लिया गया है। समुद्र की सेहत को कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने के लिहाज से ये दोनों अहम हैं। उच्च सागर संधि महासागरों के करीब दो-तिहाई हिस्से को बचाएगा, जो किसी देश के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता।
महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है और सभी समुद्री जीव खतरे में आ गए हैं। अब तो यह माइक्रोप्लास्टिक के रूप में हमारे भोजन में पहुंच रहा है, जिससे कैंसर हो सकता है और इंसानों तथा जीवों के लिए बराबर नुकसानदेह है। अनुमान है कि हर साल दुनिया का 18 से 20 फीसदी प्लास्टिक कचरा महासागरों में पहुंच जाता है। अंकुश नहीं लगाया गया तो 2040 तक 370 लाख टन प्लास्टिक कचरा महासागर में मिल जाएगा। लगातार फेंका जा रहा दूसरा कचरा और नुकसानदेह पदार्थ जोड़ दें तो कह सकते हैं कि समुद्र दुनिया के कूड़ाघर बन गए हैं। अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता सम्मेलन महासागर के संरक्षण के लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण है। कनमिंग-मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क में 30 फीसदी समुद्री इलाके को संरक्षित करने का संकल्प है। संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन ने भी कहा है कि 2030 तक यह लक्ष्य हासिल करना बहुत जरूरी है। नीस में सहमति से स्वीकार की गई राजनीतिक घोषणा बताती है कि महासागरों की बिगड़ी सेहत पर कितनी अधिक चिंता है।
संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन से पहले करीब 2,000 अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों ने अपनी वन ओशन साइंस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और चेतावनी दी। उन्होंने वैज्ञानिक आधार पर साबित कर बताया कि समुद्र का बिगड़ता पारितंत्र कैसे पूरी पृथ्वी के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर रहा है। यह सही समय पर की गई बहुत जरूरी पहल थी। हमेशा की तरह समस्या यह है कि ऐसी जल्दबाजी कार्य योजना के लिए जरूरी रकम जुटाने में नहीं दिखती। धीमी पड़ती विश्व अर्थव्यवस्था में रकम जुटाना और भी चुनौती भरा हो जाएगा। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि समुद्री संरक्षण के लिए जो रकम उपलब्ध हो रही है, उसमें 15.8 अरब डॉलर की और जरूरत है। मगर हमारे सामने मौजूद लक्ष्यों को देखते हुए लगता है कि कमी इससे कहीं ज्यादा है।
कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व पृथ्वी विज्ञान मंत्री जितेंद्र सिंह ने किया। उन्होंने छह बिंदुओं वाली समुद्र संरक्षण योजना पेश की, जिसमें समुद्री शोध बढ़ाना और समुद्र नीति के लिए विज्ञान आधारित हल शामिल थे। साथ ही समुद्र के संरक्षित क्षेत्रों का विस्तार करना और समुद्री पारितंत्र की सुरक्षा करना, बेकार जल के कारगर प्रबंधन के जरिये समुद्र का प्रदूषण कम करना तथा देसी ज्ञान की मदद से समुदायों को सशक्त बनाना एवं समावेशी और समतापूर्ण समुद्री प्रशासन सुनिश्चित करना जैसी बातें इसमें शामिल थीं। इनमें से कई बिंदु अंतिम दस्तावेज में भी नजर आए।
भारत एक समुद्री देश है और हमारे यहां 22 लाख वर्ग किलोमीटर का विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र है। इसके अलावा महाद्वीप में करीब 12 लाख वर्ग किलोमीटर इलाका और है। हमारी तट रेखा 7,000 किलोमीटर से लंबी है। वैश्विक समुद्री प्रशासन व्यवस्था भारत के लिए बहुत मायने रखती है। उसके आर्थिक और सामुद्रिक हितों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है। समुद्री सीमाएं जमीनी सीमाओं से अलग होती हैं और उनका उल्लंघन आसानी से हो जाता है। समुद्र के संरक्षण के लिए अपने समुद्री पड़ोसियों और साझेदारों के साथ करीबी सहयोग जरूरी होता है।
भारत संरक्षित समुद्री राष्ट्रीय उद्यान पार्क के तहत आने वाले इलाके को बढ़ाने की भी सोच सकता है। फिलहाल केवल चार ऐसे क्षेत्र हैं- कच्छ की खाड़ी, मन्नार की खाड़ी, सुंदरबन और वांडूर।
हमें पूर्व में खराब होते गंगा डेल्टा को सुधारने पर भी विचार करना चाहिए। अब वह मृत क्षेत्र हैं, जहां जलीय जीवन खत्म हो चुका है। इसका कारण औद्योगिक गतिविधियां हैं, जिनसे उत्पन्न विषैले रसायन पानी में मिल गए हैं। जमीन और समुद्र की प्रणालियां आपस में जुड़ी हुई हैं और इन्हें एक साथ देखा जाना चाहिए। भारत को ऐसी पारिस्थितिकी रणनीति की आवश्यकता है जो इस जुड़ाव को समझे।
(लेखक विदेश सचिव और जलवायु परिवर्तन के लिए प्रधानमंत्री के विशेष दूत रह चुके हैं)