अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के शुल्क के तीर वैश्विक व्यापार व्यवस्था को तगड़ी चोट पहुंचाते लग रहे हैं। तुनकमिजाज और पल-पल बदलने वाले ट्रंप ने पिछले साल अपने चुनाव अभियान के दौरान कहा था कि ‘शुल्क’ उनका पसंदीदा शब्द है। पद संभालने के बाद उन्होंने जो कुछ किया है उससे यही लगता है कि वह बेलाग सच बोल रहे थे। भारत को उम्मीद थी कि हाल में घोषित व्यापार वार्ता उसे फिलहाल शुल्क से बचा लेगी मगर ट्रंप उसे भी नहीं बख्शेंगे। ट्रंप ने एक दक्षिणपंथी अमेरिकी समाचार संस्थान से कहा कि भारत पर भी 2 अप्रैल से शुल्क लगाए जाएंगे।
ये उपाय 2016 में ट्रंप के पहले कार्यकाल से शुरू किए गए कदमों से अधिक सख्त हैं मगर उन्हें अंजाम पर पहुंचाते भी दिख रहे हैं।
ट्रंप के पहले कार्यकाल में अमेरिका ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से बाहर आ गया था। बीच के चार साल में जो बाइडन प्रशासन ने भी वैश्विक व्यापार व्यवस्था को चोट देने वाले ट्रंप के कदमों को पलटने में गंभीरता नहीं दिखाई। कुछ मायनों में तो बाइडन ने व्यापार को चोट पहुंचाने की अमेरिकी मुहिम और तेज कर दी। उन्होंने ट्रंप के शुल्क उपायों को प्रतिबंधों, तकनीक पर पाबंदी और संरक्षण तथा बेहिसाब सब्सिडी एवं खर्च के जरिये मजबूती ही दी।
इसलिए वैश्विक व्यापार व्यवस्था को तहस-नहस करने का इल्जाम अमेरिका पर ही थोप देना आसान है। मगर यह कहानी का केवल एक हिस्सा है। जब तक हम पूरी कहानी समझ नहीं लेते तब तक हम इस घाव का इलाज नहीं कर पाएंगे। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के दौर में अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बुनियादी खामी यह समझना है कि सभी अर्थव्यवस्थाओं की बनावट एक जैसी है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह समझना भूल है कि लागत, सब्सिडी और संरक्षण पारदर्शी होते हैं। दुर्भाग्य से दुनिया की सबसे बड़ी व्यापारिक शक्ति इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अगर चीन इस धारणा को झुठलाता है तो पूरी व्यापार प्रणाली ही झूठ पर टिकी है। अमेरिका और यूरोपीय संघ तथा भारत के कदम इसी बुनियादी समस्या के जवाब में उठाए गए हैं।
चीन को डब्ल्यूटीओ में यही सोचकर शामिल किया गया था कि उसकी अर्थव्यवस्था संगठन को बनाने वाली बाजार अर्थव्यवस्थाओं जैसी है या आगे चलकर हो जाएगी। हकीकत में न तो उसकी अर्थव्यवस्था वैसी थी और न ही उसने वैसा बनने की कोशिश की। इसीलिए चीन में असंतुलन पैदा हो गए और उसके बड़े आकार के कारण ये असंतुलन बढ़कर पूरी दुनिया में फैल गए।
चीन की अर्थव्यवस्था में बुनियादी असंतुलन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा थोपे गए वित्तीय दबाव और आर्थिक पाबंदियों का नतीजा हैं। चीनी परिवार उतना खर्च नहीं कर सकते, जितना करना चाहे और अपनी बचत पर उन्हें रिटर्न भी बहुत कम मिलता है। इसीलिए वहां परिवार की खपत और संपत्ति सामान्य अर्थव्यवस्था के मुकाबले बहुत कम है। जो उन तक नहीं पहुंचता है वह सरकारी उद्यमों को सब्सिडी देने में या निजी क्षेत्र के कुछ खास हिस्सों को बिजली और निवेश पूंजी आदि पर सब्सिडी देने में चला जाता है।
यह प्रक्रिया चीन के लिए नुकसानदेह रही है क्योंकि इससे उसकी आर्थिक वृद्धि सीमित रही है और निवेश की गई पूंजी के परिणाम कम मिलते हैं। चीन गलत जगहों पर जरूरत से ज्यादा बुनियादी ढांचा बना देता है और कामकाजी परिवारों की हैसियत मकान खरीदने की हो नहीं पाती। मगर एक दशक से वादे करने के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की बाधाओं के कारण अर्थव्यवस्था को दोबारा संतुलित नहीं कर पाती। कम्युनिस्ट पार्टी निजी क्षेत्र को काबू करना चाहती है और निवेश के बल पर होने वाली मौजूदा वृद्धि से हटकर पुनर्संतुलन करने में जो मोलभाव तथा नुकसान होंगे, उनसे उच्च वर्ग रुष्ट हो जाएगा और पार्टी नेतृत्व कमजोर हो जाएगा।
मगर चीनी अर्थव्यवस्था में राजनीति से उपजे इस असंतुलन ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी बिगाड़ दिया है। बिजली, जमीन और पूंजी को गुपचुप सब्सिडी मिलने के कारण चीनी विनिर्माण से होड़ करना अधिक पारदर्शी अर्थव्यवस्थाओं के लिए बहुत मुश्किल हो गया है। अनुमानों के मुताबिक प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में उद्योगों को सबसे सस्ती बिजली चीन में ही मिलती है। भारत में औद्योगिक बिजली के मुकाबले वहां बिजली के दाम 60 फीसदी हैं और जर्मनी के मुकाबले तो एक चौथाई ही हैं। चीन ने इलेक्ट्रिक कार, बैटरी और सोलर पैनल जैसे निर्यातोन्मुखी क्षेत्रों के लिए कर सब्सिडी बढ़ाई है और अब भी बढ़ा रहा है। चीन के व्यापारिक साझेदार डब्ल्यूटीओ व्यवस्था में इसका हल पा भी नहीं सकते। अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों का भरोसा डब्ल्यूटीओ विवाद समाधान से यूं ही थोड़े उठ गया है।
अमेरिका में शुल्क और यूरोप में कार्बन बॉर्डर टैक्स या आपूर्ति श्रृंखला में पारदर्शिता बरतने के नियम जैसे एकतरफा उपायों से चीनी सामान के लिए दीवार खड़ी की जा रही हैं। ऐसे में चीन की भारी विनिर्माण क्षमता गरीब देशों के उद्योगों को निगलने लगेगी। इन देशों को इस समय चीन की जगह लेने लायक होना चाहिए क्योंकि चीन में वेतन और दूसरे खर्च देश की संपत्ति के साथ बढ़ने चाहिए थे और उसकी होड़ करने की ताकत घटनी चाहिए थी। उसकी जगह ये देश और पिछड़ रहे हैं। इंडोनेशिया में निर्यात केंद्रित और श्रम के ज्यादा इस्तेमाल वाले परिधान तथा कपड़ा क्षेत्र में दो साल के भीतर करीब 2.5 लाख नौकरियां जा चुकी हैं और अगले दो साल में 5 लाख नौकरी और जा सकती हैं। ये देश चीन की जगह तो नहीं ले रहे, चीन ही उनका विकल्प बन रहा है। वैश्विक आर्थिक इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ।
इस बीच चीन की असंतुलित अर्थव्यवस्था के कारण बहुत अधिक पूंजी अमेरिका पहुंच गई है, जिसे अमेरिकी सरकार को राजनीति अपने हिसाब से मोड़ने तथा कर्ज से सब्सिडी देते रहने का हथियार मिल गया है। इससे वैश्विक पूंजी का प्रवाह बिगड़ रहा है, उभरते बाजारों में निवेश घट रहा है और यूरोप के लिए अमेरिका तथा चीन के सरकारी बॉन्डों से टक्कर लेकर धन जुटाना मुश्किल हो रहा है।
अधिकतर देश चीन की अत्यधिक क्षमता से होने वाले नुकसान की काट खोजने में नाकाम रहे हैं या अनिच्छुक हैं। अमेरिका ने इसकी जगह यूरोप, कनाडा और भारत पर शुल्क बढ़ा दिए हैं। भारत भी ‘गुणवत्ता नियंत्रण आदेश’ के जरिये लाइसेंसराज की तरफ लौट रहा है। इन आदेशों से चीनी सामान पर सीधा निशाना नहीं साधा जा सकता, इसलिए देसी व्यापारियों और विदेशी निवेशकों को चोट पहुंच रही है। खराब तरीके से गढ़े ऐसे उपाय हमें और बदतर कर देंगे। अगर हम व्यापार से एक-दूसरे को फायदा पहुंचाना चाहते हैं तो हमें समस्या को सही तरीके से पहचानना होगा और उसकी जड़ यानी चीन की देसी नीतियों से निपटना होगा।