सन 1970 के दशक में हुई श्वेत क्रांति के बाद से ही देश में डेरी क्षेत्र में मजबूत और ऊंची वृद्धि देखने को मिलती रही है लेकिन अब यह मुश्किल दौर से गुजरता नजर आ रहा है। इसकी मुश्किलें पशु आहार तथा चारे की कम आपूर्ति एवं ऊंची लागत की वजह से पैदा हुई हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में कई बड़ी दुग्ध सहकारी समितियों तथा निजी डेरी कंपनियों द्वारा इस वर्ष दूध की कीमतों में कई बार किया गया इजाफा (नवीनतम वृद्धि मंगलवार को की गई) इस संकट का स्पष्ट संकेत देता है।
इससे भी बुरी बात यह है कि यह बढ़ोतरी मॉनसून सीजन के बाद की गई है जब दूध की आपूर्ति बहुत अधिक होती है और डेरी कंपनियां दूध पाउडर, मक्खन तथा अन्य दुग्ध उत्पादों का भंडार तैयार करती हैं ताकि दूध की कमी वाले महीनों में इनका इस्तेमाल किया जा सके। अनुमान है कि इस वर्ष पशु आहार की कीमतों में 28 फीसदी की असाधारण वृद्धि दर्ज की गई है। इसके कारण थोक मूल्य आधारित पशु आहार मुद्रास्फीति 2013 के बाद के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई।
यही वजह है कि डेरी कंपनियों की दूध खरीद की लागत में 24 फीसदी की बढ़ोतरी होने की बात कही जा रही है। अत्यधिक गर्मी तथा जलवायु परिवर्तन के कारण पशु आहार में काम आने वाली फसलों के उत्पादन पर पड़ने वाले असर ने भी कीमतों में इस बढ़ोतरी पर असर डाला है। यही वजह है कि किसान अपने पशुओं को पर्याप्त पोषण नहीं दे पा रहे हैं और उनकी दूध देने की क्षमता प्रभावित हुई है। डेरी विशेषज्ञ भी इस आशंका से इनकार नहीं कर रहे हैं कि आने वाले महीनों में हालात और खराब हो सकते हैं।
खास तौर पर गर्मियों के दिनों में ऐसा देखने को मिल सकता है। झांसी स्थित भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान के अनुमानों के मुताबिक हरे चारे, सूखे चारे और अनाज से बनने वाले पशु आहार की कीमतों में क्रमश: 12 फीसदी, 23 फीसदी और 30 फीसदी का इजाफा हो सकता है। हालांकि सरकार चारे की कमी और डेरी उत्पादों के उत्पादन में संभावित गिरावट के इस गंभीर संकट को स्वीकार करने की इच्छुक नहीं दिख रही। वह इस बात को भी स्वीकार नहीं कर रही कि दूध कीमतों में इजाफा चारे की ऊंची कीमतों की वजह से हो रहा है।
डेरी किसानों और दूध उद्योग की वर्तमान चिंताओं की मूल वजह है चारा क्षेत्र की अनदेखी। छोटे और सीमांत किसान तथा भूमिहीन ग्रामीण आमतौर पर जिन प्राकृतिक चरागाह और मैदानों का इस्तेमाल अपने पशुओं को चराने के लिए करते थे वे अतिक्रमण के कारण या तो गायब हो चुके हैं या उनका आकार बहुत छोटा हो चुका है। उचित देखभाल ना होने के कारण उनकी हरियाली में भी कमी आई है इसके अलावा खराब गुणवत्ता वाले गेहूं, मक्का तथा अन्य अनाज जो पहले पशुओं को खिलाए जाते थे अब उनका इस्तेमाल एथनॉल, तथा अन्य उत्पाद बनाने में हो रहा है। दशकों से कृषि क्षेत्र से उत्पन्न चारे का रकबा कुल कृषि भूमि के चार फीसदी पर अटका हुआ है। जबकि इसी बीच पशुओं की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है। इतना ही नहीं पारंपरिक लंबी फसलों के बजाए अधिक उत्पादन वाली फसलों का इस्तेमाल किए जाने से पशुओं के लिए फसल अवशेष रूपी चारे में कमी आ रही है।
अब जरूरत इस बात की है कि चरागाहों का समुचित प्रबंधन किया जाए तथा खेती और उद्यानिकी में पशुओं के चारे का ध्यान रखने की व्यवस्था विकसित की जाए। इसके साथ ही उस भुला दी गई परंपरा को भी पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है जिसके तहत मॉनसून के मौसम में मिलने वाली अतिरिक्त हरी घास को सुखा कर बाद में इस्तेमाल के लिए चारे का भंडार इकट्ठा किया जाता था। अगर चारे और पशु आहार की स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित नहीं होती है तो दूध उत्पादन में हासिल हमारी बढ़त को कायम रखना मुश्किल है।