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खेती बाड़ी: तिलहन की खेती और तकनीकी मिशन

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2006-07 से खाद्य तेलों का उत्पादन 2.2 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा है मगर मांग में इससे लगभग दोगुनी रफ्तार से 4.3 प्रतिशत सालाना इजाफा हुआ है।

Last Updated- January 02, 2025 | 9:33 PM IST
Indian commodity demand abroad: non-basmati rice exports increased, will decrease further due to ban!
प्रतीकात्मक तस्वीर

सरकार ने अगले सात साल में खाद्य तेलों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के मकसद से राष्ट्रीय खाद्य तेल एवं तिलहन मिशन शुरू करने का फैसला किया है। मगर यह हालिया निर्णय इस कठिन उद्देश्य की प्राप्ति का पर्याप्त भरोसा नहीं जगा पा रहा है।

इस मामले में उम्मीद नहीं होने के कई कारण हैं। एक तो यही कि तिलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए ऐसे मिशन 1980 के दशक के मध्य से ही आते रहे हैं मगर उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली है। वास्तव में 2021 में 11.040 करोड़ रुपये के आवंटन के साथ शुरू किया गया राष्ट्रीय खाद्य तेल-पाम तेल मिशन (एनएमईओ-ओपी) अब भी चल रहा है। किंतु दूसरे अधिकतर मिशन या तो बंद हो गए हैं या उन्हें नए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन में मिला दिया गया है।

इस नई पहल में बेहतर सफलता सुनिश्चित करने के लिए न तो नई सोच झलकती है और न ही नई योजना है। देश के रसोईघरों में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने वाले खाद्य तेल की जरूरत पूरी करने के लिए आज भी आयात पर बहुत अधिक निर्भरता है। देश में खाद्य तेल और तिलहन की 60 प्रतिशत मांग आयात से पूरी होती है।

निस्संदेह देश में खाद्य तेलों और तिलहन का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है, मगर मांग में हो रहे इजाफे से यह कम ही है। पिछले कुछ वर्षों में मांग और उत्पादन का यह अंतर बढ़ता ही गया है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 2006-07 से खाद्य तेलों का उत्पादन 2.2 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ा है मगर मांग में इससे लगभग दोगुनी रफ्तार से 4.3 प्रतिशत सालाना इजाफा हुआ है। नतीजतन खाना पकाने वाले तेल का आयात 2006-07 के 43.7 लाख टन से बढ़कर 2023-24 में 1.55 करोड़ टन तक पहुंच गया। इनके आयात का मूल्य भी उसी हिसाब से बढ़ा और 2.2 अरब डॉलर से 15 अरब डॉलर पर पहुंच गया। इस समय कच्चे तेल और सोने के बाद सबसे अधिक आयात खाद्य तेल का ही होता है।

भारत 1990 के दशक की शुरुआत में थोड़े अरसे के लिए खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता के करीब पहुंचा था। इसका श्रेय 1986 में शुरू किए गए तिलहन प्रौद्योगिकी मिशन की बहुत सोच-विचार कर बनाई गई और सावधानी से लागू की गई रणनीति को जाता है। इस मिशन को बाद में नया रूप दिया गया और यह नाकाम हो गया। मगर उससे पहले इसने त्वरित परिणाम दिए क्योंकि इसे पूरी स्वायत्तता दी गई थी और नीतिगत निर्णय लेने तथा अफसरशाही के दखल के बगैर उन्हें लागू करने की पूरी छूट भी मिली थी।

प्रौद्योगिकी मिशन ने देश में खाद्य तेलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी मिशन एक खास मंत्र अपनाया। वह मंत्र था तिलहन को किसानों के लिए पर्याप्त मुनाफे वाली फसल बनाना ताकि वे उत्पादन बढ़ाने वाली आधुनिक तकनीकों में खुलकर निवेश कर सकें। इसी के साथ खाना पकाने में इस्तेमाल होने वाले तेलों का बाजार मूल्य किफायती बनाए रखना भी रणनीति में शामिल था ताकि उपभोक्ताओं की जेब पर जोर न पड़े। आयात शुल्क घटाने-बढ़ाने या देश के भीतर व्यापार पर अंकुश लगाने जैसे सरकारी हस्तक्षेप तभी होने थे, जब कीमत निर्माताओं तथा उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए तय किए गए ऊपरी या निचले मूल्य दायरे को लांघे।

मगर ऐसा ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया क्योंकि सरकार प्रौद्योगिकी मिशन का मकसद भूल गई और दलहन उत्पादन बढ़ाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी का बोझ भी उस पर लाद दिया। नतीजा वही हुआ जिसका अंदेशा था। कार्यक्रम का नाम बदलकर तिलहन एवं दलहन प्रौद्यगिकी मिशन कर दिया गया। काम का बोझ बढ़ने से यह न तो तिलहन उत्पादन पर ढंग से ध्यान दे पाया और न ही दलहन पर। दालों की आपूर्ति हमेशा कम ही रही और तिलहन क्षेत्र में हासिल फायदे भी खत्म हो गए।

खाना पकाने के तेल जैसी आवश्यक वस्तु के लिए आयात पर अत्यधिक निर्भरता अच्छी बात नहीं है। आयात किए गए खाद्य तेल में ज्यादातर इंडोनेशिया और मलेशिया से ही आते हैं। सोयाबीन तेल और सूरजमुखी के तेल का थोड़ा-बहुत आयात दूसरे देशों से भी किया जाता है। वैश्विक बाजार में इन तेलों के बाजार का समीकरण बदलने या किसी अप्रत्याशित घटना के कारण इसकी आपूर्ति में बाधा पड़ने पर बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। इसलिए देश के भीतर से खाद्य तेल की आपूर्ति बढ़ाना एकदम जरूरी हो जाता है।

किंतु स्थानीय स्तर पर तिलहन का उत्पादन तभी बढ़ सकता है, जब उन पर दूसरी फसलों जितना मुनाफा मिले। अभी तो ऐसा होता नहीं दिखता। तिलहन फसलों को खरीद के जरिये मार्केटिंग की वैसी मदद नहीं मिलती, जैसी अनाज कुछ अन्य फसलों को दी जाती है। अलबत्ता तिलहन का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित किया जाता है और हर साल बढ़ाया भी जाता है। फिर भी ज्यादातर तिलहन किसानों को अपनी उपज एमएसपी से कम भाव पर बेचनी पड़ती है। इसीलिए तिलहन की ज्यादातर खेती किनारे पर पड़ी, कम उपजाऊ और सिंचाई की सुविधा से वंचित जमीन पर ही की जाती है।

आज तिलहन फसलों का 70 प्रतिशत से अधिक रकबा केवल वर्षा पर निर्भर है। मार्केटिंग से जुड़ी अनिश्चितताओं के कारण तिलहन फसलों में उर्वरक अथवा उत्पादन बढ़ाने के लिए रसायन जैसी नकदी सामग्री का इस्तेमाल भी बहुत कम होता है। जब तक इन समस्याओं का उचित समाधान नहीं खेाज लिया जाता और तिलहन फसल को फायदे का सौदा नहीं बनाया जाता तब तक कोई भी तिलहन मिशन खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता का वांछित लक्ष्य हासिल करने में सफल नहीं हो सकता।

First Published - January 2, 2025 | 9:27 PM IST

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