औपचारिक रूप से देखें तो ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अभी भी जारी है। हालांकि, सीमा पर शांति है और कहीं से कोई आहट नहीं दिख रही है लेकिन युद्ध क्रिकेट की दुनिया तक पहुंच गया है। यह अलग बात है कि यह मैदान से बाहर लड़ा जा रहा है। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, तीसरी सबसे बड़ी सेना और सबसे बड़ी आबादी द्वारा छेड़े गए ‘आतंकवाद के खिलाफ युद्ध’ की दशा-दिशा इस बात से तय हो रही है कि वह पाकिस्तान के खिलाफ क्रिकेट खेले या नहीं। वास्तव में यह बहस क्रिकेट (सामान्य रूप से खेल) या यहां तक कि भारत-पाकिस्तान संबंधों के बारे में भी नहीं है। यह हमारे दोहरे मानदंड या ढोंग को उजागर कर रहा है।
इस दोहरे मानदंड को और उजागर करने के लिए मैं आपको टोकियो के विशाल नैशनल स्टेडियम में ले चलूंगा जहां एक ऐतिहासिक पल सामने आया जब भारतीय उपमहाद्वीप के चार एथलीट (दो भारत से, एक-एक पाकिस्तान और श्रीलंका से) विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप में भाला फेंकने की प्रतिस्पर्द्धा में अंतिम12 खिलाड़ियों में शामिल थे।
अगर आपने पूरे दिन सभी सोशल मीडिया हैंडल पर नजर दौड़ाई हो और विशेष रूप से उस समय जब भाले फेंके जा रहे थे तो आपको कुछ विशेष ट्रेंड करता नहीं दिखा होगा। इस बात को लेकर कहीं कोई आक्रोश नहीं था कि नीरज चोपड़ा और सचिन यादव पाकिस्तानी अरशद नदीम के खिलाफ प्रतिस्पर्द्धा कर रहे थे। वर्ष 1896 में एथेंस में आधुनिक ओलिंपिक खेल शुरू होने के बाद से पिछले 130 वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप यानी दो अरब लोगों के समूह ने केवल तीन व्यक्तिगत ओलिंपिक स्वर्ण पदक जीते हैं। जी हां, ये आंकड़े बिल्कुल दुरुस्त हैं। उनमें से दो वही हैं नीरज चोपड़ा और अरशद नदीम जो टोकियो में अंतिम 12 खिलाड़ियों में शामिल थे।
आपको इस कार्यक्रम में लोगों की अधिक दिलचस्पी होने की उम्मीद जरूर होगी। मगर ऐसा नहीं था। अभी भी इस बात का जुनून लोगों के सिर पर सवार है कि भारत को पाकिस्तान के साथ खेलना चाहिए या नहीं। मैंने पाकिस्तानी मीडिया बहस भी देखी। उनके ओलिंपिक स्वर्ण पदक विजेता और विश्व रिकॉर्ड धारक अपने कट्टर भारतीय प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ प्रतिस्पर्द्धा कर रहे थे मगर बहुत कम उत्साह दिख रहा था क्योंकि हमारा जुनून तो क्रिकेट तक सीमित है। एक तरह से मैं कहूंगा कि यह अच्छी बात है।
राहत मानिए कि इंटरनेट एवं समाचार चैनलों पर जमी भीड़ सेना में जेसीओ चोपड़ा को पाकिस्तान के खिलाफ प्रतिस्पर्द्धा करने के लिए परेशान नहीं कर रही थी, जबकि पहलगाम की विधवाएं तब भी शोक में डूबी हुई थीं। क्रिकेट और एथलेटिक्स के प्रति यह अलग-अलग भावनात्मक प्रतिक्रिया केवल आंशिक रूप से हमारे क्रिकेट के जुनून से आती है। बाकी मुख्य मकसद तो वही अधिक से अधिक सुर्खियों में रहना है। क्रिकेट दिन-रात आक्रोश पैदा करने के लिहाज से ओलिंपिक खेलों से कहीं अधिक प्रभावी रहा है।
मेरे लिए सबसे यादगार पल वह है जब कई नामी लोगों, विशेष रूप से पत्रकारों ने पहलगाम पीड़ितों के पिताओं की तस्वीरें पोस्ट कीं जो अपने पुत्रों का अंतिम संस्कार कर रहे थे या उन शोक संतप्त विधवाओं की जिनका सुहाग उजड़ चुका था। वे पूछ रहे थे कि क्या पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने का मतलब है कि हमने उन्हें न्याय दिला दिया है? मेरा सवाल यह है कि क्या क्रिकेट नहीं खेलने और पाकिस्तान को अंक दिला देने से उन्हें न्याय मिलने का एहसास होगा?
क्या हमने अपनी वायु सेना, सेना और नौ सेना की संयुक्त और भयंकर मारक क्षमता का उपयोग कर उन्हें न्याय नहीं दिलाई? आप यह बात तभी नहीं मानेंगे जब आपको भी उन कई मूर्ख पाकिस्तानियों की तरह यह लगेगा कि जैश और लश्कर के तबाह हुए मुख्यालय, नेस्तनाबूद हुए एक दर्जन पाकिस्तानी वायुसेना अड्डे और धुएं से भरे रडार कोई खास बात नहीं है। भारतीय क्रिकेट आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में क्या हासिल कर सकता है जो हमारी सशस्त्र सेनाओं ने नहीं किया है, या अगर फिर ऐसी कोई जरूरत आन पड़ती है तो क्या फिर नहीं करेगी? हमारा खेल जुनून एकेश्वरवादी है, क्रिकेट ही एकमात्र भगवान है। इस मामले में उसी तरह आक्रोश जीतने को लेकर उतना नहीं है जितना खेलने या बहिष्कार करने के बारे में है।
बात केवल सोशल मीडिया तक होती इसे एक आक्रोश से भरी प्रतिक्रिया समझ कर नजरअंदाज किया जा सकता था। मगर हमारे न्यूज चैनलों पर भी यह बहस हावी रही। दोनों तरफ प्राइम टाइम में जहर उगला गया जिनमें कई बार तो अमर्यादित भाषाओं का भी इस्तेमाल हुआ।
उदाहरण के लिए पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद यूसुफ एक समाचार चैनल पर एक महिला एंकर के साथ हंसते हुए भारतीय कप्तान सूर्य कुमार यादव के पहले नाम का ‘गलत उच्चारण’ करने का नाटक करते रहे। मैं यहां उसे दोहराना नहीं चाहता हूं। आम तौर पर इस तरह की बदतमीजी अक्सर दोनों तरफ होती रहती है। अब कई समझदार लोग भी इस बात से सहमत दिखाई दे रहे हैं कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना, यहां तक कि किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में भी, राजनीतिक, रणनीतिक और सबसे महत्त्वपूर्ण नैतिक रूप से गलत है।
वे चाहते हैं कि भारत या तो टूर्नामेंट का बहिष्कार करे या मैच अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान के पाले में जाने का मौका दे। ऐसी सोच एक प्रतिस्पर्द्धी खेल की समझ की कमी दर्शाती है। यह दुख की बात है कि भारत आतंकवाद का शिकार है। तो क्या उसे फिर सभी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पाकिस्तान को वॉकओवर देना चाहिए? यह किस तरह की पराजयवादी मानसिकता है? इसका मतलब है कि पाकिस्तान, जिसके पास पिछले 20 वर्षों में किसी भी रूप में भारत को हराने की संभावना दस में से केवल एक रही है, उसे जीत तोहफे में दे दी जाए?
खेल से जुड़े कुछ आंकड़े काफी शिक्षाप्रद होते हैं। भारतीयों की दो पीढ़ियां पाकिस्तान के खिलाफ हमारी हार के पिछले रिकॉर्ड से अब भी आहत महसूस करती हैं। पिछले 25 वर्षों में स्थितियां बदल गई हैं। उदाहरण के लिए टी20 क्रिकेट में पिछले 20 वर्षों में खेले गए कुल 14 मैचों में भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ 11-3 से बढ़त बनाई है। पिछले एक दशक में हुए एकदिवसीय मुकाबलों में भारत 8-1 के साथ आगे है। इंगलैंड के द ओवल में 2017 में चैंपियंस ट्रॉफी के फाइनल मैच के बाद भारत पाकिस्तान के खिलाफ एकदिवसीय क्रिकेट मैच में 7-0 से आगे है। पाकिस्तान अब कभी जीतता भी है तो उसे अपवाद ही माना जाता है। क्या अब इसे यानी नियम बन जाने दें? क्या पहलगाम पीड़ितों को इस बात से न्याय मिलेगा कि हम पाकिस्तान को हमेशा हारने वाली टीम की बजाय स्थायी विजेता का दर्जा दे दें?
एकमात्र खेल जहां पाकिस्तान का दबदबा रहा है वह हॉकी है। क्रिकेट की तुलना में यहां तो समीकरण और अधिक बदल गया है। पिछले 10 वर्षों में भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ सभी सात मैच जीते हैं, जिसमें हांगचाऊ एशियाई खेल 2022 में दर्ज 10-2 की विशाल जीत भी शामिल है। पाकिस्तान 2012 से ही ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई करने में विफल रहा है।
पिछले महीने ही उन्होंने बिहार के राजगीर में आयोजित एशिया कप से बाहर रहने का निर्णय लिया जहां विजेता अगले विश्व कप में स्वतः ही पहुंच जाता। पाकिस्तान को आमंत्रित नहीं करने के लिए आईएचएफ को सोशल मीडिया का कोई दबाव, इन्फ्लुएंसर के शोर या टीवी कमांडो का सामना नहीं करना पड़ा। केवल बेवकूफ ही पाकिस्तान को खेल सौंपेंगे और उन्हें जीत उपहार में देना शुरू कर देंगे। किसी सरकार के लिए अपने समर्थकों की इच्छा के आगे झुकना एक ठीक नीति नहीं लगती। आप कह सकते हैं कि प्रतिबंध केवल कुछ दिनों के रहे क्योंकि पहलगाम का घाव अभी ताजा है। एक मजबूत एवं साहस रखने वाली सरकार ही कह पाएगी कि घाव भर गए हैं, इसलिए हम पाकिस्तान के साथ फिर खेल सकते हैं। हमें इसकी सराहना करनी चाहिए कि मोदी सरकार ने अपने समर्थकों से अधिक समझदारी दिखाई है।
भारत अब विश्व क्रिकेट का नेतृत्वकर्ता है और हॉकी पर उसकी पकड़ बढ़ रही है, खासकर हॉकी इंडिया लीग की वापसी के साथ। यह द्विपक्षीय मुद्दों को बहुपक्षीय खेल में नहीं घसीट सकता। अब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी)का हर दूसरा प्रमुख भारतीय होगा। जय शाह और राजीव शुक्ला को पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (पीसीबी), एशियाई क्रिकेट परिषद (एसीसी) के प्रमुख और पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री मोहसिन रज़ा नक़वी के साथ बातचीत करनी होगी। वास्तविक दुनिया की जरूरतों को स्वीकार करना होगा। आखिरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थ्यानचिन में शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक के दौरान सामूहिक तस्वीर खिंचवाने से इसलिए मना नहीं कर सकते थे कि वहां शहबाज शरीफ भी मौजूद थे।
अतीत में हुए बहिष्कार या प्रतिबंध कोई मिसाल नहीं हैं। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत ने रंगभेद के कारण 1974 में डेविस कप फाइनल में नहीं खेलकर दक्षिण अफ्रीका को जीत थमा दी। 1988 में राजीव गांधी की सरकार ने इंतिफादा हत्याओं के कारण इजरायल को निर्वासन देना स्वीकार कर लिया। अमेरिका ने (1980 में) मॉस्को और रूस ने लॉस एंजिलिस (1984) ओलिंपिक का बहिष्कार किया था। यूक्रेन पर हमले के कारण रूस पर पेरिस ओलिंपिक, 2024 में प्रतिबंध लगा दिया गया। ये सभी बहुराष्ट्रीय कार्रवाइयां थीं।
एकतरफा बहिष्कार अब भारतीय क्रिकेट को नुकसान पहुंचाएगा और पाकिस्तान को जीत उपहार में देगा। इससे भी बुरी बात यह है कि हम नरम राज्य की तरह काम कर रहे होंगे। हमें ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के साथ एक नई रेखा खींचने और सैन्य कार्रवाई की नई मिसाल पेश करने के बाद ऐसी बहिष्कार करने जैसी चीजों की जरूरत नहीं है। इस पूरे मामले में भारतीय क्रिकेट को मुद्दा बनाने का कोई मतलब नहीं है।