केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन आने वाले राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने अपने सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण (पीएलएफएस) का सालाना सार-संक्षेप जारी कर दिया है। रिपोर्ट में जुलाई 2021 से जून 2022 के बीच की अवधि को शामिल किया गया है। इसका अर्थ यह है कि इसमें कोविड-19 की तबाही मचाने वाली दूसरी लहर के तत्काल बाद की अवधि को रखा गया है।
पीएलएफएस का इस्तेमाल देश में बेरोजगारी दर का आकलन करने के लिए किया जाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020-21 की तुलना में 2021-22 के दौरान इस मानक में गिरावट आई और ग्रामीण इलाकों में यह 3.3 फीसदी से घटकर 3.2 फीसदी तथा शहरी इलाकों में 6.7 फीसदी से घटकर 6.3 फीसदी रह गया। गिरावट की यह दिशा अप्रत्याशित तो नहीं लेकिन संतोषजनक है। ऐसा इसलिए कि महामारी के बाद हालात लगातार सुधर रहे हैं।
बहरहाल, देश में नियमित बेरोजगारी दर से जुड़े कई सवाल हैं जिनके जवाब तलाश करने हैं। इसमें श्रम शक्ति में शामिल वे लोग आते हैं जो रोजगार की तलाश कर रहे लेकिन उसे पाने में नाकाम हैं। इसमें बड़ी तादाद में वे लोग शामिल हैं जो स्वरोजगार करते हैं, प्रच्छन्न बेरोजगारी की मौजूदगी और निर्वाह के लिए किए जाने वाले ऐसे काम हैं जो लोगों को रोजगार तलाशने वालों की श्रेणी में जाने से रोकते हैं। ऐसे में श्रम शक्ति भागीदारी दर (एलएफपीआर) पर काफी ध्यान है जो एक तरह से अर्थव्यवस्था के आकलन का बेहतर मापक है।
बढ़ती एलएफपीआर खासकर महिलाओं के मामले में इसमें इजाफे को देश की संभावित आर्थिक वृद्धि में इजाफे को लेकर अहम प्राथमिकता माना जाता है। उस नजरिये से देखें तो पीएलएफएस कोई खास ढांचागत अंतर नहीं दिखाता।
एलएफपीआर की बात करें तो 15 वर्ष से अधिक आयु की ग्रामीण महिलाओं के लिए 2021-22 में यह 36.6 फीसदी रही और इसी उम्र की शहरी महिलाओं के लिए 23.8 फीसदी। इसके विपरीत 15 वर्ष से अधिक आयु के 78.2 फीसदी ग्रामीण पुरुषों की तुलना में शहरों में यह 74.7 फीसदी है। ग्रामीण महिलाओं के लिए एलएफपीआर ऊंची है क्योंकि महिलाएं आमतौर पर अपने घर के आसपास कृषि कार्यों में पुरुषों की तुलना में अधिक संलग्न रहती हैं।
पीएलएफएस की अनिवार्य तौर पर एक दशक से अधिक पुराने समकक्ष सर्वे से तुलना नहीं की जानी चाहिए लेकिन इस बात पर व्यापक सहमति है कि भारत में महिला एलएफपीआर नहीं बढ़ रहा है बल्कि इसमें गिरावट ही आ रही है। अतीत में सांख्यिकीविदों ने दलील दी है कि ये कम एलएफपीआर उन कामकाजी महिलाओं की हकीकत को शामिल नहीं कर पाती है जो परिवारों और देश की अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग हैं।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो महिलाओं के उस घरेलू काम को एलएफपीआर में शामिल किया जाना चाहिए जिसके लिए उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता। परंतु एलएफपीआर के पीछे विचार यह आकलन करने का है कि अर्थव्यवस्था किस हद तक संभावित कर्मचारियों को प्रोत्साहित और समायोजित करने में कामयाब हो सकी। ऐसे में अगर बिना वेतन भत्ते के घरेलू काम को एलएफपीआर में शामिल किया गया तो यह उपाय उतना स्पष्ट नहीं रह जाएगा।
महिला और पुरुष एलएफपीआर में यह भारी अंतर भारत को वैश्विक समकक्ष देशों से अलग करता है। दक्षिण एशिया के अधिकांश देशों में महिला एलएफपीआर 50 फीसदी से अधिक है। चीन में यह 70 फीसदी के करीब है। कुछ मामलों में महिला कर्मचारियों के संगठित श्रम शक्ति में शामिल होने से पूर्वी एशिया को सन 1970 तथा 1980 के दशक में शानदार प्रदर्शन करने में मदद मिली और वही आज बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा अंतर बना है।
ऐसे में पीएलएफएस हमें यह याद दिलाता है कि महिलाओं के लिए घर से बाहर काम तक पहुंच सुनिश्चित करना प्राथमिकता में आना चाहिए तभी वृद्धि में इजाफा किया जा सकेगा। इसके लिए न केवल कानून व्यवस्था तथा महिला सुरक्षा पर ध्यान देना होगा बल्कि घर से काम पर निकलने वाली महिलाओं के लिए बने मानकों को भी तवज्जो देनी होगी।