क्रियान्वयन के अधीन परियोजनाओं के लिए अग्रिम राशि की प्रोविजनिंग से जुड़े मसौदा मानकों के कारण बैंकिंग क्षेत्र में तूफान आ गया है। जैसा कि इस समाचार पत्र में भी प्रकाशित हुआ था वाणिज्यिक बैंक भारतीय रिजर्व बैंक को पत्र लिखकर रियायत की मांग करने वाले हैं। सरकार भी प्रस्तावित मानकों का अध्ययन कर रही है जबकि बैंक तथा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के शेयरों की कीमतों में गिरावट आई है।
रिजर्व बैंक ने गत सप्ताह यह प्रस्ताव रखा कि परियोजनाओं की फाइनैंसिंग के लिए प्रोविजनिंग को मौजूदा 0.4 फीसदी की जगह 5 फीसदी किया जाए। वाणिज्यिक बैंक 1 से 2 फीसदी पर मानने को तैयार हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि रिजर्व बैंक का मसौदा यह सुझाता है कि प्रोविजनिंग में चरणबद्ध ढंग से सुधार किया जाए और इसे 31 मार्च, 2025 तक 2 फीसदी, मार्च 2026 तक 3.5 फीसदी और मार्च 2027 तक 5 फीसदी किया जाए।
कर्जदाताओं की चिंताओं को समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है। परियोजनाओं की फाइनैंसिंग के लिए उच्च प्रोविजनिंग उनके मुनाफे पर असर डालेगी। यह भी कहा जा रहा है कि इससे कर्ज की दर बढ़ेंगी और कुछ परियोजनाओं को पूरा करना मुश्किल हो जाएगा। व्यापक स्तर पर देखें तो यह पूंजीगत व्यय और समग्र वृद्धि पर असर डाल सकता है।
फिलहाल रिजर्व बैंक के इस कदम के पीछे के कारणों पर बहस की जा सकती है लेकिन इरादे एकदम स्पष्ट हैं। नियामक का इरादा यह है कि बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को निवेश चक्र के आरंभ में ही घेर दिया जाए। हालांकि निजी क्षेत्र निवेश में बड़ा इजाफा करने का अनिच्छुक रहा है लेकिन सुधार के संकेत भी मिल रहे हैं। यह बात याद करना उचित होगा कि बीते दशक में जो बैलेंस शीट संकट उत्पन्न हुआ था उसके लिए अधोसंरचना और परियोजनाओं की फाइनैंसिंग ही जिम्मेदार थी। इसकी वजह से बैंकिंग क्षेत्र में फंसे हुए कर्ज का स्तर दो अंकों में पहुंच गया था।
स्पष्ट है कि रिजर्व बैंक नहीं चाहता है कि बैंकिंग क्षेत्र दोबारा वैसी स्थिति में फंसे। बैंकिंग क्षेत्र की बैलेंस शीट को दोबारा बेहतर बनाने में बहुत अधिक समय, पूंजी और कोशिशें लगी हैं और अब यह दशक भर की सबसे बेहतर स्थिति में है। ऐसे में इसका बचाव होना ही चाहिए।
निश्चित तौर पर अभी यह प्रस्ताव मसौदा स्तर पर ही है और सभी अंशधारकों के सुझावों का ध्यान रखा जाना चाहिए। बहरहाल, रिजर्व बैंक के अंतिम निर्णय में दो बुनियादी सिद्धांतों का ध्यान रखा जाना चाहिए जो सभी अंशधारकों को भी स्वीकार्य होने चाहिए।
पहला बैंकिंग क्षेत्र की स्थिरता और मजबूती सबसे महत्वपूर्ण है। इस पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। पिछले दशक में भारत यह देख चुका है कि ऋण देने में ढिलाई से क्या हो सकता है। अनुचित ऋण मानकों पर आधारित पूंजीगत ऋण चक्र और उसके बल पर हासिल आर्थिक वृद्धि को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। रिजर्व बैंक को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि 5 फीसदी प्रोविजनिंग क्यों उचित रहेगी।
दूसरी बात, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की परियोजनाओं में भेद नहीं किया जाना चाहिए। यह कहा जाता रहा है कि सरकारी परियोजनाओं की प्रोविजनिंग कम होनी चाहिए। इससे निजी क्षेत्र को नुकसान होगा जिससे बचा जाना चाहिए। निजी और सरकारी बैंकों के लिए मानक भी अलग-अलग नहीं होने चाहिए।
कुल मिलाकर उच्च प्रोविजनिंग कई बैंकों को लंबी अवधि के ऋण देने से हतोत्साहित भी कर सकती है क्योंकि उनमें जोखिम अधिक होता है। यह बात ध्यान देने लायक है कि बेहतर कॉरपोरेट ऋण बाजार की अनुपस्थिति में भारतीय कंपनियां बैंकों तथा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। बैंकों को लंबी अवधि के ऋण से बचाने की सोच अच्छी है लेकिन नीति निर्माताओं को लंबी अवधि की योजनाओं को ऋण के लिए भी सक्षम उपाय करने चाहिए।