नोबेल शांति पुरस्कार के उलट अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिया जाने वाला अर्थशास्त्र का स्वेरिजेस रिक्सबैंक पुरस्कार आमतौर पर राजनीतिक पुरस्कार नहीं माना जाता है। परंतु निश्चित तौर पर यह पुरस्कार ये तो बताता ही है कि मुख्य धारा में आर्थिक नीति को किस तरह देखा जा रहा है। पुरस्कार के शुरुआती वर्षों में यानी 1969 के बाद नीतिगत पेशे की विकास और कल्याण आधारित सोच को पुरस्कृत किया जाता था। वॉशिंगटन सहमति के उभार के दौर में शिकागो स्कूल के नवशास्त्रीय मॉडल के प्रमुख विचारकों को एक के बाद एक यह सम्मान दिया गया।
अभी हाल के वर्षों में यानी वित्तीय बदलाव के बाद पूर्ण प्रतिस्पर्धा को लेकर बढ़ती शंका और श्रम बाजारों को लेकर चिंताओं ने ऐसे कई विद्वानों को यह पुरस्कार दिलाया जिनका काम इन विषयों से संबंधित था। अब लगातार दो साल से रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने उस काम को पुरस्कृत करना शुरू किया है जो संस्थानों, नवाचार और संस्कृति पर केंद्रित हो।
वर्ष 2025 का पुरस्कार जीतने वाले जोएल मोकिर, फिलिप एगियों और पीटर हॉविट को इस अध्ययन के लिए जाना जाता है कि विभिन्न अर्थव्यवस्थाएं और समाज नवाचार को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया देते हैं और नवाचार आधारित संस्कृतियां कैसे विकसित होती हैं। यह नीति निर्माण प्रणाली में भविष्य की आर्थिक वृद्धि के स्रोतों को लेकर व्याप्त एक व्यापक चिंता को प्रदर्शित करता है। खासतौर पर पश्चिमी देशों में जो तकनीकी प्रतिस्पर्धा में चीन से पीछे रह जाने को लेकर चिंतित हैं।
प्रोफेसर मोकिर जहां एक आर्थिक इतिहासकार हैं वहीं प्रोफेसर एगियों और हॉविट कहीं अधिक पारंपरिक नवशास्त्रीय तरीकों का प्रयोग करते हैं। उनका सबसे चर्चित पर्चा जोसेफ शुंपीटर के काम पर आधारित है जिन्हें 20वीं सदी की शुरुआत के सबसे प्रभावशाली अर्थशास्त्रियों में से एक माना जाता है। उन्होंने शुंपीटर के ‘रचनात्मक विनाश’ के सिद्धांत को औपचारिक स्वरूप प्रदान किया जो पूंजीवादी विकास प्रक्रिया के केंद्र में मौजूद है।
इसमें पुरानी प्रक्रियाएं और तकनीक निरंतर नई प्रक्रियाओं और तकनीकों द्वारा प्रतिस्थापित होती रहती हैं। यही प्रक्रिया आर्थिक वृद्धि का कारण बनती है। उन्होंने इस सिद्धांत को विकास और निवेश दरों के साथ गहराई से जोड़ दिया। इस समय जो लोग वर्तमान व्यवस्था से लाभ कमा रहे हैं और जो उद्यमी उनकी जगह लेना चाहते हैं, उनके बीच बुनियादी रूप से टकराव के हालात हैं।
इस बीच प्रोफेसर मोकिर का काम इस बात की पड़ताल करता है कि वृद्धि के लाभार्थी कब और कैसे परास्त पक्षों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। केवल एक बार यानी 1993 में ही नोबेल पुरस्कार ऐसे विद्वानों को मिला है जो मुख्य रूप से आर्थिक इतिहासकार के रूप में पहचाने जाते हैं। 1993 का पुरस्कार अतीत के नवाचार और संपत्ति अधिकारों के अध्ययन लिए दिया गया था। इस वर्ष का पुरस्कार एक तरह से उसी कड़ी का हिस्सा है।
प्रोफेसर मोकिर असल में हॉविट और एगियों के सिद्धांत को इस संकेत के साथ जटिल बना देते हैं कि नवाचारों से उत्पन्न लाभ पाने वालों की जीत के लिए आधार केवल आर्थिक कारक नहीं बल्कि संस्कृति भी है। यानी समाज में नए विचारों और नव प्रवर्तकों की स्थिति, नव प्रवर्तनों को प्रसारित करने की अनुमति देने वाली संस्थाओं की व्यापकता, परिवर्तन और रचनात्मकता की आवश्यकता में राजनीतिक विश्वास।
वह इस बात को उन समाजों के गहरे अध्ययन के माध्यम से लागू करते हैं जो आर्थिक रूप से विकसित हुए। उदाहरण के लिए 1800 के दशक का ब्रिटेन। साथ ही वे उन समाजों का अध्ययन भी करते हैं जो विकसित नहीं हो सके जबकि उन्हें होना चाहिए। उदाहरण के लिए उसके ठीक कुछ पहले की सदियों में चीन। पिछले वर्ष का नोबेल पुरस्कार संस्थागत अर्थशास्त्र के विद्वानों को दिया गया था। उससे यह सबक निकला कि दीर्घकालिक वृद्धि किसी अर्थव्यवस्था के संस्थागत आधार से निकलती है।
अगर भारतीय नीति निर्माता इस वर्ष के पुरस्कार से भी ऐसे ही सबक खोज रहे हैं तो वह सबक यह है कि नवाचार किसी समाज की प्रगति का इकलौता तरीका है और वह तब तक नहीं होगा जब तक कि यथास्थिति की जकड़न को तोड़ा नहीं जाएगा और जोखिम नहीं उठाया जाएगा। अगर यह सच है तो इसका स्वाभाविक निष्कर्ष यह होगा कि भारत और उसकी कंपनियां शोध पर बहुत कम खर्च करती हैं और हमारी सुधार की प्रक्रिया बहुत धीमी तथा लाभ उठाने वाले यथास्थितिवादियों के साथ है।