डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बनने की खबर ने विश्व व्यापार के भविष्य को अनिश्चित बना दिया है। ट्रंप बहुत पहले से ही संरक्षणवाद के मुखर समर्थक रहे हैं। उन्हें पूरा यकीन है कि विश्व व्यापार व्यवस्था कुछ इस तरह की है कि अमेरिका को नुकसान ही होना है। इन मायनों में वह चीन को सबसे बड़ा दोषी मानते हैं लेकिन वह भारत तथा अन्य देशों पर भी यह आरोप लगाने से नहीं हिचकिचाते हैं कि वे अमेरिका की कीमत पर अनुचित लाभ अर्जित कर रहे हैं।
बहरहाल, यह बात ध्यान देने लायक है कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में उनकी नीतियां कुछ हद तक नरम थीं। उन्होंने जो नीतियां लागू कीं मसलन स्टील पर शुल्क और विश्व व्यापार संगठन में विवाद निस्तारण पर प्रभावी ढंग से वीटो करना ऐसे कदम थे जिन पर उनके बाद राष्ट्रपति बने डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने भी अमल किया।
कुछ तरीकों से देखें तो ट्रंप के कदम दरअसल व्यापार को लेकर मुख्य धारा के अमेरिकी राजनीतिक वर्ग के तत्कालीन विचारों का प्रतिनिधित्व ही करते थे। यह संभव है कि दूसरे कार्यकाल में उनकी व्यापार नीति पहले की तुलना में कहीं अधिक सख्त हो।
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने प्रचार अभियान में कह चुके हैं कि टैरिफ उनका पसंदीदा शब्द है। उन्होंने खासतौर पर कहा कि चीन से आने वाली सभी वस्तुओं पर 60 फीसदी तथा अन्य देशों से आने वाली वस्तुओं पर 10 फीसदी शुल्क लगाया जाएगा। यह विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुरूप है अथवा नहीं यह अलग विषय है। सवाल यह है कि इन शुल्कों को अगर लागू कर दिया गया तो इनका असर क्या होगा।
अधिकांश अनुमान यही कहते हैं कि पहले ही अतिरिक्त क्षमता से जूझ रही चीन की अर्थव्यवस्था पर इसका तत्काल असर होगा। अनुमानों के मुताबिक इन शुल्क दरों के लागू होने के बाद के वर्षों में चीन की वृद्धि दर 1-2 फीसदी तक कम हो जाएगी। इस मंदी का असर एशिया की उन अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा जो चीन की विनिर्माण आपूर्ति से संबद्ध हैं।
अर्थव्यवस्थाएं दो तरह से प्रभावित होंगी: पहला, प्रत्यक्ष रूप से क्योंकि चीन उनका निर्यात खरीदने में पहले जैसा सक्षम नहीं रह जाएगा और दूसरा, इसलिए क्योंकि चीन की अतिरिक्त क्षमता एक गंभीर समस्या बन जाएगी और इन देशों में अपना माल खपाने की समस्या और गंभीर हो जाएगी। चीन के पास इस बात की कुछ गुंजाइश है कि वह युआन का अवमूल्यन होने दे ताकि एक व्यापार युद्ध के असर का प्रबंधन किया जा सके। परंतु एशिया के उसके कारोबारी साझेदार जिनमें से कुछ का कर्ज डॉलर में है, उनके पास शायद इतनी गुंजाइश नहीं हो। उन देशों के मौद्रिक प्राधिकार भी अवमूल्यन रोकने का प्रयास करेंगे और इस कोशिश में पूरे क्षेत्र की वृद्धि पर नकारात्मक असर होगा।
शायद इस परिदृश्य से बहुत अधिक प्रभावित न हो क्योंकि वह चीन की अर्थव्यवस्था से गहराई से जुड़ा हुआ नहीं है। चीन को निर्यात के मामले में भी वह पीछे ही रहा है। सवाल यह है कि क्या भारत ट्रंप को सफलतापूर्वक यह समझा सकता है कि भूराजनीतिक और आर्थिक वजहों से उनके टैरिफ ऐसे हों कि वे प्रभावी तौर पर चीन के विरुद्ध हों लेकिन अन्य देश उससे प्रभावित न हों। उस स्थिति में यह संभावना बनेगी कि भारत पश्चिम को निर्यात के मामले में चीन का स्थान ले सकता है। इस काम को सफलतापूर्वक करने के लिए कहीं अधिक महत्त्वाकांक्षी घरेलू सुधार एजेंडे की जरूरत होगी।