राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के अधीन अमेरिका ने दो अप्रैल को नया ‘लिबरेशन डे’ घोषित करते हुए अमेरिका के तमाम कारोबारी साझेदारों पर ‘जवाबी’ शुल्क लगा दिया है। इन टैरिफ तथा अमेरिका और विश्व अर्थव्यवस्था पर उनके आर्थिक और वाणिज्यिक प्रभावों का जहां व्यापक अध्ययन किया जा रहा है वहीं अमेरिका के इस ताजा कदम के पीछे के विचार के कारण उत्पन्न होने वाले भूराजनैतिक परिणामों पर करीबी निगाह डालने की आवश्यकता है।
ट्रंप ने टैरिफ को लेकर जो कदम उठाए हैं उनके चलते यह जोखिम उत्पन्न हो गया है कि कहीं अमेरिका शेष विश्व से अलग-थलग न पड़ जाए। ऐसे में उसकी शक्ति कमजोर पड़ेगी और अन्य महत्वपूर्ण शक्तियों को यह अवसर मिलेगा कि वे भूराजनैतिक परिदृश्य में अपने लिए जगह बनाएं तथा अपने प्रभाव का विस्तार करें। इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए कि अमेरिका के पराभव का सबसे अधिक लाभ चीन को होगा। अगर चीन सही ढंग से पहल करता है तो वह दुनिया नहीं तो भी एशिया में पूरा वर्चस्व कायम कर सकता है।
अगर अमेरिका एक ऐसे विश्व से आज़ादी का जश्न मना रहा है जिसके बारे में उसे लगता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद उसने अमेरिका से लाभ अर्जित किया है तो दूसरा पहलू यह है कि दुनिया भी शायद जल्द ही खुद को अमेरिका से आज़ाद कर ले। भले ही यह आज़ादी उसका चुनाव नहीं बल्कि मजबूरी हो। इस बात का खतरा उत्पन्न हो गया है कि ट्रंप के कदमों के बाद बनने वाली विश्व व्यवस्था में अमेरिका कहीं अलग-थलग न पड़ जाए।
बचाव के लिए विभिन्न देश नई व्यवस्था कायम कर सकते हैं ताकि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित हो, उनके आर्थिक हितों का बचाव हो और एक नई व्यवस्था कायम हो सके जो शायद अमेरिकी प्रभाव के कारण अब तक नहीं हो सका हो। व्यवस्था में यह बदलाव एशिया में जल्दी देखने को मिल सकता है। अमेरिका की टैरिफ आधारित और लेनदेन वाली कूटनीति के जोर पकड़ने पर चीन के नेतृत्व वाली आपूर्ति शृंखला का एकीकरण होगा जो अब इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर मजबूत पकड़ रखती है।
अमेरिका पहले ही चीन के हाथों आर्थिक मजबूती गंवा रहा है। एशिया में उसके साझेदार देशों के साथ भी यही हो रहा है। परंतु क्षेत्र के प्रमुख सुरक्षा सेवा प्रदाता के रूप में उसका प्रभाव अभी भी बरकरार है। अपनी नई लालची शैली में अमेरिका संरक्षण प्रदान करने के बदले अपने साझेदार देशों से कुछ प्रतिफल चाहता है तो वे यकीनन विकल्प की तलाश करेंगे। चीन इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा है।
ट्रंप प्रशासन ने कहा है कि अगर चीन ताईवान पर कोई भी हमला करता है तो अमेरिका उसके बचाव के लिए नहीं जाएगा क्योंकि एक तो वह बहुत दूर है और दूसरा वहां अमेरिका के कोई खास हित भी नहीं शामिल हैं। इससे संकेत मिलता है कि अमेरिका अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दबदबा नहीं रखना चाहता है बल्कि वह एक संतुलनकारी की भूमिका में रहना चाहता है। इससे पता चलता है कि उसकी हिंद-प्रशांत नीति और ‘क्वाड’ की बुनियाद हिल चुकी है जो चीन को नियंत्रित रखने के मामले में भारत की रणनीति का अहम घटक बन चुका है। भारत के सामने चीन की चुनौती सुरक्षा हितों पर और अधिक केंद्रित होगी। ठीक जापान और दक्षिण कोरिया की तरह जो अपने बचाव के लिए परमाणु हथियार बना सकते हैं।
आने वाले दिनों की विश्व व्यवस्था को आकार देने में इस बात की महत्वपूर्ण भूमिका होगी कि यूरोप ट्रंप द्वारा अटलांटिक गठबंधन को लगभग त्याग देने को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया देता है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ‘पश्चिम’ की जो अवधारणा थी वह अब मौजूद नहीं है। खासकर यूरोप में हाल के वर्षों में विभाजन देखने को मिला है। खासकर 2020 में ब्रेक्सिट के बाद से ऐसा हुआ है। क्या मौजूदा घटनाओं का दबाव यूरोप को दोबारा एकजुट कर पाएगा? क्या यूनाइटेड किंगडम और यूरोपीय संघ द्वारा हाल के दिनों में सुरक्षा हितों को लेकर एकजुट होकर काम किया जाना उनके दोबारा जुड़ने की संभावनाएं उत्पन्न करता है? क्या यूरोप गंभीरतापूर्वक अमेरिका से अपनी अपनी रक्षा स्वतंत्रता को संगठित करेगा?
भारत के नज़रिये से देखें तो अधिक एकजुट, अधिक स्वतंत्र यूरोप जो अधिक स्वायत्त होगा, वह एक सकारात्मक घटनाक्रम होगा और भारत और यूरोप के पास यह अवसर भी होगा कि वे करीबी रणनीतिक साझेदारी कर सकेंगे। एक बहुध्रुवीय विश्व पारंपरिक रूप से भारत की प्राथमिकता रहा है और उसके लिए एक मजबूत और स्वायत्त यूरोप का होना जरूरी है।
एक नज़रिया यह भी है कि दुनिया शायद उस दौर की ओर पीछे लौट रही है जहां महाशक्तियों ने दुनिया को अपने-अपने प्रभाव के प्रतिस्पर्धी गोलार्द्ध में बदल दिया। ट्रंप उसी विचार के प्रति आकर्षित नजर आ रहे हैं। उनकी विश्व दृष्टि की बात करें तो अमेरिका का अमेरिकी क्षेत्र के साथ उसके आसपास के इलाकों मसलन ग्रीनलैंड आदि पर दबदबा है, रूस यूरोप पर दबदबा बना रहा है और चीन एशियाई शक्ति बन रहा है। संदेह तो यही है कि मॉस्को और पेइचिंग में बैठे अनुभवी नेता ट्रंप की हरकतों के कारण हो रहे लाभ को ग्रहण करेंगे और अमेरिका को उसके साझेदारों से अलग-थलग हो जाने देंगे।
शक्ति के प्रभावी और किफायती इस्तेमाल को भी वैधता की आवश्यकता होती है। अमेरिका की बात करें तो उसने अपनी सॉफ्ट पॉवर की मदद से इस वैधता पर बल दिया है। यहां सॉफ्ट पॉवर से तात्पर्य उसकी लोकप्रिय संस्कृति के प्रति आकर्षण, नवाचार की भावना और उसकी उद्यमिता की भावना से है। चूंकि अमेरिकी विश्वविद्यालयों को उदार विचारों का गढ़ माना जाता है इसलिए उन्हें व्यवस्थित ढंग से नष्ट किया जा रहा है। अगर मौजूदा गति से इन्हें नष्ट किया जाता रहा तो दशकों की मेहनत से बनी अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय प्रोफाइल को ट्रंप के चार साल के कार्यकाल में शायद इतना अधिक नुकसान हो जाएगा कि वापसी संभव न होगी।
भारत के लिए बदलता भूराजनैतिक परिदृश्य अवसरों से भरा हुआ होगा हालांकि इस दौरान जोखिम भी अधिक होगा। खासतौर पर एक अधिक आक्रामक और ताकतवर चीन से काफी खतरा होगा। चीन के प्रति मौजूदा रुख की समीक्षा करनी होगी। एक बात जो नहीं बदली है वह यह है कि भारत को अपने क्षेत्र की सुरक्षा करने की आवश्यकता है और पड़ोसियों को प्राथमिकता देने की अपनी घोषित नीति को हकीकत में उतारते हुए वृद्धि का इंजन बनना होगा और सभी पड़ोसी देशों को सुरक्षा प्रदान करनी होगी। अपने पड़ोसियों के बरअक्स उसे जो शक्ति हासिल है, वह इसे बिल्कुल संभव बनाता है।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)