वर्ष 2023 और 2024 में चीन की यात्रा के दौरान मेरे चीनी वार्ताकारों के बीच अपेक्षाकृत शांत और निराशावादी माहौल था। चीन की अर्थव्यवस्था डांवाडोल थी। ऐसा उसके संपत्ति क्षेत्र में आए संकट की बदौलत था। विगत चार दशकों से वही चीन की वृद्धि का मुख्य इंजन था। चीन की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि में प्रॉपर्टी क्षेत्र की हिस्सेदारी 30 फीसदी थी और इसने कई सहायक उद्योगों को भी जन्म दिया, जिससे वहां तीव्र विकास को बल मिला। वर्ष 2021 में जब प्रॉपर्टी बाजार का पतन हुआ तो उसका असर पूरी अर्थव्यवस्था पर पड़ा। खपत मांग के स्थिर रहने के कारण अर्थव्यवस्था अभी भी अपस्फीति के दबाव का सामना कर रही है।
बैंक जमा पर बेहतर रिटर्न न मिलने और इक्विटी बाजार के अस्थिर रिटर्न के चलते प्रॉपर्टी में निवेश व्यक्तिगत बचत को खपाने के लिए एक बेहतर तरीका बन गया क्योंकि परिसंपत्ति का मूल्य तेजी से बढ़ रहा था। ऐसे में प्रॉपर्टी की कीमतों में तेज गिरावट ने समाज के एक बड़े हिस्से की बचत को खत्म कर दिया जिसने परिसंपत्तियों में निवेश किया था। इससे उपभोक्ता मांग प्रभावित हुई।
श्रम बाजार में शामिल हो रहे युवाओं और शिक्षित युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी कम थे। बीते तीन साल में 18 से 25 की आयु के युवाओं में बेरोजगारी 25 फीसदी के स्तर पर रही। गत वर्ष एक प्रतिष्ठित चीनी वार्ताकार ने आर्थिक हालात को ‘गंभीर’ करार दिया था। उधर यह चिंता भी थी कि अगर डॉनल्ड ट्रंप दोबारा अमेरिका की सत्ता में लौटे तो कारोबारी जंग छिड़कर रहेगी।
इस माह के आरंभ में अपनी ताजा चीन यात्रा के दौरान मैंने उसी वार्ताकार से पूछा कि क्या आर्थिक हालात में सुधार हुआ है तो उसने कहा कि सुधार के आरंभिक संकेत नजर आ रहे हैं लेकिन अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में दो से तीन साल का समय लग सकता है। मैंने पूछा कि आखिर राष्ट्रपति शी चिनफिंग के खुद आगे बढ़कर अलीबाबा के जैक मा जैसे पुराने दिग्गज उद्योगपतियों से संपर्क करने के बाद भी निवेश में ठहराव क्यों है? इसका उत्तर पार्टी नेतृत्व के प्रति अविश्वास के रूप में यूं सामने आया कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। इसके बावजूद आमतौर पर माहौल आत्मविश्वास से भरा हुआ है और पिछले वर्ष की तुलना में अधिक आशावाद नजर आ रहा है। अगर चीन की अर्थव्यवस्था अपनी दिक्कतों से निपटती नहीं दिखती तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को आत्मविनाश की दिशा में बढ़ते हुए देखा जा सकता था।
चीन में यह गौरव बोध नजर आ रहा था कि वह अमेरिका की बदमाशी के आगे टिक गया। उसके पास दुर्लभ खनिजों और धातुओं के अलावा अन्य अहम तत्वों का स्वामित्व है जो आपूर्ति श्रृंखला के लिए बहुत मायने रखते हैं। शुल्क दरों को लेकर गतिरोध में अमेरिका को झुकना ही पड़ा। ऐसे में चीन की अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल हालात से जूझने के बावजूद माना जा रहा था कि वह अमेरिका की तुलना में कहीं अधिक मजबूत स्थिति में है। चीन में इसलिए भी उत्साह था क्योंकि दुनिया भर में अमेरिका के साथ आर्थिक सहयोग और सहायता कम हो रही थी। उधर, चीन अपनी नई बेल्ट ऐंड रोड पहल तथा अफ्रीका में विस्तारित उपस्थिति के साथ तैयार था।
हाल में ऐसी अफवाहें बार-बार सुनने को मिलीं कि चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग को शीर्ष नेतृत्व से हटाया जा रहा है। ऐसी खबरें भी आईं कि पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए में चुनिंदा शीर्ष नेतृत्व को हटाए जाने के बाद असंतोष के हालात हैं। खबरों के मुताबिक पीएलए चिनिफिंग को नेतृत्व से हटाने की कोशिश कर रही थी। परंतु मेरे चीनी वार्ताकारों ने इस बात को खारिज किया और कहा कि शी चिनफिंग का सत्ता पर पूरी तरह से नियंत्रण है। उनका तर्क है कि दोबारा अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने जो अफरातफरी पैदा की है उसने शी चिनफिंग और उनके समर्थकों को मजबूती से यह कहने का आधार दिया है कि चीन को कहीं अधिक मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। जहां तक नेताओं को हटाए जाने की बात है तो कहा गया कि पार्टी के इतिहास को देखते हुए यह सामान्य बात है। बहरहाल मुझे नहीं लगता है कि यह सामान्य है और यह शी चिनफिंग के प्रति पीएलए की व्यक्तिगत निष्ठा को लेकर सवाल पैदा करता है। शी के प्रति बढ़ते असंतोष में पीएलए अहम हो सकती है।
भारत-चीन रिश्तों को लेकर हुई बातचीत में पिछले दो साल की तुलना में आक्रामकता और अहंकार अधिक नजर आया। वर्ष 2020 में गलवान में हुई झड़प के बाद बाधित हुई दोनों पक्षों की उच्चस्तरीय संपर्क बहाली का स्वागत किया गया और इस बात की उम्मीद जताई गई कि जल्दी ही सीधी उड़ानें शुरू होंगी और पत्रकारों को एक दूसरे के देश में नियुक्ति मिलेगी। इसके अलावा वीजा नियम उदार बनाने और जनता के बीच संपर्क बढ़ाने की भी उम्मीद जताई गई।
भारत में चीनी कंपनियों के साथ भेदभाव की शिकायतें थीं और इस बात से भी कि भारत को बेहतर निवेश केंद्र के रूप में पेश करने के लिए चीन को नीचा दिखाया जा रहा है। कहा गया कि ये शत्रुतापूर्ण गतिविधियां हैं। आर्थिक रिश्तों से संबंधित बातचीत में एक चीनी वार्ताकार ने कहा कि भारत को यह समझना चाहिए कि भारत के बिना चीन रह सकता है लेकिन भारत का काम चीन के बिना नहीं चलेगा।
पाकिस्तान को लेकर भी सुर बदले हुए थे। उसे भाई समान बताया जा रहा था। इससे पहले जब पाकिस्तान के साथ रिश्तों की बात होती थी तो चीन के लोग रक्षात्मक नजर आते थे और दोनों देशों की साझेदारी को सामान्य सहयोग बताते थे। अब पाकिस्तान की सुरक्षा के प्रति चीन की प्रतिबद्धता को लेकर कोई हिचक नहीं दिखती। इससे इस धारणा को बल मिलता है कि चीन पाकिस्तान की सैन्य क्षमताओं को उन्नत बनाने और उसे भारत के विरुद्ध खड़ा रखने की हर संभव कोशिश करेगा।
हिंद महासागर में भारत को चेताया गया कि दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना होने के नाते चीन दक्षिण चीन सागर तक अपनी संचार लाइनों की सुरक्षा के लिए हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ाएगा। भारत के लिए बेहतर होगा कि वह जमीन के टकराव को समुद्र तक न ले जाए।
कुछ वार्ताकारों की बातों का स्वर आक्रामक था जबकि अन्य ने अधिक सकारात्मक और मित्रतापूर्ण रुख रखा। यह चीन की शैली है लेकिन इसके बावजूद आक्रामक रुख पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह एक नई भूराजनीतिक आश्वस्ति को दिखाता है। इसके पीछे अमेरिका का पराभव जिम्मेदार है। चीन मानता है कि उसको काबू में रखने की कोशिश में ही भारत अमेरिका के साथ है इसलिए वह भारत को एक तरह से संदेश दे रहा है। चीन से भारत को संदेश यह है कि उसका अमेरिकी संबंध अपनी प्रभावशीलता खो रहा है।
भारत को आने वाले वर्षों में चीन की ओर से बढ़ती सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहिए। दोनों देशों के बीच शक्ति के अंतर को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि चीन की चुनौती से निपटने के लिए कितनी तगड़ी तैयारी की आवश्यकता है। दो काम तत्काल करने होंगे-पहला, अपने उपमहाद्वीपीय पड़ोसियों के साथ निरंतर और ज्यादा संपर्क ताकि चीन की मौजूदगी को सीमित किया जा सके। दूसरा, पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के साथ नए सिरे से संपर्क ताकि एक्ट ईस्ट नीति को हकीकत में बदला जा सके। खासतौर पर आर्थिक और कारोबारी रिश्ते मजबूत करने होंगे। बिना आर्थिक रिश्ते के हम अपने पूर्व में कमजोर बने रहेंगे।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)