सुधार अक्सर शोध और साझा मान्यताओं वाले लोग ही करते हैं। इस बात को वित्तीय क्षेत्र में चुपचाप मगर निरंतर हो रहे सुधारों में देखा जा सकता है। बता रहे हैं
हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपनी वेबसाइट पर एक दस्तावेज अपलोड किया जिसका शीर्षक था, ‘नियमन निर्माण के लिए फ्रेमवर्क।’ मोटे तौर पर इस पर ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि नियमन के क्षेत्र में इसे अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।
राज्य का सार दरअसल हिंसा और बलपूर्वक शक्ति के इस्तेमाल के उसके एकाधिकार में निहित है। लोकतांत्रिक देशों में राज्य की दमनकारी शक्ति का इस्तेमाल केवल कानून के अधिकार के साथ ही स्वीकार किया जा सकता है। बल प्रयोग में लोकतांत्रिक वैधता कानूनी प्रक्रिया और मानकों के अधीन होनी चाहिए। भारतीय संविधान एक विस्तृत प्रक्रिया बताता है, जिसके जरिये राज्य अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इसके अलावा विशेषज्ञ और संसदीय समितियां तथा हितधारकों के साथ मशविरे जैसे मानक भी हैं, जो नतीजे लाने में भूमिका निभाते हैं।
देश में कानून लिखने का काम मुख्य तौर पर सांविधिक नियामकीय प्राधिकार (एसआरए) का है। उन्हें कानून बनाने की शक्ति दी गई है। वे निजी लोगों से एक खास व्यवहार की मांग करने वाले कानून लिख सकते हैं। इनका पालन नहीं करने के लिए जुर्माने की भी व्यवस्था की जाती है। नियमन वाली संस्थाओं पर इस अधिकार का प्रभाव ठीक वैसा ही होता है जैसा कि विधायिका द्वारा बनाए गए कानून का। उदाहरण के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी ने भेदिया कारोबार के कायदे तैयार किए। इन कायदों का उल्लंघन होने पर भारी जुर्माना हो सकता है। इसमें 25 करोड़ रुपये तक का भारी जुर्माना, कैद और प्रतिभूति बाजारों में कारोबार पर रोक आदि शामिल हैं। अकेले वित्तीय क्षेत्र में अनुमान है कि सभी वित्तीय एजेंसियों को मिलाकर देखें तो हर कार्य दिवस में अनुमानत: 10 ऐसे कानून सामने आए।
एसआरए द्वारा ऐसी शक्तियों के इस्तेमाल में ‘लोकतंत्र की कमी’ रहती ही है। उदार लोकतांत्रिक देश में अनिर्वाचित अधिकारियों के पास आम तौर पर कानून लिखने की शक्ति नहीं होती। उदाहरण के लिए सेबी अधिनियम के तहत इन नियमन को सेबी के बोर्ड द्वारा तैयार किया जाना चाहिए। मगर सेबी अधिनियम यह नहीं बताता कि ये कायदे कैसे लिखे जाने चाहिए। इसीलिए सेबी जैसे नियामक लोकतांत्रिक वैधता की विधायी प्रक्रिया के बगैर ही नियमित रूप से कानून लिख रहे थे। चौदह साल पहले 2011 में भारत सरकार ने वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) का गठन किया। इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को सौंपी गई और इसके सदस्यों में अर्थशास्त्री, बैंकर, अधिवक्ता तथा लोक प्रशासन के विशेषज्ञ शामिल थे। एफएसएलआरसी ने मार्च 2013 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस पर सार्वजनिक मशविरा भी किया गया और लोगों की टिप्पणियों से निपटने में दो साल का वक्त और लगा।
कुल मिलाकर एफएसएलआरसी एक चार वर्षीय परियोजना थी जिसने उच्च गुणवत्ता वाले कानून का मसौदा पेश किया। इस कानून के तीन घटक हैं: (क) कानून की करीब 140 धाराएं बताती हैं कि नियामकों को किस तरह काम करना चाहिए (ख) एजेंसियों का बेहतर वित्तीय ढांचा हो और एजेंसियां मिले काम को अच्छी तरह करें (ग) विभिन्न वित्तीय एजेंसियों द्वारा वित्तीय और मौद्रिक आर्थिक नीति के लिए किए जाने वाले कामों का विस्तृत विवरण।
मगर इस मसौदे भारतीय वित्तीय संहिता (आईएफसी) को कानून का रूप नहीं दिया गया। बदलाव का सामान्य सिद्धांत कारगर नहीं साबित हुआ। किंतु एफएसएलआरसी के काम का बहुत अधिक प्रभाव हुआ और उसने देश में वित्तीय आर्थिक नीति को नया आकार दिया। एफएसएलआरसी ने सभी संगठित वित्तीय कारोबारों के कायदों का एकीकरण करने की बात कही थी। इसके लिए वायदा बाजार आयोग का विलय सेबी में करने की जरूरत थी, जो 2013 में किया गया। एफएसएलआरसी ने मौद्रिक नीति की नई जवाबदेही तय की थी – मुद्रास्फीति को निशाना बनाना। समिति के अधिकार बढ़ाने के लिए गैर-सरकारी सदस्य बढ़ाने की बात थी। यह 2015-16 में किया गया था। एफएसएलआरसी ने कल्पना की थी कि प्रतिभूति अपील पंचाट वह मंच होगा जहां सभी वित्तीय एसआरए के विरुद्ध अपील की जाएगी। यह रिजर्व बैंक के अलावा सभी वित्तीय एसआरए के लिए किया गया है।
एसआरए के विधायी कार्य के लिए एफएसएलआरसी ने लोकतंत्र की कमी को बोर्ड की भूमिका और संरचना, विशेषज्ञता और परामर्श के माध्यम से दूर करने की सिफारिश की। नियामक नियमन का मकसद साफ करे, बताए कि किन बाजार विफलताओं को इससे ठीक किया जाएगा और इसमें क्या खर्च तथा फायदा होगा। इसके बाद कम से कम खर्च वाले उपाय को चुना जा सकेगा। सार्वजनिक मशविरा जरूरी है और फिर बोर्ड ही सभी कानूनों को अधिकृत कर सकता है। इससे कानून बेहतर बनेगा और उसकी वैधता भी बढ़ेगी।
हालांकि एफएसएलआरसी की वित्तीय संहिता को कानून का रूप नहीं दिया गया किंतु इस पर आगे बढ़ने की गुंजाइश तो हमेशा रहती है। भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण ने पहल करते हुए जून 2016 में कायदे बनाने वाली व्यवस्था शुरू की। नवनियुक्त ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड ने भी 2017 में इसकी व्यवस्था की थी। पेंशन फंड नियामकीय एवं विकास प्राधिकरण ने 2024 में इसकी व्यवस्था जारी की। सेबी ने एक और साल तक इंजतार किया और तीन महीने पहले ऐसा कर सका। रिजर्व बैंक ने भी पिछले दिनों यह व्यवस्था जारी कर दी।
इससे हमें बदलाव के सिद्धांत का पता चलता है। सरकार में शामिल व्यावहारिक लोग अक्सर कहते हैं कि उन्हें बाहरी विशेषज्ञों की सलाह नहीं चाहिए क्योंकि उन्हें हकीकत पता है और वे दफ्तर में बैठकर ज्ञान नहीं देते रहते। देश में आर्थिक सुधारों का वास्तविक इतिहास पूरी तरह शोध और सुधार समुदाय की दास्तान है।
एफएसएलआरसी खुद भी शोध एवं सुधार करने वालों की मेहनत का फल है, जो 1990 के दशक की शुरुआत से ही चल रहा था। 2011 से 2015 के बीच एफएसएलआरसी के भीतर जमकर बहस हुईं और आम सहमति बनी। विचारों को दस्तावेजों, पत्रों, ब्लॉग लेखों, वीडियो का रूप दिया गया। धीरे-धीरे लोगों को बात पसंद आई और माहौल बदल गया। इस लंबी यात्रा के जरिये भारत में विनियमन की लोकतांत्रिक वैधता के मानदंड बदल गए। अगले 10 सालों में कायदे लिखने के लिए बनाई गई अपनी ही प्रक्रिया को बेहतर बनाने, प्रत्येक वित्तीय एसआरए के भीतर क्षमता निर्माण करने के लिए पूरी प्रक्रिया का पालन करने और इन प्रक्रियाओं को कानून का जामा पहनाने का काम किया जाना चाहिए।
(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं)