क्या होता है जब 19वीं सदी में बने एक ढांचे में 21वीं सदी की तकनीक का इस्तेमाल होने लगता है? एक अहम समुद्री परिवहन मार्ग के अवरुद्ध होने से कुछ ऐसा ही हुआ है। इस घटना के बड़े दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।
मंगलवार सुबह कंटेनर ढोने वाला जहाज ‘एवर गिवन’ स्वेज नहर से जा रहा था। उसी समय वह थोड़ा टेढ़ा होकर किनारे से जा लगा और पूरी नहर ही अवरुद्ध हो गई। इस वजह से स्वेज नहर के रास्ते होने वाली आवाजाही पूरी तरह बाधित हो गई है। तमाम कोशिशों के बावजूद फंसे हुए जहाज को अभी तक निकाला नहीं जा सका है। इसकी वजह से नहर के मुहाने पर इंतजार कर रहे जहाजों की लंबी कतार लग गई है।
एवर गिवन जहाज काफी बड़े आकार का है लेकिन उससे भी बड़े जहाज इससे गुजरते रहे हैं। इसकी लंबाई करीब 400 मीटर, चौड़ाई 60 मीटर और गहराई 14.5 मीटर है। यह कुल 2 लाख टन का वजन उठा सकता है। जहाज के चालकदल के सभी सदस्य भारतीय हैं और नहर पार करने का जिम्मा मिस्रवासी पायलट के पास था। यह जहाज 20,000 कंटेनर लेकर शांघाई से रॉटरडैम के सफर पर निकला था।
जहाज के फंसने वाली जगह पर नहर की चौड़ाई करीब 300 मीटर है। उलटे शंकु वाले आकार में बनी स्वेज नहर की तली सतह से कम चौड़ी है और दोनों किनारों पर ढलान बनी हुई है। एवर गिवन जहाज नहर के पूर्वी किनारे पर जाकर मिट्टी में धंस गया है।
इस मानव-निर्मित समुद्री नहर में फंसे जहाज को निकाल पाना काफी चुनौतीपूर्ण है। एक तरीका यह है कि जहाज पर लादे गए सारे सामान को उतारा जाए, टैंकों से तेल निकाला जाए और फिर खींचने वाली नौका की मदद से बाहर खींच लिया जाए। लेकिन कंटेनर चलाने वाले उपकरणों के चालू हालत में न होने से ऐसा कर पाना बेहद मुश्किल है।
दूसरा तरीका जहाज फंसने वाली जगह पर नहर को चौड़ा एवं गहरा करने का है। खुदाई करने एवं मिट्टी हटाने वाले उपकरणों की मदद से इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। अगर यह तरीका कारगर भी होता है तो किसी को नहीं पता है कि इसमें कितना वक्त लग जाएगा। कम-से-कम 10 दिन का वक्त तो लग ही जाएगा।
स्वेज नहर के रास्ते रोजाना करीब 10 अरब डॉलर मूल्य के उत्पादों का आवागमन होता है। इसमें वैश्विक तेल एवं गैस आपूर्ति का 10वां हिस्सा शामिल है। इस नहर का इस्तेमाल करने से यूरोप एवं एशिया की यात्रा पर निकले किसी भी जहाज का 10-14 दिन का समय बच जाता है। नहर का इस्तेमाल न करने पर जहाज को केप ऑफ गुडहोप के रास्ते अफ्रीका महाद्वीप का पूरा चक्कर लगाकर जाना पड़ता है।
करीब 10 वर्ष तक चले निर्माण के बाद स्वेज नहर को आवागमन के लिए 1869 में खोला गया था। इस अद्भुत निर्माण परियोजना ने समूचे समुद्री व्यापार की सूरत ही बदलकर रख दी। फ्रांसीसी इंजीनियर फर्दिनांद डि लेसप को स्वेज नहर के निर्माण एवं परिचालन के लिए 99 साल का ठेका मिला था। इस परियोजना के अधिकांश शेयरधारक फ्रांस के रहने वाले थे। वर्ष 1882 में ब्रिटेन ने मिस्र पर हमला कर इस नहर को अपने कब्जे में ले लिया और दोनों विश्व युद्धों में भी इसका परिचालन करता रहा।
वर्ष 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने लेसप को दिया गया अनुबंध निरस्त करने के साथ ही स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे नाराज ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल ने मिस्र पर हमला कर दिया। इसके बावजूद आखिर में मिस्र को ही स्वेज नहर की कमान मिली। वर्ष 1967 में इजरायल ने सिनाई पर कब्जा कर लिया तो पूर्वी तट ईस्ट बैंक भी उसके नियंत्रण में आ गया। वर्ष 1973 में मिस्र के सैनिकों ने नहर को पार कर धावा बोल दिया। जिसके जवाब में इजरायली सेना भी वेस्ट बैंक पार कर गई। जब बेगिन और सादात के बीच शांति समझौता हुआ तो इजरायल ने मिस्र को सिनाई लौटा दिया और स्वेज नहर को सैन्य अतिक्रमण से मुक्त कर दिया गया। स्वेज नहर की वजह से मिस्र को साल भर में 7 अरब डॉलर की बड़ी रकम आवागमन शुल्क के तौर पर मिल जाती है।
वर्ष 1869 में जब नहर का निर्माण हुआ था तो उसकी क्षमता काफी अधिक थी। उस समय जहाज काफी छोटे हुआ करते थे और पानी की सतह के नीचे भी वे कम गहरे हुआ करते थे। नहर को कई बार चौड़ा एवं गहरा किया जा चुका है। लेकिन एवर गिवन जहाज इस नहर की क्षमता के हिसाब से ऊपर (स्वेजमैक्स) की श्रेणी में आता है।
स्वेज नहर, पनामा नहर और ट्रांस-साइबेरियन रेलवे जैसी बड़ी परियोजनाओं ने विश्व व्यापार का रूप ही बदलकर रख दिया। कंटेनरों के आने से नई तरह की सक्षमता पैदा हुई। मानक आकार एवं रूप के कंटेनर होने से उन्हें जहाजों में लादने और रेलवे वैगनों एवं ट्रकों में ले जाने लायक ढांचा बना पाना अधिक आसान हुआ है। इसका सीधा नतीजा यह हुआ है कि मालढुलाई के समय में खासी कमी आई है। कंटेनरों के आने के पहले माल की लदाई एवं उतराई में कई दिन लग जाते थे। लेकिन अब यह काम चंद घंटों में ही पूरा हो जाता है। कंटेनरों की ढुलाई के लायक जहाजों को बनाने से बड़े पैमाने पर तेल की भी बचत हुई है।
हालांकि कंटेनरों के जरिये मालढुलाई के भी कुछ मसले हैं। टर्मिनलों का वितरण असमान है। मसलन, भारत के पूर्वी तट पर मौजूद ढुलाई टर्मिनल श्रीलंका से पीछे रह गए हैं। विश्व व्यापार के असमान प्रवाह ने भी निर्यातोन्मुख एशिया में कंटेनरों की किल्लत पैदा कर दी जबकि अमेरिका एवं यूरोप में खाली कंटेनरों का जखीरा बनता गया। जहाजों का आकार भी अब उस सीमा पर पहुंच चुका है जहां स्वेज एवं पनामा नहरों से निकल पाना मुश्किल होने लगा है। यह वाकया बीमा कंपनियों को कंगाल भी कर सकता है। ऐसे में इस घटना का विश्व व्यापार पर गंभीर असर पड़ सकता है।
