चुनावी साल में वृहद आर्थिकी को लेकर हमारे विचार किस तरह बदलते हैं? सार्वजनिक चयन सिद्धांत कहता है कि राज्य लोगों से मिलकर बनता है और उनके हितों को अधिकतम तौर पर पूरा करने का प्रयास करता है। चुनाव राजनेताओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। ‘राजनीतिक कारोबारी चक्र’ का विचार चुनाव के पहले और बाद में एक खास तरह की नीति की परिकल्पना करता है और वृहद अर्थव्यवस्था को लेकर विशिष्ट भावनाओं को जन्म देता है। इस अवधारणा को समझने की हमारी क्षमता आर्थिक हालात और घटनाक्रम को समझने में हमारी मदद करती है।
वृहद अर्थव्यवस्था, राजकोषीय और मौद्रिक नीति राजनीतिक कारोबारी चक्र के बारे में विचार के प्रारंभिक बिंदु हैं। विकसित देशों में इस प्रकृति के रुझान को देखा जा चुका है। पुराने दिनों में केंद्रीय बैंक चुनाव के पहले दरों में कटौती करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि मतदाताओं को आर्थिक गतिविधियों में मामूली तेजी लाकर बेवकूफ बनाया जा सकता है। ऐसे में मुद्रास्फीति में उभार आने में थोड़ा वक्त लगता था। इसी प्रकार चुनाव के पहले व्यय बढ़ाने को लेकर भी तमाम प्रोत्साहन हैं।
ऐसे व्यवहार से जुड़े अवसर बाजार तथा संस्थागत विकास के द्वारा सीमित होते हैं। विकसित देशों में सरकारों को यह डर होता है कि कहीं उन्हें बॉन्ड बाजार की नाराजगी न झेलनी पड़े। भारी घाटे की स्थिति में उच्च ब्याज दर के रूप में तत्काल दंड सामने आता है जो पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। ऐसा करके ऐसे व्यवहार के प्रति आकर्षण को रोका जाता है।
मौद्रिक नीति की बात करें तो राजनीतिक कारोबारी चक्र की दलील के साथ पुरानी शैली की मौद्रिक नीति का अंत किया गया जहां केंद्रीय बैंकिंग का एक रहस्य था और वहां के कर्मचारियों के पास विवेकाधीन शक्तियां थीं। जब तक समुचित मौद्रिक नीति के साथ मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाया जा रहा है तब तक इस चिंता को संबोधित किया जा सकता है। विकासशील देशों में यह अलग ढंग से होता है।
संस्थागत गुणवत्ता के कमजोर होने के कारण इस बात का खतरा अधिक होता है कि आर्थिक नीति संबंधी निर्णय दोबारा सरकार में आने की बात को ध्यान में रखते हुए लिए जाएंगे। परंतु एक अलग किस्म की बाधाएं भी हैं। वित्तीय तंगी के हालात में राजकोषीय नीति इस बात पर विचार नहीं करती कि बॉन्ड बाजार क्या सोचता है। परंतु अच्छे या बुरे दिनों में राजकोषीय नीति में छेड़छाड़ की बहुत कम गुंजाइश है।
महामारी के समय विकसित देश बड़े पैमाने पर राजकोषीय प्रतिक्रिया दे सके क्योंकि उनके पास वित्तीय लचीलापन था। राजकोषीय नीति की रणनीति की दिक्कत को देखते हुए विकासशील देशों के पास इस क्षेत्र में सीमित लचीलापन होता है। फिर चाहे महामारी हो या चुनाव।
अधिकांश देशों के पास अब मुद्रास्फीति को लक्षित करने का औपचारिक तरीका है लेकिन कई विकासशील देशों में यह संस्थागत व्यवस्था अभी तक अच्छी तरह स्थापित नहीं है और केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों के पास कुछ शक्ति है ताकि वे चुनावी लक्ष्यों पर विचार कर सकें। वे सत्ताधारी दल की मदद के चार तरीकों के बीच उलझे हैं। क्या मुद्रास्फीति को लक्षित करके विदेशी निवेशकों को स्थिर रखना सबसे बेहतर है? या महंगाई कम करके मतदाताओं को प्रभावित करना बेहतर है? क्या ब्याज दरों को कम रखना और कमजोर विनिमय दर की मदद से निर्यात की मांग को बढ़ावा देना उचित होगा? या फिर उच्च ब्याज दरें और उच्च विनिमय दर बेहतर होगी? इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है।
अधोसंरचना निर्माण के क्षेत्र में जब करीब 1,000 कर्मचारियों वाली परियोजना शुरू होती है तो यह विस्तारवादी होती है और जब परियोजना पूरी होती है तो इन 1,000 कर्मचारियों का रोजगार चला जाता है। सामान्य तौर पर परियोजना निर्माण का आरंभ और अंत कोई निश्चित घटना नहीं हैं। अक्सर ही कोई न कोई परियोजना पूरी होती रहती है और नई परियोजना शुरू होती रहती है। इसका अर्थव्यवस्था पर कोई उल्लेखनीय असर दिखाई नहीं देता।
परियोजना के पूरा होने के राजनीतिक कारोबारी चक्र की संभावना पर विचार कीजिए। मान लीजिए कई परियोजनाएं चुनाव से एक वर्ष पहले पूरी हो जाती हैं। इस मामले में परियोजनाओं के पूरा होने के कारण बड़ी तादाद में निर्माण श्रमिकों की आजीविका छिन जाती है। इससे आर्थिक गतिविधियों में गिरावट आती है।
यदि ऐसा व्यवहार मौजूद है तो यह एक ऐसा रास्ता हो सकता है जिसकी मदद से राजनीतिक कारोबारी चक्र का उदय हो सकता है। यदि ऐसी बात है तो चुनावी साल तथा उसके बाद वाला वर्ष मांग के क्षेत्र में अपेक्षाकृत कमजोर रहेगा क्योंकि कई परियोजनाएं पूरी होंगी।
राजनीतिक कारोबारी चक्र का दूसरा मार्ग आर्थिक नीति की अनिश्चितता में निहित हो सकता है। ऐसे कई उद्योग हैं जहां सरकार का समर्थन कारोबारी योजना या निवेश के लिए अहम है। सत्ताधारी प्रतिष्ठान में बदलाव, कैबिनेट मंत्रियों का बदलना या वरिष्ठ अधिकारियों का बदलना नीतिगत परिवर्तन ला सकता है या फिर निजी व्यक्तियों के साथ व्यवहार में बदलाव आ सकता है। यदि कई कंपनियों या उद्योगों को लगता है कि उनके सामने ऐसा जोखिम है तो वे चुनाव के पहले की अवधि में निवेश को लेकर धीमा रुख रखेंगे। बागो और अल्ताफ का 2022 का शोध 2009, 2014 और 2019 के लोक सभा चुनाव के हवाले से इसे सही ठहराता है।
परियोजनाों के पूरा होने और कंपनियों के ऊपर पड़ने वाला असर पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं करता है लेकिन अगर यह 10 से 20 फीसदी अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करता है तो इससे आर्थिक गतिविधियां प्रभावित होती हैं। ये सीधे प्रभाव कई स्तरों पर असर डालते हैं। मिसाल के तौर पर रोजगार गंवाने वाले श्रमिक कम कपड़े खरीदते हैं।
मुख्य धारा का आर्थिक साहित्य मौद्रिक और राजकोषीय नीति पर जोर देता है। वर्तमान साहित्य में राजनीतिक कारोबारी चक्र को लेकर कुछ दिलचस्प विचार शामिल हैं। उदाहरण के लिए कर्ज माफी। इस आलेख में हमें आश्चर्य है कि राजनीतिक अनिश्चितता का पुराना विचार और परियोजना क्रियान्वयन का नया विचार मायने रखता है। ये दोनों ही विचार वृहद आर्थिक स्थिति पर असर डालते हैं। इन्हें समझना और उपयुक्त कदम उठाना 2024 में भारत की वृहद अर्थव्यवस्था को लेकर विचार बनाने में हमारी मदद करेगा।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)