होमी भाभा ने 1950 के दशक में जब भारत के परमाणु कार्यक्रम की कल्पना की थी तब उनका सपना काफी बड़ा था: स्वदेशी तरीके से ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर बनना। इसके लिए उन्होंने प्रेशराइज्ड हैवी वाटर रिएक्टर, फास्ट ब्रीडर रिएक्टर और आखिरकार देश के बड़े थोरियम भंडार का उपयोग करने वाली थोरियम आधारित प्रणाली पर जोर दिया। भारत का पहला तारापुर परमाणु ऊर्जा स्टेशन 1969 में शुरू किया गया था। हालांकि 1974 के बाद लगे प्रतिबंधों, सीमित यूरेनियम भंडार, तकनीकी बाधाओं और नीतिगत सतर्कता बरतने के कारण इस दिशा में प्रगति धीमी हो गई। आज भी, भारत की 466 गीगावॉट स्थापित बिजली क्षमता में परमाणु ऊर्जा का योगदान महज 8.8 गीगावॉट है।
भारत और अमेरिका के बीच हुए ऐतिहासिक असैन्य परमाणु समझौते की घोषणा को अब 20 साल हो चुके हैं। वर्ष 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस उच्चस्तरीय समझौते ने 2000 के दशक के अंत तक भारतीय राजनीति पर अपना दबदबा बनाए रखा। मनमोहन सिंह ने व्यक्तिगत रूप से इस समझौते को आगे बढ़ाया, और हालात ऐसे बन गए कि उन्होंने इसके लिए अपनी और कांग्रेस पार्टी के भविष्य को भी दांव पर लगाने से कोई गुरेज नहीं किया।
मौजूदा दौर की बात करें तो भारत की परमाणु ऊर्जा की यात्रा अपने सबसे परिवर्तनकारी चरण में प्रवेश करने के लिए पूरी तरह तैयार है। इसके लिए अब सरकार, निजी कंपनियों को भी 2047 तक परमाणु ऊर्जा को 100 गीगावॉट तक बढ़ाने के लक्ष्य में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित कर रही है। यह लक्ष्य भारत के वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के वादे से जुड़ा है, जो बिजली क्षेत्र को प्रदूषण मुक्त करने पर भी निर्भर करता है। इस नए सिरे से जोर देने की योजना के केंद्र में छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) हैं, ये 300 मेगावॉट से कम क्षमता वाले, कारखाने में बने यूनिट होते हैं जिन्हें औद्योगिक क्षेत्रों या पुराने कोयला बिजली संयंत्रों की जगह पर जल्दी से लगाया जा सकता है।
वर्ष 2025-26 के बजट में 2033 तक पांच स्वदेशी एसएमआर चालू करने के लिए अनुसंधान एवं विकास मिशन के लिए 20,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। परमाणु ऊर्जा विभाग के मुताबिक, एसएमआर पुराने कोयला संयंत्रों को उनके मौजूदा बिजली ग्रिड, पानी की आपूर्ति और जमीन का इस्तेमाल कर फिर से चालू करने में मदद करेंगे। अगर 25 वर्ष से अधिक पुरानी कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को बंद करने की विद्युत मंत्रालय की सलाह मान ली जाती है तब अगले 10 वर्षों में 50-60 गीगावॉट की क्षमता खत्म हो जाएगी जिससे इन जगहों पर एसएमआर लगाने से बड़े मौके तैयार होंगे। 100 गीगावॉट लक्ष्य में एसएमआर से 41 गीगावॉट का योगदान मिलने की उम्मीद है।
इसके अलावा 2047 तक 100 गीगावॉट परमाणु ऊर्जा के राष्ट्रीय लक्ष्य में एफबीआर से 5 गीगावॉट शामिल हो सकता है जो एक उन्नत तकनीक है और यह फिलहाल केवल रूस में इस्तेमाल होती है। भारत का 500 मेगावॉट का पहला प्रोटोटाइप फास्ट ब्रीडर रिएक्टर (पीएफबीआर) तमिलनाडु के कलपक्कम में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, भारतीय नाभिकीय विद्युत निगम लिमिटेड द्वारा विकसित की जा रही है। पीएफबीआर ईंधन के रूप में प्लूटोनियम का इस्तेमाल करता है और सामान्य यूरेनियम को नए नाभिकीय ईंधन में बदल देता है जिसका इस्तेमाल अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है।
अहम बात यह है कि अब परमाणु ऊर्जा पर केवल सरकार का एकाधिकार नहीं रहेगा। टाटा, अदाणी, रिलायंस और लार्सन ऐंड टुब्रो जैसे बड़े औद्योगिक घराने अपनी खुद की परमाणु इकाइयां स्थापित कर रहे हैं और बड़े निवेश कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों में, दुनिया के सबसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर निवेशकों में से एक, ब्रुकफील्ड ऐसेट मैनेजमेंट के अध्यक्ष कोनॉर टेस्की भारतीय परमाणु उद्यमों का सहयोग करने के लिए तैयार हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह तकनीक स्वच्छ, डिस्पैचेबल बेसलोड वाली बिजली देती है। ब्रुकफील्ड के स्वामित्व वाली वेस्टिंगहाउस न्यूक्लियर, एक प्रमुख वैश्विक आपूर्तिकर्ता है जो भारत को एक महत्त्वपूर्ण वृद्धि वाले बाजार के रूप में देखती है।
निजी भागीदारी की सटीक रूपरेखा तैयार करने की दिशा में काम चल रहा है, जिसमें एनपीसीआईएल द्वारा निगरानी और आश्वासन शामिल है। निजी निवेशकों की चिंताओं को दूर करने के लिए, सरकार परमाणु ऊर्जा अधिनियम में दो महत्त्वपूर्ण संशोधन करने वाली है। पहला संशोधन, परमाणु दायित्व कानून के प्रावधानों को आसान बनाने से जुड़ा है जिससे दुर्घटना की स्थिति में उपकरण वेंडर की देनदारी प्रभावी रूप से सीमित हो जाएगी। इसमें मौद्रिक निवेश को अनुबंध के मूल मूल्य तक सीमित करना और शायद यह तय करना भी शामिल है कि यह देनदारी कब तक लागू होगी।
दूसरा संशोधन निजी कंपनियों को नियामकीय सुरक्षा उपायों के अधीन, परमाणु संयंत्रों का निर्माण, सह-स्वामित्व या संचालन करने की अनुमति देगा। उम्मीद है कि ये दोनों संशोधन संसद के मॉनसून सत्र के दौरान पेश किए जाएंगे और इन्हें दीर्घकालिक निजी निवेश और अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है। सरकार 49 फीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने के प्रस्ताव पर भी विचार कर रही है।
कानूनी सुधारों के अलावा, भारत को निजी निवेश को आर्थिक रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि परमाणु ऊर्जा महंगी है। व्यवहार्यता अंतर फंडिंग, जिसका अन्य बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है, उसका दायरा परमाणु परियोजनाओं तक बढ़ाया जाना चाहिए ताकि शुरुआत की अधिक लागत कम की जा सके। दीर्घकालिक बिजली खरीद समझौते, सॉवरिन गारंटी और हरित ऊर्जा वर्गीकरण, निवेश के जोखिम को कम करने में मदद करेंगे। घरेलू खनन और वैश्विक सौदे, दोनों के माध्यम से यूरेनियम आपूर्ति का स्पष्ट आश्वासन, ईंधन की कमी के डर को दूर करने के लिए आवश्यक हैं।
भारत में परमाणु क्षेत्र में एक बार फिर से गतिविधियों का बढ़ना अब सिर्फ एक सपना नहीं है बल्कि यह वास्तव में एक नीति समर्थित, पूंजी समर्थित मिशन बनने वाला है। इस बार नया जोर निजी क्षेत्र को शामिल करने पर होगा।
(लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंध न्यासी हैं। लेख में वृंदा सिंह का भी योगदान है)